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खराब हो रहे भारत-कनाडा के रिश्ते! जानें अन्य देशों के साथ कब-कब आई कूटनीतिक संबंधों में खटास

India Diplomatic Ties With Other Countries: पिछले कुछ दिनों में भारी उतार-चढ़ाव के बीच भारत ने कनाडा के साथ राजनयिक संबंधों को कम कर दिया है. ईटीवी भारत ने उन पुराने उदाहरणों पर गौर किया है जब नई दिल्ली को इस तरह के कदम उठाने पड़े थे.

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By Aroonim Bhuyan

Published : 2 hours ago

Of disruptions in Indias diplomatic ties with other countries
पीएम मोदी और कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो (डिजाइन इमेज) (AFP)

नई दिल्ली: भारत और कनाडा के रिश्ते बीते कुछ समय से ठीक नहीं चल रहे हैं. कनाडा सरकार ने खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के उच्चायुक्त के जुड़े होने का आरोप लगाकर दोनों देशों के बीच के कूटनीतिक रिश्तों में खटास पैदा कर दी है. वहीं भारत निज्जर मामले में कनाडा के आरोपों को सिरे से खारिज कर चुका है.

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो खालिस्तान अलगाववाद का निरंतर समर्थन करते आ रहे हैं. इतना ही नहीं भारत के खिलाफ अप्रमाणित आरोपों को कारण आखिरकार नई दिल्ली को ओटावा के साथ राजनयिक संबंधों को कम करने के लिए बाध्य होना पड़ा. कनाडा ने राजनयिक माध्यम से भारत को रविवार को जानकारी दी थी कि भारतीय उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा और अन्य राजनयिक उनके देश में एक जांच से संबंधित मामले में ‘रुचि के व्यक्ति' हैं. कनाडा का यह बयान दोनों देशों के रिश्तों को बिगाड़ने में आखिरी तिनका का काम कर गई.

दरअसल, कनाडा सरकार ने खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के उच्चायुक्त के शामिल होने का आरोप लगाया. भारत ने कनाडा के इन आरोपों को 'बेतूका' करार दिया और इस ट्रूडो सरकार के राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित बताया. नई दिल्ली का साफ कहना था कि, ट्रूडो सरकार का आरोप वोट बैंक की राजनीति पर केंद्रित है.

उसके बाद शाम तक, विदेश मंत्रालय ने कनाडा के प्रभारी डी अफेयर्स स्टीवर्ट व्हीलर को तलब किया और उन्हें सूचित किया कि, कनाडा में भारतीय उच्चायुक्त और अन्य राजनयिकों और अधिकारियों को आधारहीन तरीके से निशाना बनाना पूरी तरह से अस्वीकार्य है. मंत्रालय ने एक बयान में कहा, "यह रेखांकित किया गया कि उग्रवाद और हिंसा के माहौल में, ट्रूडो सरकार की कार्रवाई ने उनकी सुरक्षा को खतरे में डाल दिया...हमें उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान कनाडाई सरकार की प्रतिबद्धता पर कोई भरोसा नहीं है. इसलिए, भारत सरकार ने उच्चायुक्त और अन्य लक्षित राजनयिकों और अधिकारियों को वापस बुलाने का फैसला किया है.

इसके तुरंत बाद, मंत्रालय ने एक और बयान जारी किया जिसमें भारत सरकार के प्रभारी डीअफेयर्स व्हीलर और पांच अन्य वरिष्ठ कनाडाई राजनयिकों को देश से निष्कासित करने के फैसले के बारे में जानकारी दी गई. सोमवार को हुई घटनाओं की झड़ी ने दोनों देशों के बीच एक साल से अधिक समय से चल रहे आरोप-प्रत्यारोपों की परिणति को चिह्नित किया, जब ट्रूडो ने पिछले साल सितंबर में कनाडाई संसद में आरोप लगाया था कि निज्जर की हत्या में भारत का हाथ था.

