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टीबी और पेरालाइसिस से पीड़ित महिला ने दिया बच्चे को जन्म, महीनों तक बिस्तर पर पड़ी रही..फिर हुआ चमत्कार

राजधानी दिल्ली में एक 28 वर्षीय महिला ने स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया है. महिला टीबी और पैरालाइसिस से पीड़ित थी. डॉक्टर इसे चमत्कार मान रहे हैं. दरअसल, महिला टीबी और रीढ की हड्डी में पैरालाइसिस हुआ था. वह सात महीने की गर्भवती थी. अब महिला ने एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. डिलीवरी के बाद महिला चलने लगी, जो एक चमत्कार है.

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By ETV Bharat Delhi Team

Published : Feb 20, 2024, 6:54 AM IST

नई दिल्ली: राजधानी दिल्ली में एक 28 वर्षीय महिला मरीज का सफल उपचार कर डॉक्टरों ने उपलब्धि दर्ज कराई है. महिला स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस और सात महीने से पैरालाइसिस से पीड़ित थी. यह अपने आप में चुनौतीपूर्ण और दुर्लभ मामला था. महिला गर्भवती थी और चार महीनों से पीठ दर्द की समस्या से परेशान थी. गर्भधारण के छठे महीने तक उनकी तकलीफ कम नहीं हुई. इस बीच उनके दोनों पैरों में कमजोरी भी महसूस होने लगी. अगले 20 दिनों में दोनों पैर पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो गए और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया. तब उन्हें इलाज के लिए फोर्टिस शालीमार बाग लाया गया. जहां उनकी एमआरआई जांच के बाद स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस की पुष्टि हुई. अगले कुछ महीने तक महिला को अस्पताल के डॉक्टरों की मल्टी-डिसीप्लीनरी टीम की देखरेख में रखा गया. जिसका नेतृत्व फोर्टिस अस्पताल शालीमार बाग में डायरेक्टर एवं एचओडी न्यूरोसर्जरी डॉ. सोनल गुप्ता ने किया. इलाज के बाद महिला मरीज न सिर्फ खुद पूरी तरह स्वस्थ हो गई बल्कि उन्होंने एक स्वस्थ शिशु को भी जन्म दिया.

अस्पताल में मरीज को लाए जाने पर उनका एमआरआई किया गया, जिससे उनकी रीढ़ में ट्यूबरक्लोसिस होने का पता चला. जिसके कारण स्पाइनल कॉर्ड में कम्प्रेशन था. इस दबाव को कम करने के लिए तत्काल सर्जरी की जरूरी थी जिससे, उनकी रीढ़ को स्थिर बनाने में मदद मिले. मरीज की प्रेगनेंसी के चलते यह सर्जरी काफी जटिल थी और डॉक्टरों ने उन्हें इस तरह से लिटाकर सर्जरी की जिससे उनके गर्भ पर कोई दबाव न पड़े. तब सर्जन्स ने एक अस्थायी वायर फिक्सेशन की मदद ली और एनेस्थीसिया भी सावधानीपूर्वक दिया गया, ताकि मां और शिशु को कोई नुकसान न पहुंचे. प्रसव के 15 दिन के बाद उनकी एमआरआई जांच से पता चला कि रीढ़ में सूजन है और रीढ़ के अस्थिर होकर कॉलेप्स करने की वजह से कम्प्रेशन भी है. इस समस्या को दूर करने के लिए एक और सर्जरी की गई.

सर्जरी के तीन माह बाद भी पैर में नहीं हुआ सुधार

सर्जरी के तीन माह बाद भी जब मरीज के पैर में कोई हरकत नहीं हुई तो एक और एमआरआई जांच की गई जिससे पता चला कि उनकी रीढ़ में सूजन है. इतनी मुसीबतों के बावजूद मरीज और उनके पति ने हिम्मत नहीं खोया और लगातार इलाज को लेकर आशावान बने रहे. उन्होंने नियमित फिजियोथेरेपी के साथ-साथ ट्यूबरक्लॉसिस का उपचार जारी रखा. ट्यूबरक्लोसिस का इलाज शुरू होने के 9 महीनों के बाद उन्होंने दोबारा चलना शुरू कर दिया है. 18 महीने तक लंबे इलाज के बाद उनकी चलने-फिरने की पूरी क्षमता लौट आई.

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इस मामले को लेकर डॉ सोनल गुप्ता ने बताया कि यह मेडिकल के इतिहास में अपनी तरह का बेहद दुर्लभ मामला था. जिसमें लकवाग्रस्त मरीज को 7 महीने तक इलाज पर रखने के बावजूद उनके पैरों में कोई हरकत नहीं हुई थी. प्रेगनेंसी में स्पाइनल ट्यूबरक्लॉसिस भी काफी दुर्लभ मामला है, लेकिन लगभग 7 महीने तक पूरी तरह लकवाग्रस्त रहने के बाद अब मरीज ने आखिरकार पूरी मोबिलिटी हासिल कर ली है, जो न सिर्फ दुर्लभ है बल्कि किसी चमत्कार से कम नहीं है.

