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संपत्ति और शक्ति व्यक्तिगत: अधिकारों और अधिग्रहण के कानून में संबंध - State Acquisition

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jul 1, 2024, 12:13 PM IST

Individual Rights: संपत्ति का अधिकार अब भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन अनुच्छेद 300A के तहत इसे संरक्षित रखा गया है और अदालतों ने इसकी मानव अधिकार के रूप में व्याख्या की है.

Individual Rights
अधिकारों और अधिग्रहण के कानून में संबंध (ANI)

नई दिल्ली: डॉ बीआर अंबेडकर लॉ कॉलेज (हैदराबाद) की असिस्टेंट प्रोफेसर पीवीएस सैलजा का कहना है कि एक समय ऐसा माना जाता था कि वोट देने का अधिकार, बोलने की आजादी का अधिकार या व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे तथाकथित व्यक्तिगत अधिकार, संपत्ति के अधिकार की तुलना में उच्च स्थान रखते थे. इसके चलते अदालतें संपत्ति के अधिकारों की तुलना में इन अधिकारों पर अतिक्रमण करने वाले कानूनों को रद्द करती रहीं.

सरकार समय-समय पर निजी संपत्ति का अनिवार्य रूप से अधिग्रहण करती रही है. इसकी वजह से भारत में भूमि अधिग्रहण के मुद्दों पर लोगों की चिंता बढ़ गई है. देश के भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 में अब तक हुए कई संशोधनों के बावजूद, एक सुसंगत राष्ट्रीय कानून का अभाव था, जो सार्वजनिक उपयोग के लिए निजी भूमि के अधिग्रहण पर उचित मुआवजे, भूमि मालिकों और उनकी आजीविका की बात कर सके.

भारत में भूमि अधिग्रहण वर्तमान में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 द्वारा शासित है. यह भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के रिप्लेस किए जाने के बाद 1 जनवरी 2014 से लागू हुआ था. इसके अतिरिक्त, रेलवे, विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZs), राष्ट्रीय राजमार्ग आदि जैसे खास इलाकों में भी भूमि अधिग्रहण के प्रावधानों वाले 16 अधिनियम हैं. अनुसूची II और III के तहत प्रावधानों को कुछ विशेष अधिनियमों पर भी लागू किया गया है.

संपत्ति के अधिकार को लेकर संविधान में संशोधन
लोकतंत्र में संपत्ति के अधिकार को सबसे कम बचाव योग्य अधिकार के रूप में जाना जाता है. यह ध्यान देने योग्य है कि संपत्ति के अधिकार को लेकर हमारे संविधान में सबसे अधिक संशोधन किए गए हैं. इससे चलते हमारी अदलातों ने कुछ सराहनीय और ऐतिहासिक निर्णय लिए हैं. संपत्ति के अधिकार के विधायी हेरफेर की गाथा पहले संशोधन अधिनियम, 1951 से शुरू हुई जिसके जरिए संविधान में अनुच्छेद 31-A और 31-B डाले गए.

संविधान निर्माताओं ने देश के प्रत्येक नागरिक को संपत्ति अर्जित करने, रखने और बेचने का अधिकार दिया है, साथ ही विधानमंडल द्वारा संपत्ति से वंचित करने के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की है. इसके लिए उन्होंने संपत्ति के वंचित करने को केवल सार्वजनिक उद्देश्य तक ही सीमित रखा है और इसके लिए मुआवजे की राशि भी निर्धारित की गई है.

संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं
हालांकि, संपत्ति का अधिकार अब भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन अनुच्छेद 300A के तहत इसे संरक्षित रखा गया है और अदालतों ने इसकी मानव अधिकार के रूप में व्याख्या की है. यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि भूमि मालिकों के पास राज्य की मनमानी कार्रवाई के खिलाफ सुरक्षा उपाय रहें. कोर्ट ने सात मौलिक अधिकारों को स्पष्ट किया है जिनका राज्य को संपत्ति अधिग्रहण करते समय पालन करना चाहिए. भारत के संविधान ने कई तरीकों से संपत्ति के अधिकार की रक्षा की.