नई दिल्ली ने ट्रूडो के आरोपों को "बेतुका और प्रेरित" बताते हुए खारिज कर दिया. विदेश मंत्रालय ने उस समय एक बयान में कहा था, "इस तरह के निराधार आरोप खालिस्तानी आतंकवादियों और चरमपंथियों से ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें कनाडा में शरण दी गई है और जो भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को खतरा पहुंचा रहे हैं." पूर्व भारतीय राजनयिक अमित दासगुप्ता के अनुसार, ट्रूडो ने भारत के खिलाफ अपने अप्रमाणित आरोपों को सार्वजनिक करके कूटनीति के सभी मानदंडों को पार कर लिया है.

दासगुप्ता ने ईटीवी भारत से कहा, "जस्टिन ट्रूडो अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो की विरासत का पालन कर रहे हैं." उन्होंने कहा कि, पियरे ट्रूडो भी भारत के बड़े विरोधी थे." 1982 में, यह उल्लेखनीय है कि पियरे ट्रूडो ने प्रधान मंत्री के रूप में, बब्बर खालसा के तत्कालीन प्रमुख, वांछित खालिस्तानी आतंकवादी तलविंदर परमार के प्रत्यर्पण के भारत के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था. पियरे ट्रूडो के संरक्षण में, परमार ने 1985 में आयरलैंड के तट पर एयर इंडिया के विमान कनिष्क पर बमबारी की साजिश रची, जिसमें 329 लोग मारे गए, यह 9/11 से पहले का सबसे भयानक एविएशन टेरर अटैक था.

जबकि भारत में खालिस्तान अलगाववादी आंदोलन काफी हद तक खत्म हो चुका है, कनाडा में सिख आबादी के एक छोटे से हिस्से ने इसे बहुत हद तक आत्मसात कर लिया है. कनाडा के सिख प्रवासी आबादी के एक हिस्से की ऐसी गतिविधियां, जिन्होंने खालिस्तान की भावनाओं का समर्थन किया है, भारत-कनाडा संबंधों के बिगड़ने का एक प्रमुख कारण रही हैं.

भारत आमतौर पर दुनिया भर के अधिकांश देशों के साथ राजनयिक संबंध बनाए रखता है, और राजनयिक संबंधों को कम करने या समाप्त करने के उदाहरण दुर्लभ हैं. हालांकि, कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं जहां भारत ने अक्सर राजनीतिक, सैन्य या वैचारिक संघर्षों के कारण विशिष्ट देशों के साथ अपने राजनयिक संबंधों को समाप्त या सस्पैंड कर दिया है.

आतंकवाद से जुड़े मुद्दों का हवाला देकर कनाडा के साथ राजनयिक संबंधों को कम करके भारत ने एक तरह से उत्तरी अमेरिकी देश को पाकिस्तान की श्रेणी में खड़ा कर दिया है. एक ऐसा देश जिसके साथ नई दिल्ली ने भी राजनयिक संबंधों को कम कर दिया है. फरवरी 2019 में, पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद द्वारा पुलवामा में हमला करने के बाद, जिसमें 40 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान शहीद हो गए थे, भारत और पाकिस्तान ने जैसे को तैसा के तौर पर "परामर्श" के लिए अपने-अपने उच्चायुक्तों को वापस बुला लिया था.

फिर, उसी साल अगस्त में, जम्मू और कश्मीर में आर्टिकल 370 के खत्म होने के बाद, पाकिस्तान ने इस्लामाबाद से भारतीय उच्चायुक्त को निष्कासित कर दिया और नई दिल्ली से अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया. हालांकि संबंध बेहद तनावपूर्ण बने हुए हैं, फिर भी दोनों देश अपने मिशनों के माध्यम से निम्न-स्तरीय राजनयिक चैनल बनाए हुए हैं. इससे पहले भी भारत-पाकिस्तान के राजनयिक संबंधों में उतार-चढ़ाव देखे गए हैं. 1999 के कारगिल संघर्ष के बाद द्विपक्षीय संबंधों में फिर खटास आ गई, लेकिन संवाद कायम नहीं रहा.

