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ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत-अमेरिका संबंध कैसे रहेंगे, क्या बदलाव हो सकते हैं, जानिए विशेषज्ञों की राय - INDIA US TIES

ट्रंप के पहले कार्यकाल में भारत-अमेरिका के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे. उनके दूसरे कार्यकाल में ये संबंध कैसे होंगे? जानें रणनीतिक विशेषज्ञों की राय. ईटीवी भारत की वरिष्ठ संवाददाता चंद्रकला चौधरी की रिपोर्ट.

what does trump second term mean for india us ties will flourish under his presidency experts
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (File Photo - AFP)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jan 21, 2025, 6:08 PM IST

नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पदभार संभालने के साथ ही आने वाले दिनों और हफ्तों में उनके कार्यों और निर्णयों पर दुनियाभर की कड़ी नजर होगा. व्हाइट हाउस में ट्रंप की वापसी से भारत और अमेरिका के बीच संबंधों के भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण सवाल उठ रहे हैं.

इससे पहले, ट्रंप 2017 से 2020 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे और इस अवधि में ऐसे बड़े निर्णय लिए गए, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नया आकार दिया. पिछले कार्यकाल में ट्रंप के बड़े फैसलों में पेरिस जलवायु समझौते और ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका को अलग करना, उत्तर कोरिया के लीडर किम जोंग उन के साथ ऐतिहासिक बैठक और पश्चिम एशिया में अब्राहम समझौते की स्थापना शामिल है. ट्रंप के पहले कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच संबंध मजबूत हुए थे. रक्षा से लेकर व्यापार तक, भू-राजनीतिक चुनौतियों के बीच संबंध विकसित हुए हैं.

अब ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत-अमेरिका संबंध किस दिशा में जाएंगे और इन पर क्या असर होगा ? क्या उनके कार्यकाल के दौरान संबंध और मजबूत होंगे? इन मुद्दों को समझने के लिए ईटीवी भारत ने कई रणनीतिक विशेषज्ञों से बात की.

भारत-अमेरिका की साझा चिंताएं
अमेरिकी विशेषज्ञ विभूति झा ने कहा, "भारत और अमेरिका एक दूसरे की चिंताएं साझा करते हैं और मैंने हमेशा यह सुनिश्चित किया है कि मैं उन्हें सबसे बड़ा, सबसे मजबूत, सबसे पुराना या सबसे नया लोकतंत्र न कहूं. इसके बजाय, मैं जोर देकर कहता हूं कि भारत और अमेरिका आज दुनिया के दो सबसे महत्वपूर्ण लोकतंत्र हैं. दोनों देशों के लिए अपने मौलिक सपनों और आकांक्षाओं में समान आधार की पहचान करना महत्वपूर्ण है. इसे हासिल करने के लिए, मेरा मानना है कि भारत को विनिर्माण महाशक्ति में बदलने की प्रधानमंत्री मोदी की पहल राष्ट्रपति ट्रंप के 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' एजेंडे के साथ सहज रूप से मेल खाती है. दोनों नेताओं का एक साझा लक्ष्य है: अपने-अपने देशों की आर्थिक और राजनीतिक ताकत को बढ़ाना, ताकि दोनों लोकतंत्र मजबूत हों."

उन्होंने कहा, "भारत और अमेरिका के बीच कई क्षेत्रों में समानता है, लेकिन यह स्वीकार करना जरूरी है कि हमारे पास अलग-अलग सांस्कृतिक और दार्शनिक मतभेद भी हैं, जो कुछ मतभेदों को जन्म दे सकते हैं. हालांकि, मैं आशावादी हूं कि ट्रंप और मोदी के बीच मित्रता और व्यक्तिगत तालमेल उन्हें यह पहचानने में मदद करेंगे कि तथाकथित 'जागृत सेना' (woke army) की तरफ से पेश की गई चुनौतियों के खिलाफ लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए सहयोग जरूरी है. हाल के वर्षों में, यह साफ हो गया है कि यह 'जागृत सेना' लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रही है, अपना हित साधने के लिए स्वतंत्रता का शोषण कर रही है."