गर्भस्थ शिशु को बचाना था बड़ी चुनौती

डॉ. सोनल ने बताया कि गर्भस्थ शिशु को बचाना सबसे बड़ी चुनौती था, क्योंकि मरीज की रीढ़ पर दबाव बढ़ने की वजह से उनके गर्भ पर भी दबाव था जिसके चलते उनके पेट में दर्द था. इसके अलावा, उनकी सर्जरी भी एक बार में पूरी नहीं की जा सकती थी. क्योंकि भ्रूण को रेडिएशन से रिस्क था. लेकिन मरीज समेत उनके परिवार ने काफी सहयोगी रवैया अपनाए रखा और अस्पताल ने भी उचित मेडिकल इंटरवेंशन को जारी रखा. जिसके परिणामस्वरूप मरीज अब ट्यूबरक्लोसिस से पूरी तरह मुक्त है. साथ ही सामान्य जिंदगी जी रही हैं. शीघ्र निदान और तत्काल मेडिकल सहायता मिलने से स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस का इलाज बेहतर तरीके से हो सका. यदि मरीज को समय पर उपचार नहीं मिलता तो वे आजीवन बिस्तर तक सिमटी रहती और व्हील-चेयर का सहारा लेने को मजबूर हो जाती.

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अस्पताल के फैसिलिटी डायरेक्टर दीपक नारंग ने कहा कि यह मेडिकल एक्सीलेंस का ऐसा मामला है जिसने मरीज को ऐसे हालात में राहत दिलायी, जिसमें आमतौर से रिकवरी मुमकिन नहीं होती. इस मामले में इलाज के लिए मल्टी-डिसीप्लीनरी टीम ने मिलकर काफी सोच-समझ से काम लिया और मरीज की नाजुक हालत देखते हुए उपचार किया. तमाम चुनौतियों के बावजूद मरीज की स्थिति का सही मूल्यांकन किया गया और डॉक्टरों की मल्टी-डिसीप्लीनरी टीम ने मरीज का सफल उपचार किया. इस टीम में डॉ सोनल गुप्ता एचओडी न्यूरोसर्जरी के अलावा डॉ सुनीता वर्मा, डायरेक्टर आब्सटैट्रिक्स एवं गाइनेकोलॉजी, डॉ प्रदीप कुमार जैन, प्रिंसीपल डायरेक्टर एवं एचओडी, एलएपी जीआई, जीआई ओंको, बेरियाट्रिक एंड एमआईएस सर्जरी तथा डॉ उमेश देशमुख, डायरेक्टर एवं एचओडी एनेस्थीसियोलॉजी, फोर्टिस हॉस्पीटल शालीमार बाग शामिल थे जिन्होंने न सिर्फ मरीज का जीवन बचाया बल्कि उनके सुरक्षित प्रसव को भी मुमकिन बनाया.

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नई दिल्ली: राजधानी दिल्ली में एक 28 वर्षीय महिला मरीज का सफल उपचार कर डॉक्टरों ने उपलब्धि दर्ज कराई है. महिला स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस और सात महीने से पैरालाइसिस से पीड़ित थी. यह अपने आप में चुनौतीपूर्ण और दुर्लभ मामला था. महिला गर्भवती थी और चार महीनों से पीठ दर्द की समस्या से परेशान थी. गर्भधारण के छठे महीने तक उनकी तकलीफ कम नहीं हुई. इस बीच उनके दोनों पैरों में कमजोरी भी महसूस होने लगी. अगले 20 दिनों में दोनों पैर पूरी तरह से लकवाग्रस्त हो गए और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया. तब उन्हें इलाज के लिए फोर्टिस शालीमार बाग लाया गया. जहां उनकी एमआरआई जांच के बाद स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस की पुष्टि हुई. अगले कुछ महीने तक महिला को अस्पताल के डॉक्टरों की मल्टी-डिसीप्लीनरी टीम की देखरेख में रखा गया. जिसका नेतृत्व फोर्टिस अस्पताल शालीमार बाग में डायरेक्टर एवं एचओडी न्यूरोसर्जरी डॉ. सोनल गुप्ता ने किया. इलाज के बाद महिला मरीज न सिर्फ खुद पूरी तरह स्वस्थ हो गई बल्कि उन्होंने एक स्वस्थ शिशु को भी जन्म दिया.

अस्पताल में मरीज को लाए जाने पर उनका एमआरआई किया गया, जिससे उनकी रीढ़ में ट्यूबरक्लोसिस होने का पता चला. जिसके कारण स्पाइनल कॉर्ड में कम्प्रेशन था. इस दबाव को कम करने के लिए तत्काल सर्जरी की जरूरी थी जिससे, उनकी रीढ़ को स्थिर बनाने में मदद मिले. मरीज की प्रेगनेंसी के चलते यह सर्जरी काफी जटिल थी और डॉक्टरों ने उन्हें इस तरह से लिटाकर सर्जरी की जिससे उनके गर्भ पर कोई दबाव न पड़े. तब सर्जन्स ने एक अस्थायी वायर फिक्सेशन की मदद ली और एनेस्थीसिया भी सावधानीपूर्वक दिया गया, ताकि मां और शिशु को कोई नुकसान न पहुंचे. प्रसव के 15 दिन के बाद उनकी एमआरआई जांच से पता चला कि रीढ़ में सूजन है और रीढ़ के अस्थिर होकर कॉलेप्स करने की वजह से कम्प्रेशन भी है. इस समस्या को दूर करने के लिए एक और सर्जरी की गई.

