ETV Bharat / business

ऑल टाइम लो हुई भारत की करेंसी, डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रहे रुपए का कौन है जिम्‍मेदार - WHY IS INDIAN RUPEE FALLING

अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये इन दिनों काफी कमजोर हो गया है. जानें इसके पीछे की वजह क्या है?

US DOLLAR VS INDIAN RUPEE
प्रतीकात्मक फोटो (Getty Image)
author img

By ETV Bharat Hindi Team

Published : 13 hours ago

नई दिल्ली: अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की एक्सचेंज रेट 85 के पार पहुंच गई है. दूसरे शब्दों में 1 डॉलर खरीदने के लिए आपको 85 रुपये चुकाने होंगे. अप्रैल में यह एक्सचेंज रेट 83 के आसपास थी और एक दशक पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यभार संभाला था, तब यह 61 के आसपास थी. इस तरह देखे तो डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य कम होता जा रहा है.

एक्सचेंज रेट क्या है?
आमतौर पर हम अपने पैसे भारतीय रुपये का यूज करके सामान और सेवाएं खरीदते हैं. लेकिन ऐसी कई चीजें हैं जिनके लिए हमें देश के बाहर से सामान की जरूरत होती है - जैसे कि अमेरिकी निर्मित कार या स्विस छुट्टी या वास्तव में, कच्चा तेल. ऐसी सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए हमें अंतिम वस्तु खरीदने से पहले अपनी घरेलू मुद्रा का उपयोग करके पहले अमेरिकी (डॉलर) या स्विस मुद्रा (यूरो) खरीदनी पड़ सकती है. जिस रेट पर कोई करेंसी के बीच अदला-बदली कर सकता है, वह एक्सचेंज रेट है.

दूसरे शब्दों में आप कितने रुपये में एक डॉलर या एक यूरो खरीद सकते हैं. ऐसे बाजार को जिसे मुद्रा बाजार भी कहा जाता है.

एक्सचेंज रेट किससे निर्धारित होती है?
जीवन में किसी भी अन्य कारोबार की तरह एक करेंसी का दूसरे करेंसी के मुकाबले रिलेटिव वैल्यू इस बात पर निर्भर करता है कि किसकी मांग अधिक है. अगर भारतीय अमेरिकी डॉलर की मांग रुपये से अधिक करते हैं, तो विनिमय दर अमेरिकी डॉलर के पक्ष में झुक जाएगी. यानी अमेरिकी डॉलर अधिक कीमती, अधिक मूल्यवान और अधिक महंगा हो जाएगा.

अगर यह स्थिति हर दिन दोहराई जाती है, तो यह प्रवृत्ति मजबूत होती जाएगी और रुपया अमेरिकी डॉलर के सापेक्ष मूल्य खोता रहेगा.

डॉलर के मुकाबले रुपये की मांग को कौन से कारण निर्धारित करते हैं?
ऐसे कई कारण हैं जो मुद्राओं की मांग को प्रभावित कर सकते हैं.

  • मांग का एक बड़ा घटक वस्तुओं के व्यापार से आता है. समझने के लिए एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहां केवल दो देश हैं - भारत और अमेरिका. अगर भारत अमेरिका से जितना निर्यात करता है, उससे ज्यादा सामान अमेरिका से आयात करता है, तो अमेरिकी डॉलर की मांग भारतीय रुपये की मांग से ज्यादा हो जाएगी. इससे बदले में अमेरिकी डॉलर रुपये के मुकाबले मजबूत होगा और रुपये के मुकाबले इसकी विनिमय दर बढ़ेगी. दूसरे शब्दों में डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर कमजोर होगी. नतीजतन एक अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए ज्यादा रुपये की जरूरत होगी.
  • दूसरा बड़ा कारण सेवाओं में व्यापार है. अगर भारतीय अमेरिकी सेवाएं - जैसे पर्यटन ज्यादा खरीदते हैं, जबकि अमेरिकी भारतीय सेवाएं खरीदते हैं, तो फिर डॉलर की मांग रुपये की मांग से ज्यादा हो जाएगी और रुपया कमजोर हो जाएगा.
  • तीसरा कारण निवेश है. अगर अमेरिकी भारत में भारतीयों से ज्यादा निवेश करते हैं, तो रुपये की मांग डॉलर से ज्यादा हो जाएगी और डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत बढ़ जाएगी.

