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धर्मांतरण के मामले में मौलवी को मिली जमानत, सुप्रीम कोर्ट ने की हाई कोर्ट की आलोचना - SUPREME COURT PULLS UP HC

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, धर्मांतरण को बहुत गंभीर मामला बताकर जमानत देने से इनकार नहीं किया जा सकता.

SC
सुप्रीम कोर्ट (IANS)
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By Sumit Saxena

Published : Jan 27, 2025, 10:10 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में उत्तर प्रदेश प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल रिलीजियस कनवर्जन एक्ट, 2021 के तहत एक आरोपी मौलवी को जमानत देने से इनकार करने पर इलाहबाद हाई कोर्ट की कड़ी आलोचना की. पीठ ने मौलवी सैयद शाद काजमी उर्फ मोहम्मद शाद की जमानत याचिका मंजूर कर ली.

काजमी को उत्तर प्रदेश पुलिस ने आईपीसी की धारा 504 और 506 और उत्तर प्रदेश धर्म के गैरकानूनी धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के अन्य प्रावधानों के तहत कानपुर नगर में दर्ज एक मामले में गिरफ्तार करने के बाद 11 महीने तक हिरासत में रखा है.

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि जमानत देना विवेक का मामला है. विवेक का मतलब यह नहीं है कि कोई जज अपनी मर्जी से धर्मांतरण को बहुत गंभीर मामला बताकर जमानत देने से इनकार कर दे. सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा एक मौलवी को जमानत देने से इनकार करने पर की, जिस पर एक मानसिक रूप से विक्षिप्त नाबालिग लड़के को इस्लाम में धर्मांतरित करने का आरोप है.

जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को देखने के बाद कहा कि, याचिकाकर्ता को जमानत देकर हाई कोर्ट को अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए था. बेंच ने अपने आदेश में कहा कि, जमानत देने से इनकार करने के लिए हाई कोर्ट के पास कोई उचित कारण नहीं था. आरोपित अपराध हत्या, डकैती, बलात्कार आदि जैसा गंभीर या संगीन नहीं है. पीठ ने कहा कि निचली अदालत ने उसे जमानत देने से मना कर दिया, क्योंकि वह किसी भी अपराध के लिए जमानत देने का साहस बहुत कम जुटा पाती है, लेकिन हाई कोर्ट से यह उम्मीद की जाती है कि वह साहस जुटाए और अपने विवेक का विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करे.

बेंच ने कहा, "हम इस तथ्य से अवगत हैं कि जमानत देना विवेक का मामला है. लेकिन विवेक का इस्तेमाल न्यायिक रूप से जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए. विवेक का मतलब यह नहीं है कि न्यायाधीश अपनी मर्जी से जमानत देने से मना कर दे और कहे कि धर्मांतरण बहुत गंभीर बात है." पीठ ने कहा कि, याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाया जाएगा और अंततः यदि अभियोजन पक्ष अपना मामला साबित करने में सफल होता है, तो उसे दंडित किया जाएगा.

पीठ ने कहा कि कई बार जब हाई कोर्ट वर्तमान प्रकार के मामलों में जमानत देने से मना करता है, तो इससे यह आभास होता है कि पीठासीन अधिकारी ने जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए पूरी तरह से अलग विचार रखे हैं. पीठ ने कहा कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंचना चाहिए था और निचली अदालत को स्वयं इतना साहस दिखाना चाहिए था कि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा कर दे.

पीठ ने कहा, "हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यदि याचिकाकर्ता को उचित नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा किया जाता तो अभियोजन पक्ष को क्या नुकसान होता." पीठ ने कहा कि यही कारण है कि हाई कोर्ट और अब दुर्भाग्य से देश के सुप्रीम कोर्ट में जमानत आवेदनों की बाढ़ आ गई है. पीठ ने कहा कि एक मामले में हमारा मानना ​है कि आम तौर पर एक बार मुकदमा शुरू होने के बाद अदालत को आरोपी को जमानत पर रिहा करने में संकोच करना चाहिए, लेकिन यह सब अपराध की प्रकृति पर निर्भर करता है.

अदालत ने कहा "यदि यह हत्या या किसी अन्य गंभीर अपराध का मामला होता तो हम मना कर देते. वर्तमान मामले में, हालांकि मुकदमा चल रहा है और अभियोजन पक्ष के गवाहों की जांच की जा रही है, फिर भी याचिकाकर्ता को उन नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश देना उचित मामला है, जिन्हें ट्रायल कोर्ट उचित समझे." पीठ ने मौलवी सैयद शाद काजमी उर्फ ​​मोहम्मद शाद की जमानत याचिका मंजूर करते हुए यह बात कही. पीठ ने स्पष्ट किया कि इस अदालत द्वारा की गई किसी भी टिप्पणी से किसी भी तरह प्रभावित हुए बिना आरोपी के दोषी या निर्दोष होने का निर्धारण रिकॉर्ड में आने वाले ठोस सबूतों के आधार पर किया जाएगा.

राज्य के वकील ने तर्क दिया था कि, आरोपी को अधिकतम 10 साल की जेल की सजा वाले अपराध के लिए गिरफ्तार किया गया है. हालांकि, याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि मानसिक रूप से विकलांग बच्चे को उसके माता-पिता ने छोड़ दिया था और उसे सड़कों पर फेंक दिया था, और उनके मुवक्किल ने मानवीय आधार पर बच्चे को अपने घर ले आए और उसे आश्रय दिया.

पीठ ने मौलवी सैयद शाद काजमी की जमानत याचिका को मंजूर करते हुए कहा, "याचिकाकर्ता को उन नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया जाता है, जिन्हें ट्रायल कोर्ट लगाना उचित समझे. याचिकाकर्ता की रिहाई अब मुकदमे के आड़े नहीं आनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "मुकदमा कानून के अनुसार तेजी से आगे बढ़ना चाहिए."