विभूति झा ने कहा, "भारत और अमेरिका के बीच संबंध अहम हैं, क्योंकि दोनों देश MAGA (Make America Great Again) और मेक इन इंडिया जैसी अपनी पहलों को एक साथ ला रहे हैं. भारत अमेरिकी कंपनियों और उद्यमों के लिए सबसे बड़ा बाजार है, इस तथ्य की मैं काफी समय से वकालत कर रहा हूं. इसका लक्ष्य भारत को निवेश और प्रौद्योगिकी के लिए प्रमुख केंद्र के रूप में उभरना है, और भारत के लिए अमेरिका को एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में अपनी भूमिका को अपनाना जरूरी है. अमेरिका में, हम भारत को मूल्यवान सहयोगी के रूप में मान्यता देने के लिए प्रतिबद्ध हैं. दोनों देशों के बीच तालमेल की महत्वपूर्ण आवश्यकता है. इसके अलावा, यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि चीन भारत और अमेरिका दोनों के लिए साझा खतरा है, जो इसे हमारे हितों के झुकाव में महत्वपूर्ण कारक बनाता है."

ट्रंप प्रशासन का केंद्र बिंदु होगा चीन

एक अन्य विश्लेषक का मानना है कि ट्रंप प्रशासन ने अपनी रणनीति पहले ही शुरू कर दी है, जिसमें विभिन्न देशों को मिलेजुले संकेत भेजना शामिल है. शुरुआत में, चीन ट्रंप प्रशासन का केंद्र बिंदु होगा, जहां वह लगभग 60 प्रतिशत की प्रतिबद्धता का संकेत दे सकता है, लेकिन अंत में 10 या 15 प्रतिशत के करीब कुछ पर समझौता कर सकता है. परस्पर विरोधी संदेशों का प्रभाव भारत तक भी होगा.

क्वाड मीटिंग सकारात्मक घटनाक्रम
ORF के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के उप-निदेशक और अमेरिकी विदेश नीति के विशेषज्ञ विवेक मिश्रा ने ईटीवी भारत को बताया, "आज होने वाली क्वाड मीटिंग सकारात्मक घटनाक्रम है, जो सही दिशा में उठाया गया कदम है, भले ही यह तुरंत ठोस नीतिगत बदलावों में तब्दील न हो. हालांकि, यह ट्रंप प्रशासन के भीतर माइक वॉल्श (अमेरिकी एनएसए) और मार्को रुबियो (अमेरिकी विदेश सचिव) जैसे प्रमुख लोगों की मंशा को दर्शाता है, जो भारत और उसके सहयोगियों के साथ संबंधों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. क्षेत्रीय रूप से, ऐसा लगता है कि अमेरिका अपना ध्यान द्विपक्षीय से क्षेत्रीय मुद्दों पर केंद्रित कर रहा है, जो भारत के लिए अच्छा हो सकता है. हमें आने वाले दिनों में लिए जाने वाले निर्णयों पर नजर रखनी होगी, खासकर कार्यकारी आदेशों पर, क्योंकि इनके वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है. उदाहरण के लिए, ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण एजेंसी से संबंधित कार्य अमेरिकी रणनीति की भविष्य की दिशा को बहुत प्रभावित कर सकते हैं."

उन्होंने आगे कहा, "ट्रंप के कदमों को लेकर भारत के लिए तीन मुख्य चिंताएं हैं. पहला, द्विपक्षीय व्यापार के लिए उनका दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होगा, और यहीं से ध्यान केंद्रित करना शुरू होगा. हमें यह देखना होगा कि यह कैसे सामने आता है. दूसरा, हिंद-प्रशांत रणनीति ट्रंप के नेतृत्व में गठबंधनों के भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाती है. तीसरा, हिंद-प्रशांत की क्षेत्रीय रणनीति पर विचार करना सिर्फ एक पहलू है; अपने सहयोगियों के साथ ट्रंप की कार्रवाइयां इस बात को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करेंगी कि भारत को विभिन्न चुनौतियों के लिए कैसे अनुकूल होना चाहिए. उदाहरण के लिए, जापान के साथ उनके व्यवहार का हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जापानी रणनीति पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है, जिसका असर भारत पर भी पड़ेगा."

