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टिहरी राजपरिवार की शस्त्र पूजा, खास है इस परंपरा के मायने, 52 गढ़ों, 1300 साल से जुड़ा है इतिहास

गढ़वाल के 52 गढ़ों के वंशजों ने एकजुट होकर सदियों पुरानी सभ्यता जिंदा रखी है. इसकी झलक अष्टमी पर राजपरिवार की पूजा में दिखती है.

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By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : 2 hours ago

Updated : 36 minutes ago

Ancient Weapon Worship in Tehri Royal Family
राजपरिवार में दुर्लभ शस्त्र पूजा (फोटो- ETV Bharat GFX)

देहरादून (उत्तराखंड): दुर्गा अष्टमी के मौके पर देहरादून में टिहरी राजपरिवार के वंशज भवानी प्रताप के आवास पर अतीत के पन्नों की कुछ झलक देखने को मिली. जहां टिहरी साम्राज्य की दुर्गा अष्टमी पर होने वाली पारंपरिक शस्त्र पूजा के दौरान राजदरबार के सभी हथियारों की पूजा की गई. वहीं, राजराजेश्वरी माता की पारंपरिक पूजा के दौरान उत्तराखंड के कई राज्यों से आए थोकदार वंशज भी शामिल रहे.

बेहद समृद्ध है गढ़वाल की ऐतिहासिक सभ्यता: देवभूमि उत्तराखंड का इतिहास के झरोखे में गढ़वाल के राजाओं का साम्राज्य बेहद समृद्ध रहा है. दैवीय परंपराओं से ओत-प्रोत खासकर गढ़वाल में टिहरी के महाराजा का शासनकाल कई ऐतिहासिक घटनाओं और सनातनी परंपराओं से जुड़ा हुआ है. आजादी के बाद देश में टिहरी रियासत के विलय कर दिया गया था. जिसके बाद इस राजशाही की तमाम परंपराएं धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है.

टिहरी राजपरिवार की शस्त्र पूजा (ETV Bharat)

वहीं, टिहरी राजवंश से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने उन तमाम धरोहरों को संभाल के रखा है, जो कि टिहरी साम्राज्य के समृद्ध इतिहास को जीवंत करते हैं. टिहरी साम्राज्य के दुर्बल हथियारों और धरोहरों के साथ कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने उन सैकड़ों थोकदारी गढ़ों के सैन्य ध्वजा व हथियारों को भी संजो कर रखा है, जिन्हें देखने के बाद इस विकट हिमालय की गोद में बसी हजारों साल पुरानी सभ्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

शारदीय नवरात्रि की अष्टमी पर होती है सभी दुर्लभ हथियारों की पूजा: टिहरी राजवंश हर साल शारदीय नवरात्रि के अष्टमी के मौके पर शस्त्र पूजा की जाती है. इस दिन राज दरबार में मौजूद सभी दुर्लभ हथियारों के साथ टिहरी राजशाही से जुड़े सभी दुर्लभ प्रतीक चिन्हों की पूजा होती है.

इस दौरान क्षेत्र में मौजूद सभी थोकदार गढ़ों (ठाकुरों के किले) के वंशजों को एक साथ जोड़कर 1300 साल पुरानी परंपरा को निभाते हैं. जो कि राजशाही के दौर से चलती आ रही है. इस मौके पर मां दुर्गा का स्वरूप महाराज राजेश्वरी का पौराणिक अनुष्ठान होता है. इस दौरान सभी थोकदारों को भी राज परिवार की ओर से आमंत्रित किया जाता है.

Ancient Weapon Worship in Tehri Royal Family
दुर्लभ शस्त्र पूजा (फोटो- ETV Bharat)

सबसे पहले चांदपुर गढ़ी से पंवार राजवंश ने शुरू की थी परंपरा: ईटीवी से बातचीत में टिहरी राजपरिवार से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने बताया कि अष्टमी पर शस्त्र पूजा की शुरुआत पहली दफा चमोली में मौजूद चांदपुर गड़ी से पंवार वंशज राजा कनकपाल ने की थी. इसके बाद यह परंपरा देवलगढ़ और वहां से श्रीनगर और फिर जब टिहरी में राजधानी बनी तो फिर वहां पर भी लगातार चलती आई.

उन्होंने बताया कि शारदीय नवरात्रि में अष्टमी के दिन राजमहल में सभी अस्त्र और शास्त्रों की पूजा की जाती है. क्योंकि, यह दिन मां काली का माना जाता है. इस दिन पौराणिक काल में नरबलि देने की भी प्रथा थी. उस समय इस अनुष्ठान को बेहद खास माना जाता था.

