नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जिसे 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद शामिल किया गया था. भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने 4:1 के बहुमत से नागरिकता अधिनियम की धारा 6A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा. पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे. जस्टिस पारदीवाला ने धारा 6A पर असहमति जताई और अलग फैसला लिखा.
धारा 6A के तहत 1 जनवरी, 1966 और 25 मार्च, 1971 के बीच असम में प्रवेश करने वाले अवैध अप्रवासियों (ज्यादातर बांग्लादेश से) को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया था. धारा 6A उन लोगों को नागरिकता प्रदान करती है जो 24 मार्च 1971 तक बांग्लादेश से असम में प्रवास कर गए थे. अनुच्छेद 6 और अनुच्छेद 7 के प्रावधान सीमित वर्ग को नागरिकता प्रदान करते हैं. धारा 6A उन लोगों से संबंधित है जो संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आते हैं, यानी वे लोग जो 26 जुलाई 1949 के बाद प्रवास कर गए (या फिर से प्रवास किया).
सीजेआई चंद्रचूड़ ने फैसले के 94-पृष्ठ पर अपने मत में कहा कि नागरिकता से संबंधित कानून बनाने के लिए संसद की विधायी क्षमता पहली अनुसूची (List I) की प्रविष्टि 17 से जुड़ी है, न कि अनुच्छेद 11 से. उन्होंने कहा कि धारा 6A का विधायी उद्देश्य भारतीय मूल के प्रवासियों की मानवीय जरूरतों और भारतीय राज्यों की आर्थिक तथा सांस्कृतिक जरूरतों पर प्रवास के प्रभाव के बीच संतुलन बनाना है.
सीजेआई ने कहा कि याचिकाकर्ता का यह दावा गलत है कि धारा 6A असंवैधानिक है क्योंकि असम में प्रवास को रोकने के बजाय यह धारा 6A के जरिये नागरिकता हासिल करने के लिए अन्य राज्यों के प्रवासियों को असम आने के लिए प्रोत्साहित करती है. उन्होंने कहा, "धारा 6A संविधान के अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं करती है. अनुच्छेद 29(1) नागरिकों के एक वर्ग की संस्कृति, भाषा और लिपि की रक्षा के लिए कदम उठाने के अधिकार की गारंटी देता है. याचिकाकर्ता यह साबित करने में असफल रहे हैं कि धारा 6A के प्रावधानों से असमियों की अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए कदम उठाने की क्षमता का उल्लंघन होता है.
सीजेआई ने कहा कि धारा 6A को भारत में प्रवासियों की आमद को कम करने और पहले से ही पलायन कर चुके लोगों से निपटने के उद्देश्य से शामिल किया गया था. उन्होंने कहा, "असम समझौता बढ़ते प्रवास के मुद्दे का राजनीतिक समाधान था और धारा 6A एक विधायी समाधान था."
जस्टिस पारदीवाला का फैसला
जस्टिस पारदीवाला ने धारा 6A पर असहमति जताई हुए कहा कि नागरिकता अधिनियम की धारा 6A का दुरुपयोग होने की संभावना अधिक है. उन्होंने कहा कि इस धारा को आगे के प्रभाव से अमान्य घोषित किया जाना चाहिए.
जस्टिस पारदीवाला ने 127 पृष्ठ पर अपनी राय में कहा कि समय बीतने के साथ धारा 6A की खुली प्रकृति दुरुपयोग की अधिक संभावना बन गई है, क्योंकि इसमें असम में प्रवेश की गलत तिथि, गलत वंशावली, भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा बनाए गए फर्जी सरकारी रिकॉर्ड, अन्य रिश्तेदारों द्वारा प्रवेश की तिथि की बेईमानी से पुष्टि करने के लिए जाली दस्तावेजों का इस्तेमाल किया जाता है, ताकि अवैध अप्रवासियों की सहायता की जा सके, जो 24 मार्च 1971 के बाद असम में प्रवेश करने के कारण धारा 6A के तहत नागरिकता के पात्र नहीं हैं.
उन्होंने कहा कि धारा 6A के अधिनियमन से जो उद्देश्य बहुत पहले प्राप्त करने की कोशिश की गई थी, वह दूर का सपना ही बना रहा, समय बीतने के साथ इसका दुरुपयोग बढ़ता ही गया. उन्होंने कहा, "आवेदन की कोई अंतिम तिथि न होने के कारण धारा 6A असम में और अधिक अप्रवास को बढ़ावा देती है - अप्रवासी जाली दस्तावेजों के साथ आते हैं ताकि विदेशी के रूप में पहचाने जाने और न्यायाधिकरण के समक्ष संदर्भ दिए जाने पर 1966 से पहले या 1966-71 की धारा से संबंधित होने का बचाव किया जा सके."
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