मिश्रा ने कहा, "हाल ही में, हमने देखा है कि जापान ने चीन को लेकर अपने दृष्टिकोण में बदलाव किया है, जो संबंधों में गर्मजोशी का संकेत है. अगर यह रुझान जारी रहता है और हम चीन-जापान संबंधों में नरमी देखते हैं, तो जापान चीन के साथ बढ़ते आर्थिक संबंधों के कारण अपने हिंद-प्रशांत रुख में अधिक सतर्क हो सकता है. नतीजतन, भारत को इन परस्पर जुड़ी गतिशीलताओं के प्रति सतर्क रहना होगा: व्यापक हिंद-प्रशांत रणनीति, द्विपक्षीय संबंध और सहयोगियों के साथ ट्रंप की बातचीत."

'अमेरिका फर्स्ट' प्रचार और भारत के हित

यह पूछे जाने पर कि क्या ट्रंप द्वारा समर्थित 'अमेरिका फर्स्ट' प्रचार भारत के हितों के साथ टकराव पैदा कर सकती है, मिश्रा ने कहा कि इस स्थिति का एक हिस्सा नीतिगत निर्णयों के कारण है, जिसने इसे आकार दिया है.

रणनीतिक विशेषज्ञ ने कहा, "एक देश अपने अधिकांश उत्पादन और विनिर्माण को वापस लाने की कोशिश कर रहा है, जिसे अक्सर ऑन-शोरिंग या नियर-शोरिंग कहा जाता है. यह बदलाव अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में विभिन्न खतरे लाएगा, जो भारत सहित सभी देशों को प्रभावित करेगा. भारत भी इससे अछूता नहीं है. दूसरी ओर, भारत के पास विकल्प हैं. यह अपने संसाधनों को मजबूत कर सकता है और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को बनाए रख सकता है. साथ ही अगर जरूरी हो तो जवाबी कार्रवाई करने के लिए तैयार रह सकता है. उदाहरण के लिए, पिछले ट्रंप प्रशासन के दौरान, भारत ने कई जवाबी उपाय लागू किए. यह दृष्टिकोण एक विकल्प बना रहना चाहिए क्योंकि ट्रंप जैसे किसी व्यक्ति से निपटने के लिए यह समझना जरूरी है कि प्रभावी ढंग से सौदे कैसे किए जाएं. भारत को कुछ मुद्दों पर दृढ़ रहने की जरूरत होगी जबकि अन्य पर लचीला होना होगा. इसलिए, इन तनावों के प्रति भारत की प्रतिक्रिया शायद मिलीजुली रणनीति होगी."

इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज (IPCS) के सीनियर फेलो और सुरक्षा विशेषज्ञ अभिजीत अय्यर मित्रा ने कहा कि कुल मिलाकर, टैरिफ को छोड़कर, भारत-अमेरिका संबंधों के लिए चीजें अच्छी दिख रही हैं. बाइडेन प्रशासन के तहत, एनएसए जेक सुलिवन और वित्त मंत्री जीना रायमोंडो जैसे नेता भारत के प्रबल समर्थक थे. हालांकि, विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन, जिनका दृष्टिकोण अलग था, अक्सर अमेरिकी धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्टों में भारत की आलोचना करते थे. इससे विभाजन पैदा हुआ.

अय्यर ने कहा, "जब कोई राष्ट्रपति पूरी तरह से प्रशासन में शामिल नहीं होता है, तो इन विभाजनों को संभालना मुश्किल होता है. बाइडेन ने अक्सर भारत का समर्थन किया, लेकिन उनका ध्यान सीमित है. इसके विपरीत, ट्रंप की नियुक्तियां चीन के सख्त खिलाफ हैं, जिससे चीन उनकी नीति का केंद्र बन गया है. वह एशिया को सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में देखते हैं, जिसमें भारत की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. बाइडेन के विपरीत, ट्रंप चीनी विनिर्माण नौकरियों के मुद्दे को सीधे संबोधित करने के लिए तैयार हैं."

