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बनारस की ही नहीं, साउथ की ये साड़ियां भी हैं मशहूर, हाथ की कारीगरी देखकर रह जाएंगे दंग - National Handloom Day 2024 - NATIONAL HANDLOOM DAY 2024

National Handloom Day: हर साल 7 अगस्त को राष्ट्रीय हरकरघा दिवस मनाया जाता है, इस दिन को मनाने के पीछे का उद्देश्य हरकरघा बुनकर और कारीगरों की मेहनत का सम्मान करना है. अगर आप भी बुनकर और कारीगरों के काम की एक झलक पाना चाहते हैं तो जा सकते हैं दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में लगे सिल्क एक्स्पो में जहां देशभर से आए बुनकरों ने प्रदर्शनी लगाई है, जहां बनारसी साड़ी की नहीं, बल्कि साउथ की साड़ियों की भी खूब चर्चा हो रही है.

National Handloom Day
7 अगस्त राष्ट्रीय हथकरघा दिवस (SOURCE: ETV BHARAT)
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By ETV Bharat Delhi Team

Published : Aug 7, 2024, 2:03 PM IST

Updated : Aug 7, 2024, 3:51 PM IST

नई दिल्ली: आज राष्ट्रीय हथकरघा दिवस है. हथकरघा बुनकरों के सम्मान में हर साल 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है. बुनकरों को समर्पित राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाए जाने की शुरुआत 2015 में की गई थी. इस अवसर पर हथकरघा यानि हैंडलूम के क्षेत्र में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देश भर में अनेक आयोजन किये जाते हैं.

इन दिनों राजधानी के रफी मार्ग स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया में देशभर के करीब 25 राज्यों से आये होनहार बुनकरों ने सिल्क की साड़ियों की प्रदर्शनी लगाई है. आपने सुना होगा कि बनारसी सिल्क साड़ियां काफी अच्छी होती हैं. लेकिन, प्रदर्शनी में मौजूद अन्य राज्यों के आये बुनकरों ने बताया कि उनके पास भी कई किस्म की साड़ियां हैं, जो उन राज्यों के इतिहास और कल्चर को दर्शाती हैं.

झारखंड में पटा चित्रा तो बिहार में मधुबनी पेंटिंग वाली साड़ियां काफी फेमस हैं
झारखंड के गोटा जिले के बहिया में रहने वाले विश्वास सावन ने बताया कि वह एक बुनकर परिवार से हैं. साथ ही वह खुद एक बुनकर हैं. उनकी फर्म का नाम आर एस हैंडलूम है. झारखंड में पटा चित्रा नाम की साड़ी काफी मशहूर है. इस साड़ी की खासियत यह है साड़ी को बुनाई के दौरान ताने-बाने को एक साथ निकाला जाता है. इसको हैंडमेड फाइन क्वालटी के तौर पर तैयार किया जाता है. इसके साथ ही साड़ी पर हाथ से कलाकारी की जाती है. इसमें दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि पहले झारखंड के लोग किस तरह जानवरों को मारकर जीवनयापन किया करते थे.

प्रदर्शनी में मौजूद झारखंड की ऐतिहासिक साड़ी की कीमत 27000 रुपए है. लेकिन प्रदर्शनी में आने वाले ग्राहकों के लिए पर 25 फीसदी छूट दी गई है. विश्वास आगे बताते हैं कि वैसे तो मधुबनी पेंटिंग वाली साड़ियां बिहार से निर्मित होती है. लेकिन अब झारखंड के बुनकर भी मधुबनी पेंटिंग वाली साड़ियां तैयार करने लगे हैं. इस बार बिहार और झारखंड को दर्शाने वाली विशेष साड़ी को प्रदर्शनी में लाए हैं.