ये भी पढ़ें: उच्चतम न्यायालय चंडीगढ़ महापौर चुनाव के लिए स्वतंत्र पर्यवेक्षक नामित करेगा

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में उत्तर प्रदेश प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल रिलीजियस कनवर्जन एक्ट, 2021 के तहत एक आरोपी मौलवी को जमानत देने से इनकार करने पर इलाहबाद हाई कोर्ट की कड़ी आलोचना की. पीठ ने मौलवी सैयद शाद काजमी उर्फ मोहम्मद शाद की जमानत याचिका मंजूर कर ली.

काजमी को उत्तर प्रदेश पुलिस ने आईपीसी की धारा 504 और 506 और उत्तर प्रदेश धर्म के गैरकानूनी धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के अन्य प्रावधानों के तहत कानपुर नगर में दर्ज एक मामले में गिरफ्तार करने के बाद 11 महीने तक हिरासत में रखा है.

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि जमानत देना विवेक का मामला है. विवेक का मतलब यह नहीं है कि कोई जज अपनी मर्जी से धर्मांतरण को बहुत गंभीर मामला बताकर जमानत देने से इनकार कर दे. सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा एक मौलवी को जमानत देने से इनकार करने पर की, जिस पर एक मानसिक रूप से विक्षिप्त नाबालिग लड़के को इस्लाम में धर्मांतरित करने का आरोप है.

जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को देखने के बाद कहा कि, याचिकाकर्ता को जमानत देकर हाई कोर्ट को अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए था. बेंच ने अपने आदेश में कहा कि, जमानत देने से इनकार करने के लिए हाई कोर्ट के पास कोई उचित कारण नहीं था. आरोपित अपराध हत्या, डकैती, बलात्कार आदि जैसा गंभीर या संगीन नहीं है. पीठ ने कहा कि निचली अदालत ने उसे जमानत देने से मना कर दिया, क्योंकि वह किसी भी अपराध के लिए जमानत देने का साहस बहुत कम जुटा पाती है, लेकिन हाई कोर्ट से यह उम्मीद की जाती है कि वह साहस जुटाए और अपने विवेक का विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करे.

बेंच ने कहा, "हम इस तथ्य से अवगत हैं कि जमानत देना विवेक का मामला है. लेकिन विवेक का इस्तेमाल न्यायिक रूप से जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए. विवेक का मतलब यह नहीं है कि न्यायाधीश अपनी मर्जी से जमानत देने से मना कर दे और कहे कि धर्मांतरण बहुत गंभीर बात है." पीठ ने कहा कि, याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाया जाएगा और अंततः यदि अभियोजन पक्ष अपना मामला साबित करने में सफल होता है, तो उसे दंडित किया जाएगा.

पीठ ने कहा कि कई बार जब हाई कोर्ट वर्तमान प्रकार के मामलों में जमानत देने से मना करता है, तो इससे यह आभास होता है कि पीठासीन अधिकारी ने जमानत देने के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए पूरी तरह से अलग विचार रखे हैं. पीठ ने कहा कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंचना चाहिए था और निचली अदालत को स्वयं इतना साहस दिखाना चाहिए था कि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा कर दे.

पीठ ने कहा, "हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यदि याचिकाकर्ता को उचित नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा किया जाता तो अभियोजन पक्ष को क्या नुकसान होता." पीठ ने कहा कि यही कारण है कि हाई कोर्ट और अब दुर्भाग्य से देश के सुप्रीम कोर्ट में जमानत आवेदनों की बाढ़ आ गई है. पीठ ने कहा कि एक मामले में हमारा मानना ​है कि आम तौर पर एक बार मुकदमा शुरू होने के बाद अदालत को आरोपी को जमानत पर रिहा करने में संकोच करना चाहिए, लेकिन यह सब अपराध की प्रकृति पर निर्भर करता है.

अदालत ने कहा "यदि यह हत्या या किसी अन्य गंभीर अपराध का मामला होता तो हम मना कर देते. वर्तमान मामले में, हालांकि मुकदमा चल रहा है और अभियोजन पक्ष के गवाहों की जांच की जा रही है, फिर भी याचिकाकर्ता को उन नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश देना उचित मामला है, जिन्हें ट्रायल कोर्ट उचित समझे." पीठ ने मौलवी सैयद शाद काजमी उर्फ ​​मोहम्मद शाद की जमानत याचिका मंजूर करते हुए यह बात कही. पीठ ने स्पष्ट किया कि इस अदालत द्वारा की गई किसी भी टिप्पणी से किसी भी तरह प्रभावित हुए बिना आरोपी के दोषी या निर्दोष होने का निर्धारण रिकॉर्ड में आने वाले ठोस सबूतों के आधार पर किया जाएगा.

राज्य के वकील ने तर्क दिया था कि, आरोपी को अधिकतम 10 साल की जेल की सजा वाले अपराध के लिए गिरफ्तार किया गया है. हालांकि, याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि मानसिक रूप से विकलांग बच्चे को उसके माता-पिता ने छोड़ दिया था और उसे सड़कों पर फेंक दिया था, और उनके मुवक्किल ने मानवीय आधार पर बच्चे को अपने घर ले आए और उसे आश्रय दिया.

पीठ ने मौलवी सैयद शाद काजमी की जमानत याचिका को मंजूर करते हुए कहा, "याचिकाकर्ता को उन नियमों और शर्तों के अधीन जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया जाता है, जिन्हें ट्रायल कोर्ट लगाना उचित समझे. याचिकाकर्ता की रिहाई अब मुकदमे के आड़े नहीं आनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "मुकदमा कानून के अनुसार तेजी से आगे बढ़ना चाहिए."

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