कोच्चुनी बनाम मद्रास केस
सुप्रीम कोर्ट ने भी विभिन्न निर्णयों के माध्यम से सविंधान में हुए संशोधनों पर विचार किया और उनके दायरे को उचित सीमाओं के भीतर सीमित कर दिया. कोच्चुनी बनाम मद्रास केस में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की इस दलील को स्वीकार नहीं किया कि संशोधन के बाद अनुच्छेद 31(1) राज्य को किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने की अप्रतिबंधित शक्ति देता है. कोर्ट ने माना कि अनुच्छेद 31(1) और (2) अलग-अलग मौलिक अधिकार हैं.

पी वज्रवेलु मुदालियर बनाम विशेष डिप्टी कलेक्टर
पी वज्रवेलु मुदालियर बनाम विशेष डिप्टी कलेक्टर और भारत संघ बनाम मेटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे के संदर्भ में अनुच्छेद 31(2) पर विचार किया और माना कि अगर निर्धारित मुआवजा भ्रामक था या निर्धारित सिद्धांत अधिग्रहण के समय या उसके आसपास संपत्ति के मूल्य के लिए अप्रासंगिक थे, तो यह कहा जा सकता है कि विधानमंडल ने सत्ता का दुरुपयोग किया है.

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने भी 2022 के अपने फैसले में स्पष्ट किया कि संपत्ति अधिग्रहण से संबंधित कानून वैध होना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहण से स्पष्ट रूप से जनता को लाभ होना चाहिए. विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2022) के ऐतिहासिक मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस रुख को मजबूत करते हुए फैसला सुनाया कि कल्याणकारी राज्य के ढांचे के भीतर भी, सरकारी अधिकारियों को आवश्यक कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किए बिना संपत्ति जब्त करने की अनुमति नहीं है.

विमलाबेन अजीतभाई पटेल बनाम वत्सलाबेन अशोकभाई पटेल
संपत्ति के अधिकारों के महत्व को और पुख्ता करते हुए विमलाबेन अजीतभाई पटेल बनाम वत्सलाबेन अशोकभाई पटेल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि संपत्ति का अधिकार अब भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन मानव अधिकार के रूप में इसकी स्थिति बरकरार है.

(डी.बी.बैसनेट (डी) टीएचआर. एलआरएस बनाम कलेक्टर एससी मार्च 2020) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में मई 2024 में किसी व्यक्ति की संपत्ति अर्जित करने के लिए दिशानिर्देश दिए. कोर्ट ने कहा कि कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से जबरन बेदखल करना मानव अधिकार के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 300 A के तहत संवैधानिक अधिकार का भी उल्लंघन होगा.

संपत्ति के अधिग्रहण के बारे में सूचने दे स्टेट
कोर्ट ने कहा, 'ये सात अधिकार अनुच्छेद 300A के अनुरूप कानून के आधारभूत हैं और इनमें से किसी एक या कुछ का अभाव कानून को चुनौती के लिए अतिसंवेदनशील बना देगा.' कोर्ट ने कहा कि सबसे पहले, राज्य का कर्तव्य है कि वह मालिकों को उनकी संपत्ति के अधिग्रहण के इरादे के बारे में सूचित करे. यह नोटिस के अधिकार को सुनिश्चित करता है. इसके अलावा राज्य को भूमि मालिकों को आपत्तियां उठाने का मौका देना चाहिए, जिससे उनकी सुनवाई के अधिकार को बरकरार रखा जा सके. अधिग्रहण के संबंध में उसे अपने निर्णय को कम्युनिकेट करना जरूरी है.

अधिग्रहण को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रक्रिया उचित है और इसमें कोई मनमानी नहीं की गई है. राज्य का कर्तव्य है कि वह प्रभावित लोगों को उचित मुआवज़ा दे और उनके नुकसान और पुनर्वास की सुविधा प्रदान करे, जिससे उचित मुआवज़ के अधिकार की रक्षा हो सके. इसके बाद अधिग्रहण प्रक्रिया को कुशलतापूर्वक और निर्धारित समयसीमा के भीतर पूरा करना चाहिए, ताकि कार्यवाही के कुशल संचालन का अधिकार सुनिश्चित हो सके.