National Handloom Day
7 अगस्त राष्ट्रीय हथकरघा दिवस (SOURCE: ETV BHARAT)

वहीं आंध्रप्रदेश से आए शंकर ने बताया कि वो भी बुनकर हैं. वर्तमान में बनारसी साड़ियां काफी डिमांड में हैं, लेकिन साउथ की कांजीवरम सड़ियों की तरफ लोगों का रुझान कम हैं. आंध्र प्रदेश में टिशू सिल्क की साड़ी काफी मशहूर है. इसको प्योर सिल्क और गोल्ड प्लेटेड जरी से तैयार किया जाता है. शादियों में इसकी खासा डिमांड है. इस साड़ी को तैयार करने में काफी मेहनत लगती है. इसमें पल्लू को साड़ी से बाद में जोड़ा जाता है. कांजीवरम की साड़ी बनाने में 45 दिन का समय लगता है. करीब तीन से चार बुनकर एक साड़ी पर काम करते हैं. ओरिजिनल कांजीवरम की शुरुआत 1 लाख 60000 रुपए से होती है, वहीं इसको 100 वर्षों तक इस्तेमाल किया जा सकता है. कांजीवरम साड़ियों को पहनने के बाद हमेशा ड्राई क्लीन करके अख़बार में लपेट कर रखना चाहिए. इसके अलावा साल में एक से दो बार धूप दिखानी चाहिए.

शंकर के पास स्टॉल पर कुछ किस्म के सील सैंपल भी हैं, उन्होंने बताया कि लोगों को काफी जागरूकता होती है सिल्क के बारे में जानने की. इसलिए इन्होंने कुछ कोकून (सिल्क पैदा करने वाले कीड़ों के जाल) को भी डिप्लॉय किया है. इसमें मलबरी, टसर, ईरी और मूंगा कोकून हैं. इसको पहले गरम पानी में भिगोया जाता है, उसके बाद इसमें सिल्क के सूत को निकाला जाता है. इसके बाद इन्हीं सूत से सिल्क की सड़ियों को तैयार किया जाता है.

सबसे सस्ती 12 हजार तो सबसे महंगी 35 हजार की बंधेज साड़ी यहां मौजूद
सिल्क एक्सपो में मौजूद एक और बुनकर गौरव ने बताया कि वह गुजरात के कच्छ जिले से आये हैं. गुजरात में सबसे ज्यादा बांधनी और बंधेज साड़ी तैयार की जाती है. भारत के कई अन्य राज्यों में भी बांधनी साड़ियां बनाई जाती हैं, लेकिन गुजरात की बंधेज और बांधनी साड़ी काफी अच्छी होती है. यह गुजरात का सांस्कृतिक पहनावा है. कच्छ में उनकी अपनी बुनकर फर्म है जिसमें करीब 30 कारीगर काम करते हैं. सभी बुनाई और बंधेज का काम करते हैं. बंधेज कई तरह से किया जाता है. जैसे चना बंधेज. इसको काफी बारीकी से तैयार किया जाता है.

वहीं राइ बंधेज में काफी मेहनत लगाई गई है, इसमें राइ के दोनों के बराबर बंधेज किया जाता है. बंधेज के काम को हर तरह के कपड़े के ऊपर किया जाता है. लेकिन सिल्क के कपड़े पर ज्यादा होता है. सिल्क की एक बंधेज साड़ी को तैयार होने में 10 से 15 दिन का समय लगता है. बंधेज की साड़ियों में जितना ज्यादा बारीक काम होता है, कीमत उसे आधार पर बढ़ती जाती है. फिलहाल उनके पास कम से कम 12 हज़ार रुपए की साड़ी है. वहीं ज्यादा कीमती वाली बंधेज साड़ी की कीमत 35 हज़ार के आसपास है.

राजस्थान से आई साड़ी है 6500 रुपये की
भारत में राजस्थान एक ऐसा राज्य है जो अपनी विशेष संस्कृति के लिए काफी मशहूर हैं यहां का खानपान और पहनावा अन्य राज्यों की तुलना में काफी अलग होता है. राजस्थान के बाड़मेर जिले से सिल्क एक्सपो में आए हरखाराम ने बताया कि वह बीते 10 साल से बुनकर के तौर पर काम कर रहे हैं. उनकी हेंडलूम फर्म में 10000 के करीब अन्य महिलाएं काम करती हैं. राजस्थान एक रेत वाली जगह है. इसलिए यहां घर काफी दूर दूर होते हैं. बुनकर महिलाएं अपने घरों के काम को पूरा कर के बुनाई और सिलाई का काम करती हैं. इस बार वह एप्लिक की हैंडमेड साड़ी लाए हैं. इस साड़ी को चंदेरी सिल्क के कपड़े पर तैयार किया जाता है. साड़ी में बारीक़ कटाई और बुनाई की जाती है. जिसको बुनकर हाथ से ही करते हैं. एक साड़ी को तैयार होने में 20 दिनों का समय लगता है. इसकी कीमत 6500 रुपए है.