उसके बाद फिर, 2001 में पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा भारतीय संसद पर किए गए हमले के बाद, राजनयिक संबंधों को लगभग दो साल के लिए निलंबित कर दिया गया था. हालांकि, पाकिस्तान ऐसा पहला देश नहीं था जिसके साथ भारत ने राजनयिक संबंधों को कम या निलंबित किया था. 1946 में, अपनी स्वतंत्रता से भी पहले, भारत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद सरकार के साथ व्यापार संबंध तोड़ने वाला पहला देश बन गया था. इसके बाद भारत ने दक्षिण अफ्रीका पर पूर्ण - राजनयिक, वाणिज्यिक, सांस्कृतिक और खेल - प्रतिबंध लगा दिया.

भारत ने रंगभेद के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र, गुटनिरपेक्ष आंदोलन और अन्य बहुपक्षीय संगठनों के एजेंडे में रखने और दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने के लिए लगातार काम किया. रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाली अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (ANC) को 1960 के दशक से नई दिल्ली में एक प्रतिनिधि कार्यालय बनाए रखने की अनुमति दी गई थी.

दासगुप्ता के अनुसार, भारत द्वारा दक्षिण अफ्रीका के साथ राजनयिक संबंधों को तोड़ना रंगभेद के खिलाफ नई दिल्ली की सैद्धांतिक स्थिति का हिस्सा था. दासगुप्ता ने ईटीवी भारत से कहा, "भारत की विदेश नीति रंगभेद विरोधी थी." "हमने उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी क्योंकि हमारा मानना था कि यह एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था थी. भारत का मानना था कि रंगभेद का दुनिया में कोई स्थान नहीं है."

संबंधों का टूटना नस्लीय भेदभाव के प्रति भारत के विरोध और दक्षिण अफ्रीका में उत्पीड़ित लोगों की मुक्ति के लिए समर्थन का प्रतीक था. रंगभेद का खत्म होना और नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद 1994 में ही संबंध बहाल हुए. भारत और दक्षिण अफ्रीका अब मजबूत राजनयिक और व्यापारिक संबंध साझा करते हैं.

यह इसी विचारधारा पर आधारित था कि भारत ने रोडेशिया (अब जिम्बाब्वे) को मान्यता नहीं दी, जो एक श्वेत-अल्पसंख्यक शासन था जिसने 1965 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता की घोषणा की और उसके साथ सभी संपर्क तोड़ दिए. भारत ने रोडेशिया के श्वेत-अल्पसंख्यक शासन की लगातार निंदा की और शासन को वैश्विक रूप से अलग-थलग करने के प्रयासों का समर्थन किया. नई दिल्ली ने जिम्बाब्वे के साथ राजनयिक संबंध केवल 1980 में देश की स्वतंत्रता और रॉबर्ट मुगाबे के नेतृत्व में बहुमत-शासन वाली सरकार की स्थापना के बाद स्थापित किए.

हालांकि आज भारत और इजराइल के बीच बहुत करीबी राजनयिक संबंध हैं, लेकिन 1948 में यहूदी राष्ट्र के अस्तित्व में आने के बाद 20वीं सदी के अधिकांश भाग में ऐसा नहीं था. हालांकि भारत ने 1950 में इजराइल को मान्यता देने की घोषणा की, लेकिन भारत की प्रारंभिक विदेश नीति, फिलिस्तीनी कारणों के लिए इसके समर्थन और इसकी बड़ी मुस्लिम आबादी से प्रभावित होकर, इजराइल के साथ राजनयिक संबंधों को औपचारिक रूप देने में अनिच्छा का कारण बनी. हालांकि, पर्दे के पीछे, इजराइल और भारत ने कुछ सैन्य और खुफिया सहयोग बनाए रखा. वहीं1992 में पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए गए, और तब से ये संबंध मजबूत हुए हैं, खासकर रक्षा, प्रौद्योगिकी और व्यापार के क्षेत्रों में.

