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'अपने कर्तव्यों को समझे अदालत', वैवाहिक विवादों पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि, वैवाहिक मामलों में अदालत को अपने कर्तव्यों को समझते हुए इसकी गहराई से जांच करना चाहिए.

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सुप्रीम कोर्ट और विवाह की प्रतीकात्मक तस्वीर (IANS)
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By Sumit Saxena

Published : Nov 27, 2024, 7:47 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह सर्वविदित है कि, वैवाहिक विवादों में घटना के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है. कोर्ट का कहना है कि, ऐसे मामलों में अदालत अपने कर्तव्यों को समझते हुए इसकी गहराई से जांच करे.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, अदालत इस बात की जांच करे कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में पति के रिश्तेदार के खिलाफ लगाए गए आरोप बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं या नहीं. जस्टिस सीटी रविकुमार और राजेश बिंदल की बेंच ने प्रीति गुप्ता एवं अन्य बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2010) के फैसले का हवाला देते हुए यह बात कही.

बेंच ने कहा कि आपराधिक मुकदमों से सभी संबंधित पक्षों को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है. कोर्ट का कहना है कि, मुकदमे में अंतिम रूप से बरी हो जाने पर भी अपमान की पीड़ा के गहरे जख्मों को मिटाया नहीं जा सकता है. पीठ ने 26 नवंबर को दिए गए फैसले में कहा, अदालतें ऐसी दलीलों पर विचार करने के दायित्व से बच नहीं सकतीं. सुप्रीम कोर्ट ने पति के चचेरे भाई की पत्नी के खिलाफ 2020 की एफआईआर और चार्जशीट को खारिज कर दिया. अपीलकर्ता मोहाली में रहता था और शिकायतकर्ता की बेटी शादी के बाद जालंधर में रहती थी.

पीठ ने कहा कि, वैवाहिक विवादों में यह देखना अदालत का कर्तव्य है कि क्या पति के परिवार के करीबी रिश्तेदार न होने वाले व्यक्ति को फंसाना अतिशयोक्ति है या ऐसे किसी व्यक्ति के खिलाफ आरोप अतिशयोक्तिपूर्ण हैं. पीठ ने कहा कि आरोप तय होने से पहले भी चार्जशीट को खारिज करने के लिए धारा 482, सीआरपीसी के तहत याचिका दायर की जा सकती है और केवल इस आधार पर आवेदन को खारिज करना न्याय के हित में नहीं होगा कि संबंधित आरोपी आरोप तय होने के समय कानूनी और तथ्यात्मक मुद्दों पर बहस कर सकते हैं.

पीठ ने कहा, जब रिश्तेदार उसी घर में नहीं रहते हैं जहां कथित पीड़िता रहती है, तो अदालतों को केवल इस सवाल पर विचार करके विचार करना बंद नहीं करना चाहिए कि आरोपी धारा 498-ए, आईपीसी के उद्देश्य के लिए 'रिश्तेदार' अभिव्यक्ति के दायरे में आता है. पीठ ने कहा कि 'रिश्तेदार' शब्द को कानून में परिभाषित नहीं किया गया है और इसलिए, इसे एक अर्थ दिया जाना चाहिए जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है. पीठ ने कहा कि इस तरह के आरोपों या अभियोग के आधार पर आरोपी को मुकदमे का सामना करना अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा.

खबर के मुताबिक, पहले आरोपी (पति) और शिकायतकर्ता की बेटी के बीच फरवरी 2019 में शादी हुई थी. पति मार्च 2019 में कनाडा चला गया और उसकी पत्नी अपने ससुराल वालों के साथ जालंधर में अपने वैवाहिक घर में ही रही. दिसंबर 2019 में पत्नी भी कनाडा चली गई. सितंबर 2020 में पति ने तलाक के लिए कनाडा की एक अदालत में याचिका दायर की. शिकायतकर्ता, जो कि पत्नी का पिता है, ने दिसंबर 2020 में एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी, जिसमें अपीलकर्ता और उसके पति सहित सभी आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत विभिन्न अपराधों का आरोप लगाया गया था.