अंत में राज्य को अधिग्रहण प्रक्रिया को एक निश्चित निष्कर्ष पर लाना चाहिए और उसे भूमि मालिकों के निष्कर्ष के अधिकार का सम्मान करना चाहिए. ये सुरक्षा उपाय सामूहिक रूप से सुनिश्चित करते हैं कि संपत्ति का अधिकार केवल नाममात्र का अधिकार नहीं है, बल्कि एक वास्तविक अधिकार है, जो अन्यायपूर्ण और मनमाने राज्य कार्यों से सुरक्षित है.

असाधारण व्यक्तियों ने बनाया संविधान
हमारा संविधान असाधारण व्यक्तियों ने बनाया था. उनमें मन की वह दुर्लभ गुणवत्ता थी, जो सिद्धांत और व्यवहार को एक करती है. वे देश की अनूठी परिस्थितियों और लोगों की स्थायी जरूरतों और आकांक्षाओं को समझते थे. उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की, जिसमें प्रत्येक नागरिक के पास न केवल जीविका के साधन के रूप में बल्कि अत्याचार और आर्थिक उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए भी कुछ संपत्ति होनी चाहिए.

विधायिका कानून बनाती है और उनमें अस्पष्टता, संघर्ष, विसंगतियां, बेतुकेपन और कठिनाइयां, आदि की स्थिति उत्पन्न होने की पूरी संभावना होती है. सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत विधानों की व्याख्या करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इसका उपयोग बहुत से मामलों में किया जाता है. न्याय, प्रशासन का सबसे मजबूत स्तंभ है. इस विचार को ध्यान में रखते हुए, न्यायपालिका को देश के नागरिकों को न्याय करने के लिए विधानों की उचित व्याख्या करनी चाहिए और विधानों की व्याख्या के नियमों को बुद्धिमानी से लागू करना चाहिए.

यह भी पढ़ें- पीएम मोदी ने रामोजी ग्रुप के संस्थापक रामोजी राव को किया याद, ब्लॉग लिखकर कहा- सदैव प्रेरणा के प्रतीक बने रहेंगे

नई दिल्ली: डॉ बीआर अंबेडकर लॉ कॉलेज (हैदराबाद) की असिस्टेंट प्रोफेसर पीवीएस सैलजा का कहना है कि एक समय ऐसा माना जाता था कि वोट देने का अधिकार, बोलने की आजादी का अधिकार या व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे तथाकथित व्यक्तिगत अधिकार, संपत्ति के अधिकार की तुलना में उच्च स्थान रखते थे. इसके चलते अदालतें संपत्ति के अधिकारों की तुलना में इन अधिकारों पर अतिक्रमण करने वाले कानूनों को रद्द करती रहीं.

सरकार समय-समय पर निजी संपत्ति का अनिवार्य रूप से अधिग्रहण करती रही है. इसकी वजह से भारत में भूमि अधिग्रहण के मुद्दों पर लोगों की चिंता बढ़ गई है. देश के भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 में अब तक हुए कई संशोधनों के बावजूद, एक सुसंगत राष्ट्रीय कानून का अभाव था, जो सार्वजनिक उपयोग के लिए निजी भूमि के अधिग्रहण पर उचित मुआवजे, भूमि मालिकों और उनकी आजीविका की बात कर सके.

भारत में भूमि अधिग्रहण वर्तमान में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 द्वारा शासित है. यह भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के रिप्लेस किए जाने के बाद 1 जनवरी 2014 से लागू हुआ था. इसके अतिरिक्त, रेलवे, विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZs), राष्ट्रीय राजमार्ग आदि जैसे खास इलाकों में भी भूमि अधिग्रहण के प्रावधानों वाले 16 अधिनियम हैं. अनुसूची II और III के तहत प्रावधानों को कुछ विशेष अधिनियमों पर भी लागू किया गया है.