1950 में, भारत ने पुर्तगाल के साथ राजनयिक संबंध तोड़ दिए क्योंकि पुर्तगाल ने भारत में अपने उपनिवेशों, विशेष रूप से गोवा, दमन और दीव पर नियंत्रण छोड़ने से इनकार कर दिया था. गोवा एक पुर्तगाली उपनिवेश था, और पुर्तगाल ने 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत को इसे वापस करने के लिए बातचीत करने से इनकार कर दिया. भारत ने कई सालों तक पुर्तगाल के साथ शांतिपूर्ण बातचीत करने का प्रयास किया. हालांकि, जब कूटनीतिक प्रयास विफल हो गए, तो भारत ने 1961 में गोवा, दमन और दीव को पुर्तगाली शासन से मुक्त करने के लिए एक सैन्य अभियान (ऑपरेशन विजय) शुरू किया. 1974 में पुर्तगाली कार्नेशन क्रांति तक राजनयिक संबंध टूट गए, जिसके कारण पुर्तगाल में लोकतंत्र की बहाली हुई और भारत के साथ धीरे-धीरे संबंधों में सुधार हुआ.

1987 में, फिजी में दो सैन्य तख्तापलट के बाद उस सरकार को उखाड़ फेंका गया जिसमें इंडो-फिजियन (जातीय भारतीय) महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति रखते थे. तख्तापलट को इंडो-फिजियन समुदाय के खिलाफ नस्लीय रूप से प्रेरित माना जाता था, जो फिजी की आबादी का एक बड़ा हिस्सा था और एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपस्थिति रखता था.

मई 1990 में, भारत ने इन राजनीतिक घटनाक्रमों के मद्देनजर फिजी में अपने उच्चायोग और भारतीय सांस्कृतिक केंद्र को बंद कर दिया. यह केवल मार्च 1999 में था, जब फिजी में आम चुनावों के बाद महेंद्र चौधरी ने पहले इंडो-फिजियन प्रधान मंत्री के रूप में पदभार संभाला, तब भारत ने अपना उच्चायोग फिर से खोला. इसके बाद फरवरी 2005 में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र को फिर से खोला गया. जनवरी 2004 में फिजी ने नई दिल्ली में अपना उच्चायोग स्थापित किया.

एक और देश जिसके साथ भारत ने फिलहाल राजनयिक संबंध निलंबित कर दिए हैं, वह है अफगानिस्तान, क्योंकि अगस्त 2021 में तालिबान फिर से सत्ता में आ गया है. हालांकि, इस मामले में सिर्फ भारत ही नहीं है. दुनिया के कई दूसरे देश भी तालिबान शासन को मान्यता नहीं देते हैं. इससे पहले भी 1990 के दशक में अफगान गृहयुद्ध और तालिबान शासन के दौरान भारत और अफगानिस्तान के बीच राजनयिक संबंध कम हो गए थे.

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कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो खालिस्तान अलगाववाद का निरंतर समर्थन करते आ रहे हैं. इतना ही नहीं भारत के खिलाफ अप्रमाणित आरोपों को कारण आखिरकार नई दिल्ली को ओटावा के साथ राजनयिक संबंधों को कम करने के लिए बाध्य होना पड़ा. कनाडा ने राजनयिक माध्यम से भारत को रविवार को जानकारी दी थी कि भारतीय उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा और अन्य राजनयिक उनके देश में एक जांच से संबंधित मामले में ‘रुचि के व्यक्ति' हैं. कनाडा का यह बयान दोनों देशों के रिश्तों को बिगाड़ने में आखिरी तिनका का काम कर गई.

दरअसल, कनाडा सरकार ने खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के उच्चायुक्त के शामिल होने का आरोप लगाया. भारत ने कनाडा के इन आरोपों को 'बेतूका' करार दिया और इस ट्रूडो सरकार के राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित बताया. नई दिल्ली का साफ कहना था कि, ट्रूडो सरकार का आरोप वोट बैंक की राजनीति पर केंद्रित है.

