प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि सार्वजनिक आदेश पुरानी शराब की तरह नहीं होते, वे समय के साथ बेहतर नहीं होते. सार्वजनिक आदेशों को स्पष्ट तर्क पर आधारित होना चाहिए. इसे बाद में स्पष्टीकरण द्वारा पूरक नहीं किया जा सकता. बिना ठोस कारणों या कानूनी ढांचे के पालन के ऐसे आदेश मान्य नहीं हो सकते.
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति राजीव मिश्र ने उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम 1970 के तहत गाजियाबाद निवासी वसीम के खिलाफ निर्वासन आदेश को रद्द करते हुए की. याची वसीम को अतिरिक्त पुलिस आयुक्त गाजियाबाद ने 6 अगस्त 2024 को जिला बदर का आदेश दिया था. इसे कमिश्नर मेरठ ने बरकरार रखा. आदेश में 2019 और 2021 में दर्ज आपराधिक मामलों में याची की संलिप्तता का हवाला देते हुए उसे छह महीने के लिए गाजियाबाद की क्षेत्रीय सीमाओं से प्रतिबंधित कर दिया गया था.
कोर्ट ने कहा कि किसी सार्वजनिक आदेश की वैधता का मूल्यांकन केवल उसमें उल्लिखित कारणों से किया जाना चाहिए. ऐसे आदेश वैधानिक प्राधिकरण के प्रयोग में बाद में दिए गए स्पष्टीकरणों के प्रकाश में नहीं किए जा सकते. कोर्ट ने कहा कि कभी-कभार किए गए अपराध भले ही गंभीर हों, किसी व्यक्ति को आदतन अपराधी के रूप में योग्य नहीं बनाते हैं. अधिकारी निर्वासन आदेश में पर्याप्त तर्क प्रदान करने में विफल रहे.
अतिरिक्त पुलिस आयुक्त ने केवल वसीम के आपराधिक इतिहास कर वर्णन किया और अचानक निष्कर्ष निकाला कि गाजियाबाद में उसकी उपस्थिति समाज के लिए अनुकूल नहीं थी. अपीलीय प्राधिकारी ने स्वतंत्र रूप से यह जांच किए बिना इस दृष्टिकोण की पुष्टि की कि क्या वसीम अधिनियम के तहत 'गुंडे' की कानूनी परिभाषा को पूरा करता है. इसी के साथ कोर्ट ने निर्वासन आदेश को प्रक्रियात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण और मूल रूप से अनुचित पाया. कोर्ट ने प्रारंभिक आदेश और अपीलीय पुष्टि को रद्द करते हुए कहा कि अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र का पूरी लगन से प्रयोग करने में विफल रहे.
ये भी पढ़ें- बेटा-बेटी की गवाही पर पिता को 10 साल कैद, प्रताड़ना से तंग पत्नी ने दे दी थी जान, जज ने की अहम टिप्पणी