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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा नए सिरे से होगा तय, 3 जजों की बेंच लेगी फैसला

AMU's minority status: देश की सर्वोच्च अदालत ने 4-3 के बहुमत से फैसला सुनाया.

SC AMU MINORITY STATUS
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर फैसला (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 8, 2024, 9:59 AM IST

Updated : Nov 8, 2024, 5:57 PM IST

नई दिल्ली: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्ज पर आज शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है. कोर्ट ने फैसले में कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्ज को नए सिरे से तय किया जाएगा. इसके लिए तीन जजों की पीठ बनाई गई है. बता दें, देश की सर्वोच्च अदालत ने 4-3 के बहुमत से यह फैसला दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इस बात का फैसला कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक रहेगा कि नहीं यह नई बेंच की जिम्मेदारी होगी. CJI चंद्रचूड़ समेत 4 जजों की पीठ एकमत थी. वहीं, 3 जज की राय जुदा थी. चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस पारदीवाला एकमत थे. वहीं, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा के फैसले अलग-अलग थे. इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट ने 4-3 के बहुमत से अपने फैसल में 1967 के उस फैसले को निरस्त कर दिया, जिसमें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इंकार करने की बात कही थी.

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ 10 नवंबर को अपने पद से रिटायर हो रहे हैं. सेवानिवृत्त होने से पहले डीवाई चंद्रचूड़ का आज कार्यकाल का आखिरी दिन है. इस केस में सात जजों की एक पीठ ने आठ दिनों तक सुनवाई करने के बाद एक फरवरी को फैसला सुरक्षित रखा था, जिस पर अब फैसला आया है.

सुप्रीम कोर्ट फैसला सुनाएगा कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है, जो धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उसे संचालित करने का अधिकार देता है. इस सात सदस्यीय पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं.

बता दें, 1 फरवरी को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर शीर्ष अदालत ने कहा कि एएमयू अधिनियम में 1981 का संशोधन, जिसने प्रभावी रूप से इसे अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान किया, केवल 'आधे-अधूरे मन से' किया गया और संस्थान को 1951 से पहले की स्थिति बहाल नहीं की. जबकि एएमयू अधिनियम, 1920 अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम विश्वविद्यालय को शामिल करने की बात करता है, 1951 का संशोधन विश्वविद्यालय में मुस्लिम छात्रों के लिए अनिवार्य धार्मिक शिक्षा को समाप्त कर देता है.

इस विवादास्पद प्रश्न ने बार-बार संसद की विधायी सूझबूझ और न्यायपालिका की उस संस्था से जुड़े जटिल कानूनों की व्याख्या करने की क्षमता का परीक्षण किया है, जिसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व में प्रमुख मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में की गई थी. कई साल बाद 1920 में, यह ब्रिटिश राज के तहत एक विश्वविद्यालय में तब्दील हो गया था.

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दलीलें समाप्त करते हुए कहा कि एक बात जो हमें चिंतित कर रही है, वह यह है कि 1981 का संशोधन 1951 से पहले की स्थिति को बहाल नहीं करता है. दूसरे शब्दों में, 1981 का संशोधन आधे-अधूरे मन से किया गया काम है. चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं समझ सकता हूं कि यदि 1981 के संशोधन में कहा गया होता... ठीक है, हम 1920 के मूल कानून पर वापस जा रहे हैं, इस (संस्था) को पूर्ण अल्पसंख्यक चरित्र प्रदान करते हैं.

इससे पहले, एनडीए सरकार ने एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और इस बात पर जोर दिया था कि अदालत को 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले के अनुसार चलना चाहिए. संविधान पीठ ने तब माना था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता. शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसे यह देखना होगा कि 1981 के संशोधन ने क्या किया और क्या इससे संस्था को वह दर्जा बहाल हुआ जो 1951 से पहले था.

वहीं, वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल सहित जिन लोगों ने इस संस्था को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने के पक्ष में विचार प्रस्तुत किया, उनका तर्क था कि मात्र 180 सदस्यीय शासी परिषद में केवल 37 सदस्य मुस्लिम हैं, एक मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्था के रूप में इसकी साख को कम नहीं करता. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जैसे अन्य लोगों ने तर्क दिया कि केंद्र से भारी धनराशि प्राप्त करने वाला और राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया विश्वविद्यालय किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से संबंधित होने का दावा नहीं कर सकता.

उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि 1951 में एएमयू अधिनियम में संशोधन के बाद जब मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज ने खुद को विश्वविद्यालय में तब्दील कर लिया और केंद्र सरकार से धन प्राप्त करना शुरू कर दिया, तो संस्थान ने अपना अल्पसंख्यक चरित्र त्याग दिया. एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का विरोध करने वाले एक वकील ने यहां तक ​​दावा किया था कि 2019 से 2023 के बीच उसे केंद्र सरकार से 5,000 करोड़ रुपये से अधिक मिले हैं, जो केंद्रीय विश्वविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय को मिले धन से लगभग दोगुना है.

उनमें से कुछ ने तो यहां तक ​​तर्क दिया था कि मुस्लिम समुदाय के जिन प्रमुख लोगों ने मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस संस्थान को विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से पैरवी की थी, वे स्वयं को अविभाजित भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं मानते थे और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की वकालत करते थे.