यह भी पढ़ें- ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह को लेकर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दिया बड़ा बयान, कहा- मेरे लिए...

नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पदभार संभालने के साथ ही आने वाले दिनों और हफ्तों में उनके कार्यों और निर्णयों पर दुनियाभर की कड़ी नजर होगा. व्हाइट हाउस में ट्रंप की वापसी से भारत और अमेरिका के बीच संबंधों के भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण सवाल उठ रहे हैं.

इससे पहले, ट्रंप 2017 से 2020 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे और इस अवधि में ऐसे बड़े निर्णय लिए गए, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नया आकार दिया. पिछले कार्यकाल में ट्रंप के बड़े फैसलों में पेरिस जलवायु समझौते और ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका को अलग करना, उत्तर कोरिया के लीडर किम जोंग उन के साथ ऐतिहासिक बैठक और पश्चिम एशिया में अब्राहम समझौते की स्थापना शामिल है. ट्रंप के पहले कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच संबंध मजबूत हुए थे. रक्षा से लेकर व्यापार तक, भू-राजनीतिक चुनौतियों के बीच संबंध विकसित हुए हैं.

अब ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत-अमेरिका संबंध किस दिशा में जाएंगे और इन पर क्या असर होगा ? क्या उनके कार्यकाल के दौरान संबंध और मजबूत होंगे? इन मुद्दों को समझने के लिए ईटीवी भारत ने कई रणनीतिक विशेषज्ञों से बात की.

भारत-अमेरिका की साझा चिंताएं
अमेरिकी विशेषज्ञ विभूति झा ने कहा, "भारत और अमेरिका एक दूसरे की चिंताएं साझा करते हैं और मैंने हमेशा यह सुनिश्चित किया है कि मैं उन्हें सबसे बड़ा, सबसे मजबूत, सबसे पुराना या सबसे नया लोकतंत्र न कहूं. इसके बजाय, मैं जोर देकर कहता हूं कि भारत और अमेरिका आज दुनिया के दो सबसे महत्वपूर्ण लोकतंत्र हैं. दोनों देशों के लिए अपने मौलिक सपनों और आकांक्षाओं में समान आधार की पहचान करना महत्वपूर्ण है. इसे हासिल करने के लिए, मेरा मानना है कि भारत को विनिर्माण महाशक्ति में बदलने की प्रधानमंत्री मोदी की पहल राष्ट्रपति ट्रंप के 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' एजेंडे के साथ सहज रूप से मेल खाती है. दोनों नेताओं का एक साझा लक्ष्य है: अपने-अपने देशों की आर्थिक और राजनीतिक ताकत को बढ़ाना, ताकि दोनों लोकतंत्र मजबूत हों."

उन्होंने कहा, "भारत और अमेरिका के बीच कई क्षेत्रों में समानता है, लेकिन यह स्वीकार करना जरूरी है कि हमारे पास अलग-अलग सांस्कृतिक और दार्शनिक मतभेद भी हैं, जो कुछ मतभेदों को जन्म दे सकते हैं. हालांकि, मैं आशावादी हूं कि ट्रंप और मोदी के बीच मित्रता और व्यक्तिगत तालमेल उन्हें यह पहचानने में मदद करेंगे कि तथाकथित 'जागृत सेना' (woke army) की तरफ से पेश की गई चुनौतियों के खिलाफ लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए सहयोग जरूरी है. हाल के वर्षों में, यह साफ हो गया है कि यह 'जागृत सेना' लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रही है, अपना हित साधने के लिए स्वतंत्रता का शोषण कर रही है."