सिल्क एक्सपो में बंगाल की साड़ियां भी खींच रही लोगों का ध्यान
आपने दुर्गा पूजा से समय बंगाली महिलाओं को सुन्दर साड़ियां पहने हुए जरूर देखा होगा. सिल्क एक्सपो में बंगाल की भी कई सुंदर साड़ियों को प्रदर्शित किया गया है. बंगाल की रहने वाली सोमनाथ ने बताया कि उनके परिवार में सभी बुनकर हैं. बंगाल में टिशू की साड़ियां काफी मशहूर हैं. यह बंगाल की ट्रेडिशनल साड़ी है. इसके अलावा बंगाल में मस्लिन जामदानी साड़ी भी तैयार की जाती है. वहीं इस बार वहा केले के पत्ते से बनी साड़ी भी लाई गई है. इसको केले के पत्तों के रेशों से तैयार किया जाता है. रेशों को पानी में उबाल कर सुखाया जाता है. इसके बाद इसकी बुनाई की जाती है. एक साड़ी को तैयार होने में करीब 15 से 20 दिन का समय लगता है. लेकिन मानसून के समय रेशे को सूखने में ज्यादा समय लगता है. इसलिए इस समय साड़ी तैयार होने में और ज्यादा दिन लगते हैं. इस साड़ी को उनके परिवार के लोग ही तैयार करते हैं. वह बीते 2 साल से सिल्क एक्सपो में आ रही है. इससे पहले उनके परिवार का कोई भी सदस्य एक्सपो में नहीं आया. सभी गांव में ही साड़ियों की बुनाई करते थे. वहीं जब उनको सिल्क एक्सपो की जानकारी मिली तो एक्सपो में आना शुरू किया.

बता दें कि राष्ट्रीय हथकरघा दिवस या राष्ट्रीय बुनकर दिवस को 7 अगस्त को ही मनाएं जाने के पीछे कारण काफी रोचक है. पूरे विश्व में सबसे बड़े हथकरघा उद्योग वाले भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इस हथकरघा का विशेष महत्व रहा है. हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने और विदेशी वस्तुओं (जिनमें वस्त्र भी शामिल थे) के बहिष्कार के लिए स्वेदशी आंदोलन की शुरूआत 7 अगस्त 1905 की को गई थी. इसी आंदोलन के चलते उस वक्त भारत के लगभग हर घर में खादी बनाने की शुरूआत की गई. इसी कारण से भारत सरकार ने 7 अगस्त 2015 से राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाए जाने की शुरूआत की. इस बार 10वां राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जा रहा है.

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नई दिल्ली: आज राष्ट्रीय हथकरघा दिवस है. हथकरघा बुनकरों के सम्मान में हर साल 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है. बुनकरों को समर्पित राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाए जाने की शुरुआत 2015 में की गई थी. इस अवसर पर हथकरघा यानि हैंडलूम के क्षेत्र में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देश भर में अनेक आयोजन किये जाते हैं.

इन दिनों राजधानी के रफी मार्ग स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया में देशभर के करीब 25 राज्यों से आये होनहार बुनकरों ने सिल्क की साड़ियों की प्रदर्शनी लगाई है. आपने सुना होगा कि बनारसी सिल्क साड़ियां काफी अच्छी होती हैं. लेकिन, प्रदर्शनी में मौजूद अन्य राज्यों के आये बुनकरों ने बताया कि उनके पास भी कई किस्म की साड़ियां हैं, जो उन राज्यों के इतिहास और कल्चर को दर्शाती हैं.

झारखंड में पटा चित्रा तो बिहार में मधुबनी पेंटिंग वाली साड़ियां काफी फेमस हैं
झारखंड के गोटा जिले के बहिया में रहने वाले विश्वास सावन ने बताया कि वह एक बुनकर परिवार से हैं. साथ ही वह खुद एक बुनकर हैं. उनकी फर्म का नाम आर एस हैंडलूम है. झारखंड में पटा चित्रा नाम की साड़ी काफी मशहूर है. इस साड़ी की खासियत यह है साड़ी को बुनाई के दौरान ताने-बाने को एक साथ निकाला जाता है. इसको हैंडमेड फाइन क्वालटी के तौर पर तैयार किया जाता है. इसके साथ ही साड़ी पर हाथ से कलाकारी की जाती है. इसमें दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि पहले झारखंड के लोग किस तरह जानवरों को मारकर जीवनयापन किया करते थे.