पढ़ें: सुप्रीम कोर्ट में ग्रीष्म अवकाश का नाम बदला, अब 'आंशिक न्यायालय कार्य दिवस' कहा जाएगा

नई दिल्ली: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्ज पर आज शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है. कोर्ट ने फैसले में कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्ज को नए सिरे से तय किया जाएगा. इसके लिए तीन जजों की पीठ बनाई गई है. बता दें, देश की सर्वोच्च अदालत ने 4-3 के बहुमत से यह फैसला दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इस बात का फैसला कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक रहेगा कि नहीं यह नई बेंच की जिम्मेदारी होगी. CJI चंद्रचूड़ समेत 4 जजों की पीठ एकमत थी. वहीं, 3 जज की राय जुदा थी. चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस पारदीवाला एकमत थे. वहीं, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा के फैसले अलग-अलग थे. इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट ने 4-3 के बहुमत से अपने फैसल में 1967 के उस फैसले को निरस्त कर दिया, जिसमें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इंकार करने की बात कही थी.

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ 10 नवंबर को अपने पद से रिटायर हो रहे हैं. सेवानिवृत्त होने से पहले डीवाई चंद्रचूड़ का आज कार्यकाल का आखिरी दिन है. इस केस में सात जजों की एक पीठ ने आठ दिनों तक सुनवाई करने के बाद एक फरवरी को फैसला सुरक्षित रखा था, जिस पर अब फैसला आया है.

सुप्रीम कोर्ट फैसला सुनाएगा कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है, जो धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उसे संचालित करने का अधिकार देता है. इस सात सदस्यीय पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं.

बता दें, 1 फरवरी को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर शीर्ष अदालत ने कहा कि एएमयू अधिनियम में 1981 का संशोधन, जिसने प्रभावी रूप से इसे अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान किया, केवल 'आधे-अधूरे मन से' किया गया और संस्थान को 1951 से पहले की स्थिति बहाल नहीं की. जबकि एएमयू अधिनियम, 1920 अलीगढ़ में एक शिक्षण और आवासीय मुस्लिम विश्वविद्यालय को शामिल करने की बात करता है, 1951 का संशोधन विश्वविद्यालय में मुस्लिम छात्रों के लिए अनिवार्य धार्मिक शिक्षा को समाप्त कर देता है.

इस विवादास्पद प्रश्न ने बार-बार संसद की विधायी सूझबूझ और न्यायपालिका की उस संस्था से जुड़े जटिल कानूनों की व्याख्या करने की क्षमता का परीक्षण किया है, जिसकी स्थापना 1875 में सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व में प्रमुख मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में की गई थी. कई साल बाद 1920 में, यह ब्रिटिश राज के तहत एक विश्वविद्यालय में तब्दील हो गया था.

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दलीलें समाप्त करते हुए कहा कि एक बात जो हमें चिंतित कर रही है, वह यह है कि 1981 का संशोधन 1951 से पहले की स्थिति को बहाल नहीं करता है. दूसरे शब्दों में, 1981 का संशोधन आधे-अधूरे मन से किया गया काम है. चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं समझ सकता हूं कि यदि 1981 के संशोधन में कहा गया होता... ठीक है, हम 1920 के मूल कानून पर वापस जा रहे हैं, इस (संस्था) को पूर्ण अल्पसंख्यक चरित्र प्रदान करते हैं.

इससे पहले, एनडीए सरकार ने एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और इस बात पर जोर दिया था कि अदालत को 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले के अनुसार चलना चाहिए. संविधान पीठ ने तब माना था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता. शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसे यह देखना होगा कि 1981 के संशोधन ने क्या किया और क्या इससे संस्था को वह दर्जा बहाल हुआ जो 1951 से पहले था.

वहीं, वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल सहित जिन लोगों ने इस संस्था को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने के पक्ष में विचार प्रस्तुत किया, उनका तर्क था कि मात्र 180 सदस्यीय शासी परिषद में केवल 37 सदस्य मुस्लिम हैं, एक मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्था के रूप में इसकी साख को कम नहीं करता. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जैसे अन्य लोगों ने तर्क दिया कि केंद्र से भारी धनराशि प्राप्त करने वाला और राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया विश्वविद्यालय किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से संबंधित होने का दावा नहीं कर सकता.

उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि 1951 में एएमयू अधिनियम में संशोधन के बाद जब मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज ने खुद को विश्वविद्यालय में तब्दील कर लिया और केंद्र सरकार से धन प्राप्त करना शुरू कर दिया, तो संस्थान ने अपना अल्पसंख्यक चरित्र त्याग दिया. एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने का विरोध करने वाले एक वकील ने यहां तक ​​दावा किया था कि 2019 से 2023 के बीच उसे केंद्र सरकार से 5,000 करोड़ रुपये से अधिक मिले हैं, जो केंद्रीय विश्वविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय को मिले धन से लगभग दोगुना है.

उनमें से कुछ ने तो यहां तक ​​तर्क दिया था कि मुस्लिम समुदाय के जिन प्रमुख लोगों ने मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस संस्थान को विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से पैरवी की थी, वे स्वयं को अविभाजित भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं मानते थे और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की वकालत करते थे.

पढ़ें: सुप्रीम कोर्ट में ग्रीष्म अवकाश का नाम बदला, अब 'आंशिक न्यायालय कार्य दिवस' कहा जाएगा

Last Updated : Nov 8, 2024, 5:57 PM IST
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