उसके बाद शाम तक, विदेश मंत्रालय ने कनाडा के प्रभारी डी अफेयर्स स्टीवर्ट व्हीलर को तलब किया और उन्हें सूचित किया कि, कनाडा में भारतीय उच्चायुक्त और अन्य राजनयिकों और अधिकारियों को आधारहीन तरीके से निशाना बनाना पूरी तरह से अस्वीकार्य है. मंत्रालय ने एक बयान में कहा, "यह रेखांकित किया गया कि उग्रवाद और हिंसा के माहौल में, ट्रूडो सरकार की कार्रवाई ने उनकी सुरक्षा को खतरे में डाल दिया...हमें उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान कनाडाई सरकार की प्रतिबद्धता पर कोई भरोसा नहीं है. इसलिए, भारत सरकार ने उच्चायुक्त और अन्य लक्षित राजनयिकों और अधिकारियों को वापस बुलाने का फैसला किया है.

इसके तुरंत बाद, मंत्रालय ने एक और बयान जारी किया जिसमें भारत सरकार के प्रभारी डीअफेयर्स व्हीलर और पांच अन्य वरिष्ठ कनाडाई राजनयिकों को देश से निष्कासित करने के फैसले के बारे में जानकारी दी गई. सोमवार को हुई घटनाओं की झड़ी ने दोनों देशों के बीच एक साल से अधिक समय से चल रहे आरोप-प्रत्यारोपों की परिणति को चिह्नित किया, जब ट्रूडो ने पिछले साल सितंबर में कनाडाई संसद में आरोप लगाया था कि निज्जर की हत्या में भारत का हाथ था.

नई दिल्ली ने ट्रूडो के आरोपों को "बेतुका और प्रेरित" बताते हुए खारिज कर दिया. विदेश मंत्रालय ने उस समय एक बयान में कहा था, "इस तरह के निराधार आरोप खालिस्तानी आतंकवादियों और चरमपंथियों से ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें कनाडा में शरण दी गई है और जो भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को खतरा पहुंचा रहे हैं." पूर्व भारतीय राजनयिक अमित दासगुप्ता के अनुसार, ट्रूडो ने भारत के खिलाफ अपने अप्रमाणित आरोपों को सार्वजनिक करके कूटनीति के सभी मानदंडों को पार कर लिया है.

दासगुप्ता ने ईटीवी भारत से कहा, "जस्टिन ट्रूडो अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो की विरासत का पालन कर रहे हैं." उन्होंने कहा कि, पियरे ट्रूडो भी भारत के बड़े विरोधी थे." 1982 में, यह उल्लेखनीय है कि पियरे ट्रूडो ने प्रधान मंत्री के रूप में, बब्बर खालसा के तत्कालीन प्रमुख, वांछित खालिस्तानी आतंकवादी तलविंदर परमार के प्रत्यर्पण के भारत के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था. पियरे ट्रूडो के संरक्षण में, परमार ने 1985 में आयरलैंड के तट पर एयर इंडिया के विमान कनिष्क पर बमबारी की साजिश रची, जिसमें 329 लोग मारे गए, यह 9/11 से पहले का सबसे भयानक एविएशन टेरर अटैक था.

जबकि भारत में खालिस्तान अलगाववादी आंदोलन काफी हद तक खत्म हो चुका है, कनाडा में सिख आबादी के एक छोटे से हिस्से ने इसे बहुत हद तक आत्मसात कर लिया है. कनाडा के सिख प्रवासी आबादी के एक हिस्से की ऐसी गतिविधियां, जिन्होंने खालिस्तान की भावनाओं का समर्थन किया है, भारत-कनाडा संबंधों के बिगड़ने का एक प्रमुख कारण रही हैं.

भारत आमतौर पर दुनिया भर के अधिकांश देशों के साथ राजनयिक संबंध बनाए रखता है, और राजनयिक संबंधों को कम करने या समाप्त करने के उदाहरण दुर्लभ हैं. हालांकि, कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं जहां भारत ने अक्सर राजनीतिक, सैन्य या वैचारिक संघर्षों के कारण विशिष्ट देशों के साथ अपने राजनयिक संबंधों को समाप्त या सस्पैंड कर दिया है.