प्रदर्शनी में मौजूद झारखंड की ऐतिहासिक साड़ी की कीमत 27000 रुपए है. लेकिन प्रदर्शनी में आने वाले ग्राहकों के लिए पर 25 फीसदी छूट दी गई है. विश्वास आगे बताते हैं कि वैसे तो मधुबनी पेंटिंग वाली साड़ियां बिहार से निर्मित होती है. लेकिन अब झारखंड के बुनकर भी मधुबनी पेंटिंग वाली साड़ियां तैयार करने लगे हैं. इस बार बिहार और झारखंड को दर्शाने वाली विशेष साड़ी को प्रदर्शनी में लाए हैं.

National Handloom Day
7 अगस्त राष्ट्रीय हथकरघा दिवस (SOURCE: ETV BHARAT)

वहीं आंध्रप्रदेश से आए शंकर ने बताया कि वो भी बुनकर हैं. वर्तमान में बनारसी साड़ियां काफी डिमांड में हैं, लेकिन साउथ की कांजीवरम सड़ियों की तरफ लोगों का रुझान कम हैं. आंध्र प्रदेश में टिशू सिल्क की साड़ी काफी मशहूर है. इसको प्योर सिल्क और गोल्ड प्लेटेड जरी से तैयार किया जाता है. शादियों में इसकी खासा डिमांड है. इस साड़ी को तैयार करने में काफी मेहनत लगती है. इसमें पल्लू को साड़ी से बाद में जोड़ा जाता है. कांजीवरम की साड़ी बनाने में 45 दिन का समय लगता है. करीब तीन से चार बुनकर एक साड़ी पर काम करते हैं. ओरिजिनल कांजीवरम की शुरुआत 1 लाख 60000 रुपए से होती है, वहीं इसको 100 वर्षों तक इस्तेमाल किया जा सकता है. कांजीवरम साड़ियों को पहनने के बाद हमेशा ड्राई क्लीन करके अख़बार में लपेट कर रखना चाहिए. इसके अलावा साल में एक से दो बार धूप दिखानी चाहिए.

शंकर के पास स्टॉल पर कुछ किस्म के सील सैंपल भी हैं, उन्होंने बताया कि लोगों को काफी जागरूकता होती है सिल्क के बारे में जानने की. इसलिए इन्होंने कुछ कोकून (सिल्क पैदा करने वाले कीड़ों के जाल) को भी डिप्लॉय किया है. इसमें मलबरी, टसर, ईरी और मूंगा कोकून हैं. इसको पहले गरम पानी में भिगोया जाता है, उसके बाद इसमें सिल्क के सूत को निकाला जाता है. इसके बाद इन्हीं सूत से सिल्क की सड़ियों को तैयार किया जाता है.

सबसे सस्ती 12 हजार तो सबसे महंगी 35 हजार की बंधेज साड़ी यहां मौजूद
सिल्क एक्सपो में मौजूद एक और बुनकर गौरव ने बताया कि वह गुजरात के कच्छ जिले से आये हैं. गुजरात में सबसे ज्यादा बांधनी और बंधेज साड़ी तैयार की जाती है. भारत के कई अन्य राज्यों में भी बांधनी साड़ियां बनाई जाती हैं, लेकिन गुजरात की बंधेज और बांधनी साड़ी काफी अच्छी होती है. यह गुजरात का सांस्कृतिक पहनावा है. कच्छ में उनकी अपनी बुनकर फर्म है जिसमें करीब 30 कारीगर काम करते हैं. सभी बुनाई और बंधेज का काम करते हैं. बंधेज कई तरह से किया जाता है. जैसे चना बंधेज. इसको काफी बारीकी से तैयार किया जाता है.