ये भी पढ़ें: SC का बड़ा फैसला, संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने वाली याचिका खारिज की

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह सर्वविदित है कि, वैवाहिक विवादों में घटना के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है. कोर्ट का कहना है कि, ऐसे मामलों में अदालत अपने कर्तव्यों को समझते हुए इसकी गहराई से जांच करे.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, अदालत इस बात की जांच करे कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में पति के रिश्तेदार के खिलाफ लगाए गए आरोप बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं या नहीं. जस्टिस सीटी रविकुमार और राजेश बिंदल की बेंच ने प्रीति गुप्ता एवं अन्य बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2010) के फैसले का हवाला देते हुए यह बात कही.

बेंच ने कहा कि आपराधिक मुकदमों से सभी संबंधित पक्षों को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है. कोर्ट का कहना है कि, मुकदमे में अंतिम रूप से बरी हो जाने पर भी अपमान की पीड़ा के गहरे जख्मों को मिटाया नहीं जा सकता है. पीठ ने 26 नवंबर को दिए गए फैसले में कहा, अदालतें ऐसी दलीलों पर विचार करने के दायित्व से बच नहीं सकतीं. सुप्रीम कोर्ट ने पति के चचेरे भाई की पत्नी के खिलाफ 2020 की एफआईआर और चार्जशीट को खारिज कर दिया. अपीलकर्ता मोहाली में रहता था और शिकायतकर्ता की बेटी शादी के बाद जालंधर में रहती थी.

पीठ ने कहा कि, वैवाहिक विवादों में यह देखना अदालत का कर्तव्य है कि क्या पति के परिवार के करीबी रिश्तेदार न होने वाले व्यक्ति को फंसाना अतिशयोक्ति है या ऐसे किसी व्यक्ति के खिलाफ आरोप अतिशयोक्तिपूर्ण हैं. पीठ ने कहा कि आरोप तय होने से पहले भी चार्जशीट को खारिज करने के लिए धारा 482, सीआरपीसी के तहत याचिका दायर की जा सकती है और केवल इस आधार पर आवेदन को खारिज करना न्याय के हित में नहीं होगा कि संबंधित आरोपी आरोप तय होने के समय कानूनी और तथ्यात्मक मुद्दों पर बहस कर सकते हैं.

पीठ ने कहा, जब रिश्तेदार उसी घर में नहीं रहते हैं जहां कथित पीड़िता रहती है, तो अदालतों को केवल इस सवाल पर विचार करके विचार करना बंद नहीं करना चाहिए कि आरोपी धारा 498-ए, आईपीसी के उद्देश्य के लिए 'रिश्तेदार' अभिव्यक्ति के दायरे में आता है. पीठ ने कहा कि 'रिश्तेदार' शब्द को कानून में परिभाषित नहीं किया गया है और इसलिए, इसे एक अर्थ दिया जाना चाहिए जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है. पीठ ने कहा कि इस तरह के आरोपों या अभियोग के आधार पर आरोपी को मुकदमे का सामना करना अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा.

खबर के मुताबिक, पहले आरोपी (पति) और शिकायतकर्ता की बेटी के बीच फरवरी 2019 में शादी हुई थी. पति मार्च 2019 में कनाडा चला गया और उसकी पत्नी अपने ससुराल वालों के साथ जालंधर में अपने वैवाहिक घर में ही रही. दिसंबर 2019 में पत्नी भी कनाडा चली गई. सितंबर 2020 में पति ने तलाक के लिए कनाडा की एक अदालत में याचिका दायर की. शिकायतकर्ता, जो कि पत्नी का पिता है, ने दिसंबर 2020 में एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी, जिसमें अपीलकर्ता और उसके पति सहित सभी आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत विभिन्न अपराधों का आरोप लगाया गया था.

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