कई ऐसे वीर सैनिक हुए थे, जो कि अपना बलिदान देते थे. जो इस बलिदान को देता था, उसे बेहद सम्मान और वीर पुरुष के रूप में देखा जाता था. हालांकि, कालांतर के बाद प्रथम बदली और इसके बाद पशु बलि और अब केवल सांकेतिक रूप से इस अनुष्ठान को अंजाम दिया जाता है.

Weapon Worship By Tehri Princely Family
टिहरी राज परिवार वंशज के असलहा (फोटो- ETV Bharat)

राजगुरु नौटियाल पूजन के अधिष्ठाता ब्राह्मण, सभी थोकदार रहते हैं शामिल: कुंवर भवानी प्रताप सिंह पंवार बताते हैं कि अष्टमी पर होने वाले इस विशिष्ट अनुष्ठान के दौरान मां काली की पूजा होती है तो वहीं इस पूजा के मुख्य पुजारी यानी अष्टमी पूजा के अधिष्ठाता राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण होते हैं. इस अनुष्ठान में सभी थोकदार समाज शामिल होता है.

इस अनुष्ठान के दौरान एक विशेष दस्तूर होता है, जिसके तहत थोकदार समाज की ओर से मां भगवती को बलि की भेंट दी जाती थी. इसे एक सच्चे सैनिक के रूप में बलिदान माना जाता था और इसे काफी सम्मानित बलिदान के रूप में जाना जाता था.

गढ़वाल में 52 गढ़ का प्रचलन, राज दरबार के दस्तावेजों में 161 छोटे-बड़े गढ़ का जिक्र: वहीं, पुरोहित पंडित बताते हैं कि गढ़वाल में 52 गढ़ का प्रचलन ज्यादा है, लेकिन राज दरबार में मौजूद दस्तावेजों के अनुसार गढ़वाल क्षेत्र में 161 छोटे-बड़े गढ़ हुआ करते थे. यही सब मिलकर मां काली की आराधना इस दिन करते हैं.

बदरीनाथ से डिमरी रावल लाते हैं प्रसाद, 161 गढ़ से थोकदार वंशज रहे शामिल: राजपरिवार से भवानी प्रताप सिंह बताते हैं कि पौराणिक समय में उत्तराखंड में तकरीबन 161 छोटे-बड़े गढ़ हुआ करते थे. गढ़वाल की जब उत्पत्ति हुई थी तो उस समय 12 तोक ब्राह्मणों और 14 तोक क्षत्रियों के माने जाते थे. इन तमाम परिसीमा को देखते हुए एक व्यवस्था बनाई गई.

Weapon Worship By Tehri Princely Family
टिहरी राज परिवार वंशज के हथियार (फोटो- ETV Bharat)

इस व्यवस्था के तहत विशेष पूजन में दक्षिण काली के रूप में पूजे जाने वाली मां राजराजेश्वरी, बंगाल के मां दुर्गा के रूप में पूजे जाने वाली गोदेश्वरी का ही स्वरूप माना गया. जिसे उत्तराखंड में कई जगह पर मां नंदा के रूप में भी पूजा जाता है.

वहीं, इसके अलावा बदरीनाथ से डिमरी समाज के मुख्य पुजारी हरीश डिमरी ने बताया कि राज दरबार में या फिर राजपरिवार में जब भी इस तरह का शस्त्र पूजन या फिर किसी भी तरह का कोई पूजन होता है तो प्रसाद बदरीनाथ से आता है. उसे डिमरी समाज के लोग ही लेकर आते हैं. उन्होंने बताया कि बदरीनाथ धाम और टिहरी के राज दरबार में कई सारे ऐसे संबंध है, जो कि पौराणिक समय से चलते आ रहे हैं.

सनातन धर्म को बचाए रखने के लिए पौराणिक प्रैक्टिस जरूरी: बदरीनाथ धाम से आए डिमरी समाज के पुजारी हरीश डिमरी ने बताया कि यह काफी पुरानी परंपरा है. जिसे हजारों सालों से जिंदा रखे हुए हैं. उन्होंने कहा कि आज जिस तरह से सनातन धर्म का क्षरण हो रहा है, इस तरह के परंपराओं को जिंदा रखना बेहद जरूरी है. ताकि, हमारी परंपराएं और खासतौर से देवभूमि उत्तराखंड का जो देवत्व है, वो जीवित रह पाए.