इन तीन मांगों को प्रभावित कर सकते हैं?
मान लीजिए कि अमेरिका यह फैसला करता है कि वह भारतीय आयात की अनुमति नहीं देगा. ऐसी स्थिति में भारतीय रुपये की मांग में भारी गिरावट आएगी. आखिर अगर अमेरिकी भारतीय सामान नहीं खरीद सकते, तो वे भारतीय रुपये खरीदने के लिए मुद्रा बाजार क्यों जाएंगे? ऐसे में रुपया कमजोर होगा.

  • ऐसा ही कुछ होने की उम्मीद है अगर, जैसा कि राष्ट्रपति-चुनाव डोनाल्ड ट्रम्प ने वादा किया है. अमेरिका भारतीय सामानों पर उच्च टैरिफ लगाता है, जिससे वे इतने महंगे हो जाते हैं कि अमेरिका में कोई भी उन्हें नहीं खरीदेगा.

इसी तरह, एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करें जहां भारत और अमेरिका दोनों ही उच्च महंगाई का सामना कर रहे हैं. महंगाई मुद्रा के मूल्य को खा जाती है क्योंकि 5 फीसदी की महंगाई का मतलब है कि जो कुछ भी व्यक्ति पहले वर्ष में 100 रुपये में खरीद सकता है, उसे दूसरे वर्ष में 105 रुपये में खरीदना होगा.

अब कल्पना करें कि पांच सालों में अमेरिका अपनी महंगाई को शून्य कर देता है जबकि भारत में यह 6 फीसदी पर बनी रहती है. इसका मतलब यह होगा कि अगर कोई अमेरिकी यह सोचकर भारतीय शेयर बाजार में निवेश करने का फैसला करता है कि भारतीय कंपनियां/शेयर 10 फीसदी का वार्षिक रिटर्न देते हैं, तो उसे केवल 4 फीसदी वास्तविक रिटर्न मिलेगा क्योंकि उन 10 फीसदी में से 6 महंगाई खा जाएगा. दूसरी ओर अमेरिकी शेयर बाजार केवल 5 फीसदी का रिटर्न दे सकता है लेकिन चूंकि मुद्रास्फीति 0 फीसदी पर है. इसलिए अंतिम रिटर्न 5 फीसदी होगा.

ऐसी स्थिति में निवेशक भारत में कोई नया निवेश नहीं कर सकता है. इससे भी बदतर यह है कि वह वास्तव में भारत से पैसा निकालकर वापस अमेरिका में निवेश कर सकता है. इन दोनों ही कार्रवाइयों से डॉलर के मुकाबले रुपए की मांग कम होगी और डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होगा.

  • इस समय भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्योंकि निवेशक भारत से अपना पैसा निकाल रहे हैं.

ये भी पढ़ें-

नई दिल्ली: अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की एक्सचेंज रेट 85 के पार पहुंच गई है. दूसरे शब्दों में 1 डॉलर खरीदने के लिए आपको 85 रुपये चुकाने होंगे. अप्रैल में यह एक्सचेंज रेट 83 के आसपास थी और एक दशक पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यभार संभाला था, तब यह 61 के आसपास थी. इस तरह देखे तो डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य कम होता जा रहा है.

एक्सचेंज रेट क्या है?
आमतौर पर हम अपने पैसे भारतीय रुपये का यूज करके सामान और सेवाएं खरीदते हैं. लेकिन ऐसी कई चीजें हैं जिनके लिए हमें देश के बाहर से सामान की जरूरत होती है - जैसे कि अमेरिकी निर्मित कार या स्विस छुट्टी या वास्तव में, कच्चा तेल. ऐसी सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए हमें अंतिम वस्तु खरीदने से पहले अपनी घरेलू मुद्रा का उपयोग करके पहले अमेरिकी (डॉलर) या स्विस मुद्रा (यूरो) खरीदनी पड़ सकती है. जिस रेट पर कोई करेंसी के बीच अदला-बदली कर सकता है, वह एक्सचेंज रेट है.

दूसरे शब्दों में आप कितने रुपये में एक डॉलर या एक यूरो खरीद सकते हैं. ऐसे बाजार को जिसे मुद्रा बाजार भी कहा जाता है.

एक्सचेंज रेट किससे निर्धारित होती है?
जीवन में किसी भी अन्य कारोबार की तरह एक करेंसी का दूसरे करेंसी के मुकाबले रिलेटिव वैल्यू इस बात पर निर्भर करता है कि किसकी मांग अधिक है. अगर भारतीय अमेरिकी डॉलर की मांग रुपये से अधिक करते हैं, तो विनिमय दर अमेरिकी डॉलर के पक्ष में झुक जाएगी. यानी अमेरिकी डॉलर अधिक कीमती, अधिक मूल्यवान और अधिक महंगा हो जाएगा.