सर्जरी के तीन माह बाद भी पैर में नहीं हुआ सुधार

सर्जरी के तीन माह बाद भी जब मरीज के पैर में कोई हरकत नहीं हुई तो एक और एमआरआई जांच की गई जिससे पता चला कि उनकी रीढ़ में सूजन है. इतनी मुसीबतों के बावजूद मरीज और उनके पति ने हिम्मत नहीं खोया और लगातार इलाज को लेकर आशावान बने रहे. उन्होंने नियमित फिजियोथेरेपी के साथ-साथ ट्यूबरक्लॉसिस का उपचार जारी रखा. ट्यूबरक्लोसिस का इलाज शुरू होने के 9 महीनों के बाद उन्होंने दोबारा चलना शुरू कर दिया है. 18 महीने तक लंबे इलाज के बाद उनकी चलने-फिरने की पूरी क्षमता लौट आई.

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इस मामले को लेकर डॉ सोनल गुप्ता ने बताया कि यह मेडिकल के इतिहास में अपनी तरह का बेहद दुर्लभ मामला था. जिसमें लकवाग्रस्त मरीज को 7 महीने तक इलाज पर रखने के बावजूद उनके पैरों में कोई हरकत नहीं हुई थी. प्रेगनेंसी में स्पाइनल ट्यूबरक्लॉसिस भी काफी दुर्लभ मामला है, लेकिन लगभग 7 महीने तक पूरी तरह लकवाग्रस्त रहने के बाद अब मरीज ने आखिरकार पूरी मोबिलिटी हासिल कर ली है, जो न सिर्फ दुर्लभ है बल्कि किसी चमत्कार से कम नहीं है.

गर्भस्थ शिशु को बचाना था बड़ी चुनौती

डॉ. सोनल ने बताया कि गर्भस्थ शिशु को बचाना सबसे बड़ी चुनौती था, क्योंकि मरीज की रीढ़ पर दबाव बढ़ने की वजह से उनके गर्भ पर भी दबाव था जिसके चलते उनके पेट में दर्द था. इसके अलावा, उनकी सर्जरी भी एक बार में पूरी नहीं की जा सकती थी. क्योंकि भ्रूण को रेडिएशन से रिस्क था. लेकिन मरीज समेत उनके परिवार ने काफी सहयोगी रवैया अपनाए रखा और अस्पताल ने भी उचित मेडिकल इंटरवेंशन को जारी रखा. जिसके परिणामस्वरूप मरीज अब ट्यूबरक्लोसिस से पूरी तरह मुक्त है. साथ ही सामान्य जिंदगी जी रही हैं. शीघ्र निदान और तत्काल मेडिकल सहायता मिलने से स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस का इलाज बेहतर तरीके से हो सका. यदि मरीज को समय पर उपचार नहीं मिलता तो वे आजीवन बिस्तर तक सिमटी रहती और व्हील-चेयर का सहारा लेने को मजबूर हो जाती.

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अस्पताल के फैसिलिटी डायरेक्टर दीपक नारंग ने कहा कि यह मेडिकल एक्सीलेंस का ऐसा मामला है जिसने मरीज को ऐसे हालात में राहत दिलायी, जिसमें आमतौर से रिकवरी मुमकिन नहीं होती. इस मामले में इलाज के लिए मल्टी-डिसीप्लीनरी टीम ने मिलकर काफी सोच-समझ से काम लिया और मरीज की नाजुक हालत देखते हुए उपचार किया. तमाम चुनौतियों के बावजूद मरीज की स्थिति का सही मूल्यांकन किया गया और डॉक्टरों की मल्टी-डिसीप्लीनरी टीम ने मरीज का सफल उपचार किया. इस टीम में डॉ सोनल गुप्ता एचओडी न्यूरोसर्जरी के अलावा डॉ सुनीता वर्मा, डायरेक्टर आब्सटैट्रिक्स एवं गाइनेकोलॉजी, डॉ प्रदीप कुमार जैन, प्रिंसीपल डायरेक्टर एवं एचओडी, एलएपी जीआई, जीआई ओंको, बेरियाट्रिक एंड एमआईएस सर्जरी तथा डॉ उमेश देशमुख, डायरेक्टर एवं एचओडी एनेस्थीसियोलॉजी, फोर्टिस हॉस्पीटल शालीमार बाग शामिल थे जिन्होंने न सिर्फ मरीज का जीवन बचाया बल्कि उनके सुरक्षित प्रसव को भी मुमकिन बनाया.

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