विभूति झा ने कहा, "भारत और अमेरिका के बीच संबंध अहम हैं, क्योंकि दोनों देश MAGA (Make America Great Again) और मेक इन इंडिया जैसी अपनी पहलों को एक साथ ला रहे हैं. भारत अमेरिकी कंपनियों और उद्यमों के लिए सबसे बड़ा बाजार है, इस तथ्य की मैं काफी समय से वकालत कर रहा हूं. इसका लक्ष्य भारत को निवेश और प्रौद्योगिकी के लिए प्रमुख केंद्र के रूप में उभरना है, और भारत के लिए अमेरिका को एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में अपनी भूमिका को अपनाना जरूरी है. अमेरिका में, हम भारत को मूल्यवान सहयोगी के रूप में मान्यता देने के लिए प्रतिबद्ध हैं. दोनों देशों के बीच तालमेल की महत्वपूर्ण आवश्यकता है. इसके अलावा, यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि चीन भारत और अमेरिका दोनों के लिए साझा खतरा है, जो इसे हमारे हितों के झुकाव में महत्वपूर्ण कारक बनाता है."

ट्रंप प्रशासन का केंद्र बिंदु होगा चीन

एक अन्य विश्लेषक का मानना है कि ट्रंप प्रशासन ने अपनी रणनीति पहले ही शुरू कर दी है, जिसमें विभिन्न देशों को मिलेजुले संकेत भेजना शामिल है. शुरुआत में, चीन ट्रंप प्रशासन का केंद्र बिंदु होगा, जहां वह लगभग 60 प्रतिशत की प्रतिबद्धता का संकेत दे सकता है, लेकिन अंत में 10 या 15 प्रतिशत के करीब कुछ पर समझौता कर सकता है. परस्पर विरोधी संदेशों का प्रभाव भारत तक भी होगा.

क्वाड मीटिंग सकारात्मक घटनाक्रम
ORF के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के उप-निदेशक और अमेरिकी विदेश नीति के विशेषज्ञ विवेक मिश्रा ने ईटीवी भारत को बताया, "आज होने वाली क्वाड मीटिंग सकारात्मक घटनाक्रम है, जो सही दिशा में उठाया गया कदम है, भले ही यह तुरंत ठोस नीतिगत बदलावों में तब्दील न हो. हालांकि, यह ट्रंप प्रशासन के भीतर माइक वॉल्श (अमेरिकी एनएसए) और मार्को रुबियो (अमेरिकी विदेश सचिव) जैसे प्रमुख लोगों की मंशा को दर्शाता है, जो भारत और उसके सहयोगियों के साथ संबंधों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. क्षेत्रीय रूप से, ऐसा लगता है कि अमेरिका अपना ध्यान द्विपक्षीय से क्षेत्रीय मुद्दों पर केंद्रित कर रहा है, जो भारत के लिए अच्छा हो सकता है. हमें आने वाले दिनों में लिए जाने वाले निर्णयों पर नजर रखनी होगी, खासकर कार्यकारी आदेशों पर, क्योंकि इनके वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है. उदाहरण के लिए, ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण एजेंसी से संबंधित कार्य अमेरिकी रणनीति की भविष्य की दिशा को बहुत प्रभावित कर सकते हैं."

उन्होंने आगे कहा, "ट्रंप के कदमों को लेकर भारत के लिए तीन मुख्य चिंताएं हैं. पहला, द्विपक्षीय व्यापार के लिए उनका दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होगा, और यहीं से ध्यान केंद्रित करना शुरू होगा. हमें यह देखना होगा कि यह कैसे सामने आता है. दूसरा, हिंद-प्रशांत रणनीति ट्रंप के नेतृत्व में गठबंधनों के भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाती है. तीसरा, हिंद-प्रशांत की क्षेत्रीय रणनीति पर विचार करना सिर्फ एक पहलू है; अपने सहयोगियों के साथ ट्रंप की कार्रवाइयां इस बात को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करेंगी कि भारत को विभिन्न चुनौतियों के लिए कैसे अनुकूल होना चाहिए. उदाहरण के लिए, जापान के साथ उनके व्यवहार का हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जापानी रणनीति पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है, जिसका असर भारत पर भी पड़ेगा."