संपत्ति के अधिकार को लेकर संविधान में संशोधन
लोकतंत्र में संपत्ति के अधिकार को सबसे कम बचाव योग्य अधिकार के रूप में जाना जाता है. यह ध्यान देने योग्य है कि संपत्ति के अधिकार को लेकर हमारे संविधान में सबसे अधिक संशोधन किए गए हैं. इससे चलते हमारी अदलातों ने कुछ सराहनीय और ऐतिहासिक निर्णय लिए हैं. संपत्ति के अधिकार के विधायी हेरफेर की गाथा पहले संशोधन अधिनियम, 1951 से शुरू हुई जिसके जरिए संविधान में अनुच्छेद 31-A और 31-B डाले गए.

संविधान निर्माताओं ने देश के प्रत्येक नागरिक को संपत्ति अर्जित करने, रखने और बेचने का अधिकार दिया है, साथ ही विधानमंडल द्वारा संपत्ति से वंचित करने के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की है. इसके लिए उन्होंने संपत्ति के वंचित करने को केवल सार्वजनिक उद्देश्य तक ही सीमित रखा है और इसके लिए मुआवजे की राशि भी निर्धारित की गई है.

संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं
हालांकि, संपत्ति का अधिकार अब भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन अनुच्छेद 300A के तहत इसे संरक्षित रखा गया है और अदालतों ने इसकी मानव अधिकार के रूप में व्याख्या की है. यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि भूमि मालिकों के पास राज्य की मनमानी कार्रवाई के खिलाफ सुरक्षा उपाय रहें. कोर्ट ने सात मौलिक अधिकारों को स्पष्ट किया है जिनका राज्य को संपत्ति अधिग्रहण करते समय पालन करना चाहिए. भारत के संविधान ने कई तरीकों से संपत्ति के अधिकार की रक्षा की.

कोच्चुनी बनाम मद्रास केस
सुप्रीम कोर्ट ने भी विभिन्न निर्णयों के माध्यम से सविंधान में हुए संशोधनों पर विचार किया और उनके दायरे को उचित सीमाओं के भीतर सीमित कर दिया. कोच्चुनी बनाम मद्रास केस में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की इस दलील को स्वीकार नहीं किया कि संशोधन के बाद अनुच्छेद 31(1) राज्य को किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने की अप्रतिबंधित शक्ति देता है. कोर्ट ने माना कि अनुच्छेद 31(1) और (2) अलग-अलग मौलिक अधिकार हैं.

पी वज्रवेलु मुदालियर बनाम विशेष डिप्टी कलेक्टर
पी वज्रवेलु मुदालियर बनाम विशेष डिप्टी कलेक्टर और भारत संघ बनाम मेटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे के संदर्भ में अनुच्छेद 31(2) पर विचार किया और माना कि अगर निर्धारित मुआवजा भ्रामक था या निर्धारित सिद्धांत अधिग्रहण के समय या उसके आसपास संपत्ति के मूल्य के लिए अप्रासंगिक थे, तो यह कहा जा सकता है कि विधानमंडल ने सत्ता का दुरुपयोग किया है.

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने भी 2022 के अपने फैसले में स्पष्ट किया कि संपत्ति अधिग्रहण से संबंधित कानून वैध होना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहण से स्पष्ट रूप से जनता को लाभ होना चाहिए. विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2022) के ऐतिहासिक मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इस रुख को मजबूत करते हुए फैसला सुनाया कि कल्याणकारी राज्य के ढांचे के भीतर भी, सरकारी अधिकारियों को आवश्यक कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किए बिना संपत्ति जब्त करने की अनुमति नहीं है.

विमलाबेन अजीतभाई पटेल बनाम वत्सलाबेन अशोकभाई पटेल
संपत्ति के अधिकारों के महत्व को और पुख्ता करते हुए विमलाबेन अजीतभाई पटेल बनाम वत्सलाबेन अशोकभाई पटेल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि संपत्ति का अधिकार अब भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन मानव अधिकार के रूप में इसकी स्थिति बरकरार है.