आतंकवाद से जुड़े मुद्दों का हवाला देकर कनाडा के साथ राजनयिक संबंधों को कम करके भारत ने एक तरह से उत्तरी अमेरिकी देश को पाकिस्तान की श्रेणी में खड़ा कर दिया है. एक ऐसा देश जिसके साथ नई दिल्ली ने भी राजनयिक संबंधों को कम कर दिया है. फरवरी 2019 में, पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद द्वारा पुलवामा में हमला करने के बाद, जिसमें 40 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान शहीद हो गए थे, भारत और पाकिस्तान ने जैसे को तैसा के तौर पर "परामर्श" के लिए अपने-अपने उच्चायुक्तों को वापस बुला लिया था.

फिर, उसी साल अगस्त में, जम्मू और कश्मीर में आर्टिकल 370 के खत्म होने के बाद, पाकिस्तान ने इस्लामाबाद से भारतीय उच्चायुक्त को निष्कासित कर दिया और नई दिल्ली से अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया. हालांकि संबंध बेहद तनावपूर्ण बने हुए हैं, फिर भी दोनों देश अपने मिशनों के माध्यम से निम्न-स्तरीय राजनयिक चैनल बनाए हुए हैं. इससे पहले भी भारत-पाकिस्तान के राजनयिक संबंधों में उतार-चढ़ाव देखे गए हैं. 1999 के कारगिल संघर्ष के बाद द्विपक्षीय संबंधों में फिर खटास आ गई, लेकिन संवाद कायम नहीं रहा.

उसके बाद फिर, 2001 में पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा भारतीय संसद पर किए गए हमले के बाद, राजनयिक संबंधों को लगभग दो साल के लिए निलंबित कर दिया गया था. हालांकि, पाकिस्तान ऐसा पहला देश नहीं था जिसके साथ भारत ने राजनयिक संबंधों को कम या निलंबित किया था. 1946 में, अपनी स्वतंत्रता से भी पहले, भारत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद सरकार के साथ व्यापार संबंध तोड़ने वाला पहला देश बन गया था. इसके बाद भारत ने दक्षिण अफ्रीका पर पूर्ण - राजनयिक, वाणिज्यिक, सांस्कृतिक और खेल - प्रतिबंध लगा दिया.

भारत ने रंगभेद के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र, गुटनिरपेक्ष आंदोलन और अन्य बहुपक्षीय संगठनों के एजेंडे में रखने और दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने के लिए लगातार काम किया. रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाली अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (ANC) को 1960 के दशक से नई दिल्ली में एक प्रतिनिधि कार्यालय बनाए रखने की अनुमति दी गई थी.

दासगुप्ता के अनुसार, भारत द्वारा दक्षिण अफ्रीका के साथ राजनयिक संबंधों को तोड़ना रंगभेद के खिलाफ नई दिल्ली की सैद्धांतिक स्थिति का हिस्सा था. दासगुप्ता ने ईटीवी भारत से कहा, "भारत की विदेश नीति रंगभेद विरोधी थी." "हमने उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी क्योंकि हमारा मानना था कि यह एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था थी. भारत का मानना था कि रंगभेद का दुनिया में कोई स्थान नहीं है."

संबंधों का टूटना नस्लीय भेदभाव के प्रति भारत के विरोध और दक्षिण अफ्रीका में उत्पीड़ित लोगों की मुक्ति के लिए समर्थन का प्रतीक था. रंगभेद का खत्म होना और नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद 1994 में ही संबंध बहाल हुए. भारत और दक्षिण अफ्रीका अब मजबूत राजनयिक और व्यापारिक संबंध साझा करते हैं.

यह इसी विचारधारा पर आधारित था कि भारत ने रोडेशिया (अब जिम्बाब्वे) को मान्यता नहीं दी, जो एक श्वेत-अल्पसंख्यक शासन था जिसने 1965 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता की घोषणा की और उसके साथ सभी संपर्क तोड़ दिए. भारत ने रोडेशिया के श्वेत-अल्पसंख्यक शासन की लगातार निंदा की और शासन को वैश्विक रूप से अलग-थलग करने के प्रयासों का समर्थन किया. नई दिल्ली ने जिम्बाब्वे के साथ राजनयिक संबंध केवल 1980 में देश की स्वतंत्रता और रॉबर्ट मुगाबे के नेतृत्व में बहुमत-शासन वाली सरकार की स्थापना के बाद स्थापित किए.