मिश्रा ने कहा, "हाल ही में, हमने देखा है कि जापान ने चीन को लेकर अपने दृष्टिकोण में बदलाव किया है, जो संबंधों में गर्मजोशी का संकेत है. अगर यह रुझान जारी रहता है और हम चीन-जापान संबंधों में नरमी देखते हैं, तो जापान चीन के साथ बढ़ते आर्थिक संबंधों के कारण अपने हिंद-प्रशांत रुख में अधिक सतर्क हो सकता है. नतीजतन, भारत को इन परस्पर जुड़ी गतिशीलताओं के प्रति सतर्क रहना होगा: व्यापक हिंद-प्रशांत रणनीति, द्विपक्षीय संबंध और सहयोगियों के साथ ट्रंप की बातचीत."

'अमेरिका फर्स्ट' प्रचार और भारत के हित

यह पूछे जाने पर कि क्या ट्रंप द्वारा समर्थित 'अमेरिका फर्स्ट' प्रचार भारत के हितों के साथ टकराव पैदा कर सकती है, मिश्रा ने कहा कि इस स्थिति का एक हिस्सा नीतिगत निर्णयों के कारण है, जिसने इसे आकार दिया है.

रणनीतिक विशेषज्ञ ने कहा, "एक देश अपने अधिकांश उत्पादन और विनिर्माण को वापस लाने की कोशिश कर रहा है, जिसे अक्सर ऑन-शोरिंग या नियर-शोरिंग कहा जाता है. यह बदलाव अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में विभिन्न खतरे लाएगा, जो भारत सहित सभी देशों को प्रभावित करेगा. भारत भी इससे अछूता नहीं है. दूसरी ओर, भारत के पास विकल्प हैं. यह अपने संसाधनों को मजबूत कर सकता है और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को बनाए रख सकता है. साथ ही अगर जरूरी हो तो जवाबी कार्रवाई करने के लिए तैयार रह सकता है. उदाहरण के लिए, पिछले ट्रंप प्रशासन के दौरान, भारत ने कई जवाबी उपाय लागू किए. यह दृष्टिकोण एक विकल्प बना रहना चाहिए क्योंकि ट्रंप जैसे किसी व्यक्ति से निपटने के लिए यह समझना जरूरी है कि प्रभावी ढंग से सौदे कैसे किए जाएं. भारत को कुछ मुद्दों पर दृढ़ रहने की जरूरत होगी जबकि अन्य पर लचीला होना होगा. इसलिए, इन तनावों के प्रति भारत की प्रतिक्रिया शायद मिलीजुली रणनीति होगी."

इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज (IPCS) के सीनियर फेलो और सुरक्षा विशेषज्ञ अभिजीत अय्यर मित्रा ने कहा कि कुल मिलाकर, टैरिफ को छोड़कर, भारत-अमेरिका संबंधों के लिए चीजें अच्छी दिख रही हैं. बाइडेन प्रशासन के तहत, एनएसए जेक सुलिवन और वित्त मंत्री जीना रायमोंडो जैसे नेता भारत के प्रबल समर्थक थे. हालांकि, विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन, जिनका दृष्टिकोण अलग था, अक्सर अमेरिकी धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्टों में भारत की आलोचना करते थे. इससे विभाजन पैदा हुआ.

अय्यर ने कहा, "जब कोई राष्ट्रपति पूरी तरह से प्रशासन में शामिल नहीं होता है, तो इन विभाजनों को संभालना मुश्किल होता है. बाइडेन ने अक्सर भारत का समर्थन किया, लेकिन उनका ध्यान सीमित है. इसके विपरीत, ट्रंप की नियुक्तियां चीन के सख्त खिलाफ हैं, जिससे चीन उनकी नीति का केंद्र बन गया है. वह एशिया को सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में देखते हैं, जिसमें भारत की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. बाइडेन के विपरीत, ट्रंप चीनी विनिर्माण नौकरियों के मुद्दे को सीधे संबोधित करने के लिए तैयार हैं."

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