वहीं, इसके अलावा राजपरिवार से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह के बड़े भाई का कहना है कि इस तरह की जब प्रैक्टिसेज जारी रहेगी, तभी हमारे आने वाली पीढ़ी इसके महत्व के बारे में समझ पाएंगे. उधर, टिहरी साम्राज्य के दुर्बल हथियारों और धरोहरों को देख लोग अभिभूत नजर आए.

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देहरादून (उत्तराखंड): दुर्गा अष्टमी के मौके पर देहरादून में टिहरी राजपरिवार के वंशज भवानी प्रताप के आवास पर अतीत के पन्नों की कुछ झलक देखने को मिली. जहां टिहरी साम्राज्य की दुर्गा अष्टमी पर होने वाली पारंपरिक शस्त्र पूजा के दौरान राजदरबार के सभी हथियारों की पूजा की गई. वहीं, राजराजेश्वरी माता की पारंपरिक पूजा के दौरान उत्तराखंड के कई राज्यों से आए थोकदार वंशज भी शामिल रहे.

बेहद समृद्ध है गढ़वाल की ऐतिहासिक सभ्यता: देवभूमि उत्तराखंड का इतिहास के झरोखे में गढ़वाल के राजाओं का साम्राज्य बेहद समृद्ध रहा है. दैवीय परंपराओं से ओत-प्रोत खासकर गढ़वाल में टिहरी के महाराजा का शासनकाल कई ऐतिहासिक घटनाओं और सनातनी परंपराओं से जुड़ा हुआ है. आजादी के बाद देश में टिहरी रियासत के विलय कर दिया गया था. जिसके बाद इस राजशाही की तमाम परंपराएं धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है.

टिहरी राजपरिवार की शस्त्र पूजा (ETV Bharat)

वहीं, टिहरी राजवंश से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने उन तमाम धरोहरों को संभाल के रखा है, जो कि टिहरी साम्राज्य के समृद्ध इतिहास को जीवंत करते हैं. टिहरी साम्राज्य के दुर्बल हथियारों और धरोहरों के साथ कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने उन सैकड़ों थोकदारी गढ़ों के सैन्य ध्वजा व हथियारों को भी संजो कर रखा है, जिन्हें देखने के बाद इस विकट हिमालय की गोद में बसी हजारों साल पुरानी सभ्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

शारदीय नवरात्रि की अष्टमी पर होती है सभी दुर्लभ हथियारों की पूजा: टिहरी राजवंश हर साल शारदीय नवरात्रि के अष्टमी के मौके पर शस्त्र पूजा की जाती है. इस दिन राज दरबार में मौजूद सभी दुर्लभ हथियारों के साथ टिहरी राजशाही से जुड़े सभी दुर्लभ प्रतीक चिन्हों की पूजा होती है.

इस दौरान क्षेत्र में मौजूद सभी थोकदार गढ़ों (ठाकुरों के किले) के वंशजों को एक साथ जोड़कर 1300 साल पुरानी परंपरा को निभाते हैं. जो कि राजशाही के दौर से चलती आ रही है. इस मौके पर मां दुर्गा का स्वरूप महाराज राजेश्वरी का पौराणिक अनुष्ठान होता है. इस दौरान सभी थोकदारों को भी राज परिवार की ओर से आमंत्रित किया जाता है.

Ancient Weapon Worship in Tehri Royal Family
दुर्लभ शस्त्र पूजा (फोटो- ETV Bharat)

सबसे पहले चांदपुर गढ़ी से पंवार राजवंश ने शुरू की थी परंपरा: ईटीवी से बातचीत में टिहरी राजपरिवार से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने बताया कि अष्टमी पर शस्त्र पूजा की शुरुआत पहली दफा चमोली में मौजूद चांदपुर गड़ी से पंवार वंशज राजा कनकपाल ने की थी. इसके बाद यह परंपरा देवलगढ़ और वहां से श्रीनगर और फिर जब टिहरी में राजधानी बनी तो फिर वहां पर भी लगातार चलती आई.

उन्होंने बताया कि शारदीय नवरात्रि में अष्टमी के दिन राजमहल में सभी अस्त्र और शास्त्रों की पूजा की जाती है. क्योंकि, यह दिन मां काली का माना जाता है. इस दिन पौराणिक काल में नरबलि देने की भी प्रथा थी. उस समय इस अनुष्ठान को बेहद खास माना जाता था.

कई ऐसे वीर सैनिक हुए थे, जो कि अपना बलिदान देते थे. जो इस बलिदान को देता था, उसे बेहद सम्मान और वीर पुरुष के रूप में देखा जाता था. हालांकि, कालांतर के बाद प्रथम बदली और इसके बाद पशु बलि और अब केवल सांकेतिक रूप से इस अनुष्ठान को अंजाम दिया जाता है.