हालांकि आज भारत और इजराइल के बीच बहुत करीबी राजनयिक संबंध हैं, लेकिन 1948 में यहूदी राष्ट्र के अस्तित्व में आने के बाद 20वीं सदी के अधिकांश भाग में ऐसा नहीं था. हालांकि भारत ने 1950 में इजराइल को मान्यता देने की घोषणा की, लेकिन भारत की प्रारंभिक विदेश नीति, फिलिस्तीनी कारणों के लिए इसके समर्थन और इसकी बड़ी मुस्लिम आबादी से प्रभावित होकर, इजराइल के साथ राजनयिक संबंधों को औपचारिक रूप देने में अनिच्छा का कारण बनी. हालांकि, पर्दे के पीछे, इजराइल और भारत ने कुछ सैन्य और खुफिया सहयोग बनाए रखा. वहीं1992 में पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए गए, और तब से ये संबंध मजबूत हुए हैं, खासकर रक्षा, प्रौद्योगिकी और व्यापार के क्षेत्रों में.

1950 में, भारत ने पुर्तगाल के साथ राजनयिक संबंध तोड़ दिए क्योंकि पुर्तगाल ने भारत में अपने उपनिवेशों, विशेष रूप से गोवा, दमन और दीव पर नियंत्रण छोड़ने से इनकार कर दिया था. गोवा एक पुर्तगाली उपनिवेश था, और पुर्तगाल ने 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत को इसे वापस करने के लिए बातचीत करने से इनकार कर दिया. भारत ने कई सालों तक पुर्तगाल के साथ शांतिपूर्ण बातचीत करने का प्रयास किया. हालांकि, जब कूटनीतिक प्रयास विफल हो गए, तो भारत ने 1961 में गोवा, दमन और दीव को पुर्तगाली शासन से मुक्त करने के लिए एक सैन्य अभियान (ऑपरेशन विजय) शुरू किया. 1974 में पुर्तगाली कार्नेशन क्रांति तक राजनयिक संबंध टूट गए, जिसके कारण पुर्तगाल में लोकतंत्र की बहाली हुई और भारत के साथ धीरे-धीरे संबंधों में सुधार हुआ.

1987 में, फिजी में दो सैन्य तख्तापलट के बाद उस सरकार को उखाड़ फेंका गया जिसमें इंडो-फिजियन (जातीय भारतीय) महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति रखते थे. तख्तापलट को इंडो-फिजियन समुदाय के खिलाफ नस्लीय रूप से प्रेरित माना जाता था, जो फिजी की आबादी का एक बड़ा हिस्सा था और एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपस्थिति रखता था.

मई 1990 में, भारत ने इन राजनीतिक घटनाक्रमों के मद्देनजर फिजी में अपने उच्चायोग और भारतीय सांस्कृतिक केंद्र को बंद कर दिया. यह केवल मार्च 1999 में था, जब फिजी में आम चुनावों के बाद महेंद्र चौधरी ने पहले इंडो-फिजियन प्रधान मंत्री के रूप में पदभार संभाला, तब भारत ने अपना उच्चायोग फिर से खोला. इसके बाद फरवरी 2005 में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र को फिर से खोला गया. जनवरी 2004 में फिजी ने नई दिल्ली में अपना उच्चायोग स्थापित किया.

एक और देश जिसके साथ भारत ने फिलहाल राजनयिक संबंध निलंबित कर दिए हैं, वह है अफगानिस्तान, क्योंकि अगस्त 2021 में तालिबान फिर से सत्ता में आ गया है. हालांकि, इस मामले में सिर्फ भारत ही नहीं है. दुनिया के कई दूसरे देश भी तालिबान शासन को मान्यता नहीं देते हैं. इससे पहले भी 1990 के दशक में अफगान गृहयुद्ध और तालिबान शासन के दौरान भारत और अफगानिस्तान के बीच राजनयिक संबंध कम हो गए थे.

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