वहीं राइ बंधेज में काफी मेहनत लगाई गई है, इसमें राइ के दोनों के बराबर बंधेज किया जाता है. बंधेज के काम को हर तरह के कपड़े के ऊपर किया जाता है. लेकिन सिल्क के कपड़े पर ज्यादा होता है. सिल्क की एक बंधेज साड़ी को तैयार होने में 10 से 15 दिन का समय लगता है. बंधेज की साड़ियों में जितना ज्यादा बारीक काम होता है, कीमत उसे आधार पर बढ़ती जाती है. फिलहाल उनके पास कम से कम 12 हज़ार रुपए की साड़ी है. वहीं ज्यादा कीमती वाली बंधेज साड़ी की कीमत 35 हज़ार के आसपास है.

राजस्थान से आई साड़ी है 6500 रुपये की
भारत में राजस्थान एक ऐसा राज्य है जो अपनी विशेष संस्कृति के लिए काफी मशहूर हैं यहां का खानपान और पहनावा अन्य राज्यों की तुलना में काफी अलग होता है. राजस्थान के बाड़मेर जिले से सिल्क एक्सपो में आए हरखाराम ने बताया कि वह बीते 10 साल से बुनकर के तौर पर काम कर रहे हैं. उनकी हेंडलूम फर्म में 10000 के करीब अन्य महिलाएं काम करती हैं. राजस्थान एक रेत वाली जगह है. इसलिए यहां घर काफी दूर दूर होते हैं. बुनकर महिलाएं अपने घरों के काम को पूरा कर के बुनाई और सिलाई का काम करती हैं. इस बार वह एप्लिक की हैंडमेड साड़ी लाए हैं. इस साड़ी को चंदेरी सिल्क के कपड़े पर तैयार किया जाता है. साड़ी में बारीक़ कटाई और बुनाई की जाती है. जिसको बुनकर हाथ से ही करते हैं. एक साड़ी को तैयार होने में 20 दिनों का समय लगता है. इसकी कीमत 6500 रुपए है.

सिल्क एक्सपो में बंगाल की साड़ियां भी खींच रही लोगों का ध्यान
आपने दुर्गा पूजा से समय बंगाली महिलाओं को सुन्दर साड़ियां पहने हुए जरूर देखा होगा. सिल्क एक्सपो में बंगाल की भी कई सुंदर साड़ियों को प्रदर्शित किया गया है. बंगाल की रहने वाली सोमनाथ ने बताया कि उनके परिवार में सभी बुनकर हैं. बंगाल में टिशू की साड़ियां काफी मशहूर हैं. यह बंगाल की ट्रेडिशनल साड़ी है. इसके अलावा बंगाल में मस्लिन जामदानी साड़ी भी तैयार की जाती है. वहीं इस बार वहा केले के पत्ते से बनी साड़ी भी लाई गई है. इसको केले के पत्तों के रेशों से तैयार किया जाता है. रेशों को पानी में उबाल कर सुखाया जाता है. इसके बाद इसकी बुनाई की जाती है. एक साड़ी को तैयार होने में करीब 15 से 20 दिन का समय लगता है. लेकिन मानसून के समय रेशे को सूखने में ज्यादा समय लगता है. इसलिए इस समय साड़ी तैयार होने में और ज्यादा दिन लगते हैं. इस साड़ी को उनके परिवार के लोग ही तैयार करते हैं. वह बीते 2 साल से सिल्क एक्सपो में आ रही है. इससे पहले उनके परिवार का कोई भी सदस्य एक्सपो में नहीं आया. सभी गांव में ही साड़ियों की बुनाई करते थे. वहीं जब उनको सिल्क एक्सपो की जानकारी मिली तो एक्सपो में आना शुरू किया.

बता दें कि राष्ट्रीय हथकरघा दिवस या राष्ट्रीय बुनकर दिवस को 7 अगस्त को ही मनाएं जाने के पीछे कारण काफी रोचक है. पूरे विश्व में सबसे बड़े हथकरघा उद्योग वाले भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इस हथकरघा का विशेष महत्व रहा है. हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने और विदेशी वस्तुओं (जिनमें वस्त्र भी शामिल थे) के बहिष्कार के लिए स्वेदशी आंदोलन की शुरूआत 7 अगस्त 1905 की को गई थी. इसी आंदोलन के चलते उस वक्त भारत के लगभग हर घर में खादी बनाने की शुरूआत की गई. इसी कारण से भारत सरकार ने 7 अगस्त 2015 से राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाए जाने की शुरूआत की. इस बार 10वां राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जा रहा है.

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Last Updated : Aug 7, 2024, 3:51 PM IST
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