Weapon Worship By Tehri Princely Family
टिहरी राज परिवार वंशज के असलहा (फोटो- ETV Bharat)

राजगुरु नौटियाल पूजन के अधिष्ठाता ब्राह्मण, सभी थोकदार रहते हैं शामिल: कुंवर भवानी प्रताप सिंह पंवार बताते हैं कि अष्टमी पर होने वाले इस विशिष्ट अनुष्ठान के दौरान मां काली की पूजा होती है तो वहीं इस पूजा के मुख्य पुजारी यानी अष्टमी पूजा के अधिष्ठाता राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण होते हैं. इस अनुष्ठान में सभी थोकदार समाज शामिल होता है.

इस अनुष्ठान के दौरान एक विशेष दस्तूर होता है, जिसके तहत थोकदार समाज की ओर से मां भगवती को बलि की भेंट दी जाती थी. इसे एक सच्चे सैनिक के रूप में बलिदान माना जाता था और इसे काफी सम्मानित बलिदान के रूप में जाना जाता था.

गढ़वाल में 52 गढ़ का प्रचलन, राज दरबार के दस्तावेजों में 161 छोटे-बड़े गढ़ का जिक्र: वहीं, पुरोहित पंडित बताते हैं कि गढ़वाल में 52 गढ़ का प्रचलन ज्यादा है, लेकिन राज दरबार में मौजूद दस्तावेजों के अनुसार गढ़वाल क्षेत्र में 161 छोटे-बड़े गढ़ हुआ करते थे. यही सब मिलकर मां काली की आराधना इस दिन करते हैं.

बदरीनाथ से डिमरी रावल लाते हैं प्रसाद, 161 गढ़ से थोकदार वंशज रहे शामिल: राजपरिवार से भवानी प्रताप सिंह बताते हैं कि पौराणिक समय में उत्तराखंड में तकरीबन 161 छोटे-बड़े गढ़ हुआ करते थे. गढ़वाल की जब उत्पत्ति हुई थी तो उस समय 12 तोक ब्राह्मणों और 14 तोक क्षत्रियों के माने जाते थे. इन तमाम परिसीमा को देखते हुए एक व्यवस्था बनाई गई.

Weapon Worship By Tehri Princely Family
टिहरी राज परिवार वंशज के हथियार (फोटो- ETV Bharat)

इस व्यवस्था के तहत विशेष पूजन में दक्षिण काली के रूप में पूजे जाने वाली मां राजराजेश्वरी, बंगाल के मां दुर्गा के रूप में पूजे जाने वाली गोदेश्वरी का ही स्वरूप माना गया. जिसे उत्तराखंड में कई जगह पर मां नंदा के रूप में भी पूजा जाता है.

वहीं, इसके अलावा बदरीनाथ से डिमरी समाज के मुख्य पुजारी हरीश डिमरी ने बताया कि राज दरबार में या फिर राजपरिवार में जब भी इस तरह का शस्त्र पूजन या फिर किसी भी तरह का कोई पूजन होता है तो प्रसाद बदरीनाथ से आता है. उसे डिमरी समाज के लोग ही लेकर आते हैं. उन्होंने बताया कि बदरीनाथ धाम और टिहरी के राज दरबार में कई सारे ऐसे संबंध है, जो कि पौराणिक समय से चलते आ रहे हैं.

सनातन धर्म को बचाए रखने के लिए पौराणिक प्रैक्टिस जरूरी: बदरीनाथ धाम से आए डिमरी समाज के पुजारी हरीश डिमरी ने बताया कि यह काफी पुरानी परंपरा है. जिसे हजारों सालों से जिंदा रखे हुए हैं. उन्होंने कहा कि आज जिस तरह से सनातन धर्म का क्षरण हो रहा है, इस तरह के परंपराओं को जिंदा रखना बेहद जरूरी है. ताकि, हमारी परंपराएं और खासतौर से देवभूमि उत्तराखंड का जो देवत्व है, वो जीवित रह पाए.

वहीं, इसके अलावा राजपरिवार से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह के बड़े भाई का कहना है कि इस तरह की जब प्रैक्टिसेज जारी रहेगी, तभी हमारे आने वाली पीढ़ी इसके महत्व के बारे में समझ पाएंगे. उधर, टिहरी साम्राज्य के दुर्बल हथियारों और धरोहरों को देख लोग अभिभूत नजर आए.

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