जयपुर: किसी भी देश के मेडल उसकी जनसंख्या पर निर्भर नहीं करते, बल्कि खेलने वाली जनसंख्या पर निर्भर करते हैं. स्पोर्ट्स कल्चर बनना चाहिए और बचपन से उससे जुड़ना चाहिए. यह कहना है पैरा ओलंपियन और अर्जुन पुरस्कार विजेता दीपा मलिक का. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पत्रकारों से रूबरू होते हुए उन्होंने ये बात कही. साथ ही कहा कि आज देश उस मुकाम पर है, जिसमें गवर्नमेंट और स्टेट होल्डर की तरफ से ध्यान दिया जा रहा है, जो बहुत सालों से नहीं हुआ.
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी किताब 'ब्रिंग इट ऑन' को रिवील करने पहुंची पैरालंपियन दीपा मलिक ने ओलंपिक और पैरालंपिक मेडल की तुलना पर कहा कि ओलंपिक और पैरालंपिक को सिर्फ इंक्लूजन के रूप में कंपेयर करें. जहां तक मेडल की बात है तो ओलंपिक में एक ही जैवलिन थ्रो होता है, लेकिन पैरालंपिक में 12 से 20 तरह के तो जैवलिन थ्रो होते हैं. नंबर आफ कैटिगरी और अवसर ज्यादा होती है, इसलिए दोनों को कंपेयर करना ठीक नहीं है. गुड गवर्नेंस, इंक्लूसिव पॉलिसी, मीडिया की ओर से अवेयरनेस और सेलिब्रेशन में मदद का नतीजा है कि अब बदलाव आ रहा है. ये एक विशेष सर्कल है. जिसमें खिलाड़ी पहले खेलेगा, फिर जीतेगा, उसकी तैयारी में फंडिंग, पार्टिसिपेशन के लिए सरकार की नीतियां, ये सब कुछ एक टीम वर्क है.
पीएम ने पैरालंपिक को सराहा: उन्होंने कहा कि पहले एक या दो खेल ही फ्रंट पेज को ले जाते थे, लेकिन पैरालंपिक खेलों को गवर्नमेंट की नीतियों ने और प्रधानमंत्री ने बहुत सराहा है. जरूरत है अब हर स्कूल, हर एजुकेशनल संस्थान, हिंदुस्तान के नागरिक आगे आएं. किसी भी देश के मेडल उसकी जनसंख्या पर निर्भर नहीं करते, बल्कि खेलने वाली जनसंख्या पर निर्भर करते हैं. स्पोर्ट्स कल्चर बनना चाहिए और बचपन से उससे जुड़ना चाहिए.
संघर्ष की गाथा है किताब 'ब्रिंग इट ऑन': अपनी किताब ब्रिंग इट ऑन का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जीवन के हर दौर में कुछ नया करने की ठानी थी. ये किताब भी उनका ऐसा ही एक गोल था, जिसे उन्होंने पूरा किया है. उनकी दिव्यांगता को 25 साल पूरे हो चुके हैं. इन 25 सालों के संघर्ष और उपलब्धियां को इस किताब के जरिए पेश किया है. साथ ही उन्होंने कहा कि पिछले 25 साल में हालातों में बहुत ज्यादा बदलाव हुआ है. हालत पहले के मुकाबले काफी सुधरे हैं. एक वक्त था जब उनकी दिव्यांगता को लेकर ग्लानि महसूस होती थी. खुद से काफी हीन भावना आती थी. इसके बाद उनकी बेटी भी एक एक्सीडेंट के बाद दिव्यांग हो गई थी. ये सब उनके जीवन में एक बड़े सदमे और धक्के जैसा था, लेकिन उन्होंने उन हालातों में हार नहीं मानी, बल्कि, सबसे पहले खुद को संभाला. उस दौर में सीखा कि जब तक वो खुद उदास रहेंगी, पूरी दुनिया उन पर सिंपैथी रखेगी. दया के भाव से देखेगी, लेकिन ये काफी नकारात्मक होता है, जबकि वो नहीं चाहती थी कि उनके हालात से किसी को भी पीड़ा हो. उन्होंने कहा कि आज भी उन्हें मदद की जरूरत पड़ती है, लेकिन अब हालात बदल गए हैं, क्योंकि आज वो सशक्त बन चुकी हैं.