अगर यह स्थिति हर दिन दोहराई जाती है, तो यह प्रवृत्ति मजबूत होती जाएगी और रुपया अमेरिकी डॉलर के सापेक्ष मूल्य खोता रहेगा.

डॉलर के मुकाबले रुपये की मांग को कौन से कारण निर्धारित करते हैं?
ऐसे कई कारण हैं जो मुद्राओं की मांग को प्रभावित कर सकते हैं.

  • मांग का एक बड़ा घटक वस्तुओं के व्यापार से आता है. समझने के लिए एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहां केवल दो देश हैं - भारत और अमेरिका. अगर भारत अमेरिका से जितना निर्यात करता है, उससे ज्यादा सामान अमेरिका से आयात करता है, तो अमेरिकी डॉलर की मांग भारतीय रुपये की मांग से ज्यादा हो जाएगी. इससे बदले में अमेरिकी डॉलर रुपये के मुकाबले मजबूत होगा और रुपये के मुकाबले इसकी विनिमय दर बढ़ेगी. दूसरे शब्दों में डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर कमजोर होगी. नतीजतन एक अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए ज्यादा रुपये की जरूरत होगी.
  • दूसरा बड़ा कारण सेवाओं में व्यापार है. अगर भारतीय अमेरिकी सेवाएं - जैसे पर्यटन ज्यादा खरीदते हैं, जबकि अमेरिकी भारतीय सेवाएं खरीदते हैं, तो फिर डॉलर की मांग रुपये की मांग से ज्यादा हो जाएगी और रुपया कमजोर हो जाएगा.
  • तीसरा कारण निवेश है. अगर अमेरिकी भारत में भारतीयों से ज्यादा निवेश करते हैं, तो रुपये की मांग डॉलर से ज्यादा हो जाएगी और डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत बढ़ जाएगी.

इन तीन मांगों को प्रभावित कर सकते हैं?
मान लीजिए कि अमेरिका यह फैसला करता है कि वह भारतीय आयात की अनुमति नहीं देगा. ऐसी स्थिति में भारतीय रुपये की मांग में भारी गिरावट आएगी. आखिर अगर अमेरिकी भारतीय सामान नहीं खरीद सकते, तो वे भारतीय रुपये खरीदने के लिए मुद्रा बाजार क्यों जाएंगे? ऐसे में रुपया कमजोर होगा.

  • ऐसा ही कुछ होने की उम्मीद है अगर, जैसा कि राष्ट्रपति-चुनाव डोनाल्ड ट्रम्प ने वादा किया है. अमेरिका भारतीय सामानों पर उच्च टैरिफ लगाता है, जिससे वे इतने महंगे हो जाते हैं कि अमेरिका में कोई भी उन्हें नहीं खरीदेगा.

इसी तरह, एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करें जहां भारत और अमेरिका दोनों ही उच्च महंगाई का सामना कर रहे हैं. महंगाई मुद्रा के मूल्य को खा जाती है क्योंकि 5 फीसदी की महंगाई का मतलब है कि जो कुछ भी व्यक्ति पहले वर्ष में 100 रुपये में खरीद सकता है, उसे दूसरे वर्ष में 105 रुपये में खरीदना होगा.

अब कल्पना करें कि पांच सालों में अमेरिका अपनी महंगाई को शून्य कर देता है जबकि भारत में यह 6 फीसदी पर बनी रहती है. इसका मतलब यह होगा कि अगर कोई अमेरिकी यह सोचकर भारतीय शेयर बाजार में निवेश करने का फैसला करता है कि भारतीय कंपनियां/शेयर 10 फीसदी का वार्षिक रिटर्न देते हैं, तो उसे केवल 4 फीसदी वास्तविक रिटर्न मिलेगा क्योंकि उन 10 फीसदी में से 6 महंगाई खा जाएगा. दूसरी ओर अमेरिकी शेयर बाजार केवल 5 फीसदी का रिटर्न दे सकता है लेकिन चूंकि मुद्रास्फीति 0 फीसदी पर है. इसलिए अंतिम रिटर्न 5 फीसदी होगा.

ऐसी स्थिति में निवेशक भारत में कोई नया निवेश नहीं कर सकता है. इससे भी बदतर यह है कि वह वास्तव में भारत से पैसा निकालकर वापस अमेरिका में निवेश कर सकता है. इन दोनों ही कार्रवाइयों से डॉलर के मुकाबले रुपए की मांग कम होगी और डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होगा.

  • इस समय भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्योंकि निवेशक भारत से अपना पैसा निकाल रहे हैं.

ये भी पढ़ें-

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.