(डी.बी.बैसनेट (डी) टीएचआर. एलआरएस बनाम कलेक्टर एससी मार्च 2020) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में मई 2024 में किसी व्यक्ति की संपत्ति अर्जित करने के लिए दिशानिर्देश दिए. कोर्ट ने कहा कि कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से जबरन बेदखल करना मानव अधिकार के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 300 A के तहत संवैधानिक अधिकार का भी उल्लंघन होगा.

संपत्ति के अधिग्रहण के बारे में सूचने दे स्टेट
कोर्ट ने कहा, 'ये सात अधिकार अनुच्छेद 300A के अनुरूप कानून के आधारभूत हैं और इनमें से किसी एक या कुछ का अभाव कानून को चुनौती के लिए अतिसंवेदनशील बना देगा.' कोर्ट ने कहा कि सबसे पहले, राज्य का कर्तव्य है कि वह मालिकों को उनकी संपत्ति के अधिग्रहण के इरादे के बारे में सूचित करे. यह नोटिस के अधिकार को सुनिश्चित करता है. इसके अलावा राज्य को भूमि मालिकों को आपत्तियां उठाने का मौका देना चाहिए, जिससे उनकी सुनवाई के अधिकार को बरकरार रखा जा सके. अधिग्रहण के संबंध में उसे अपने निर्णय को कम्युनिकेट करना जरूरी है.

अधिग्रहण को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रक्रिया उचित है और इसमें कोई मनमानी नहीं की गई है. राज्य का कर्तव्य है कि वह प्रभावित लोगों को उचित मुआवज़ा दे और उनके नुकसान और पुनर्वास की सुविधा प्रदान करे, जिससे उचित मुआवज़ के अधिकार की रक्षा हो सके. इसके बाद अधिग्रहण प्रक्रिया को कुशलतापूर्वक और निर्धारित समयसीमा के भीतर पूरा करना चाहिए, ताकि कार्यवाही के कुशल संचालन का अधिकार सुनिश्चित हो सके.

अंत में राज्य को अधिग्रहण प्रक्रिया को एक निश्चित निष्कर्ष पर लाना चाहिए और उसे भूमि मालिकों के निष्कर्ष के अधिकार का सम्मान करना चाहिए. ये सुरक्षा उपाय सामूहिक रूप से सुनिश्चित करते हैं कि संपत्ति का अधिकार केवल नाममात्र का अधिकार नहीं है, बल्कि एक वास्तविक अधिकार है, जो अन्यायपूर्ण और मनमाने राज्य कार्यों से सुरक्षित है.

असाधारण व्यक्तियों ने बनाया संविधान
हमारा संविधान असाधारण व्यक्तियों ने बनाया था. उनमें मन की वह दुर्लभ गुणवत्ता थी, जो सिद्धांत और व्यवहार को एक करती है. वे देश की अनूठी परिस्थितियों और लोगों की स्थायी जरूरतों और आकांक्षाओं को समझते थे. उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की, जिसमें प्रत्येक नागरिक के पास न केवल जीविका के साधन के रूप में बल्कि अत्याचार और आर्थिक उत्पीड़न से सुरक्षा के लिए भी कुछ संपत्ति होनी चाहिए.

विधायिका कानून बनाती है और उनमें अस्पष्टता, संघर्ष, विसंगतियां, बेतुकेपन और कठिनाइयां, आदि की स्थिति उत्पन्न होने की पूरी संभावना होती है. सामंजस्यपूर्ण निर्माण का सिद्धांत विधानों की व्याख्या करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इसका उपयोग बहुत से मामलों में किया जाता है. न्याय, प्रशासन का सबसे मजबूत स्तंभ है. इस विचार को ध्यान में रखते हुए, न्यायपालिका को देश के नागरिकों को न्याय करने के लिए विधानों की उचित व्याख्या करनी चाहिए और विधानों की व्याख्या के नियमों को बुद्धिमानी से लागू करना चाहिए.

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