हरिद्वार: श्राद्ध आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है. श्राद्ध पितरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का पर्व है. जो लोग पितरों का श्राद्ध करते हैं, उन्हें सभी सुख और भोग प्राप्त होते हैं. सनातन धर्म में ये मान्यता है कि मृत्यु के बाद उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है और वे पितृ दोष से भी मुक्त हो जाते हैं.
पितृ पक्ष में कीजिए नारायणी शिला के दर्शन: पितृ पक्ष शुरु हो गए हैं. इस महालय पक्ष में श्राद्ध कर्म करने से देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण से मुक्ति मिल जाती है. पितृ पक्ष में हरिद्वार के प्राचीन नारायणी शिला मंदिर में अपने पितरों का श्राद्ध करने वालों की भीड़ है. सभी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ अपने पितरों का श्राद्ध कर रहे हैं. उनकी मुक्ति की कामना कर रहे हैं.
ये है नारायणी शिला की कथा: वैसे भी श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म करने का हरिद्वार, गया और बदरीनाथ में विशेष महत्व माना जाता है. इसमें भी हरिद्वार में गंगा किनारे श्राद्ध कर्म का विशेष महत्व माना जाता है. पुराणों की मान्यता के अनुसार बदरीनाथ धाम से गयासुर नामक राक्षस अपनी मुक्ति के लिए शिला का हरण करके ले जा रहा था. नारायण भगवान के साथ युद्ध में शिला खंडित हो जाती है. इस शिला का नाभि का हिस्सा हरिद्वार में, सिर वाला हिस्सा बदरीनाथ में और निचला हिस्सा गया में गिरा था. हरिद्वार में जिस स्थान पर यह शिला का भाग गिरा था, उस स्थान को नारायणी शिला मंदिर के रूप में जाना जाता है. शिला के नीचे दबकर गयासुर की भी मौत हो गयी थी. तब भगवान ने आशीर्वाद दिया था कि जो कोई भी इन तीनों स्थान पर अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध कर्म करेगा तो उसे मुक्ति की प्राप्ति होगी.
पितरों के 16 दिन: पंडित मनोज त्रिपाठी का कहना है कि जो पितृ लोक कहलाता है, चंद्रमा का वो पृष्ठ भाग, सदैव अंधकार में रहता है. इस महालय पक्ष जो 16 दिन का पूर्णमासी से अमावस्या तक का होता है, उसमें हमारे पितृ हमारी श्रद्धा स्वीकार करने के लिए अपने वंशजों का सुखचैन देखने के लिए हमारे घर पधारते हैं. इन 16 दिनों के अंदर पितृ, हम लोग जो श्रद्धा पूर्वक उनके निमित्त कर्म करते हैं, जिसे श्राद्ध कहते हैं वह स्वीकार करते हैंं. हमको धन-धान्य, पुत्र-पौत्र आदि का आशीर्वाद देकर अपने पितृ लोक चले जाते हैं.
महालय का महत्व: इस 16 दिन के महालय पक्ष में व्यक्ति को अपने पितरों के निमित श्राद्ध कर्म करने की आज्ञा कही गई है. तिथि का ज्ञान होने पर तिथि पर किया जाता है और प्रतिपदा को कोई दिवंगत हुआ है तो प्रतिपदा को और अमावस्या पर कोई दिवंगत हुआ है तो अमावस्या को. अगर तिथियों का ज्ञान ना हो तो व्यक्ति अमावस्या के दिन अपने ज्ञात अज्ञात समस्त पितरों के निमित्त श्राद्ध कर्म कर सकता है. अन्यथा आदेश यही है कि तिथियों का ज्ञान होने पर तिथि पर ही श्राद्ध करें. किसी कारणवश व्यक्ति इन श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध नहीं करता है, तो श्राद्ध कल्प कहता है कि व्यक्ति के पितृ उसका खून पीते हैं और उसको श्राप देकर चले जाते हैं. अर्थात वह जीवन में इतना अधिक कष्ट पाता है कि उसको सुख का अभाव हो जाता है. इसीलिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए और अपनी जो सामर्थ्य है, उसके अनुसार करना चाहिए. किसी कारणवश सामर्थ्यहीन हो व्यक्ति तो भी श्रद्धापूर्वक गाय को भोजन करा दे, सूर्य को जल दे दे तो वह भी श्राद्ध रूप में स्वीकार हो जाता है.
पितरों की मुक्ति के लिए श्राद्ध जरूरी: नारायणी शिला मंदिर इस कार्य के लिए विशेष है, क्योंकि यहां पितरों की अधोगति से भी मुक्ति हो जाती है. किसी का पितृ क्षुद्र गति में है, पशु पक्षी बन गया है अथवा किसी प्रकार से कोई और अधोगति हो सकती है. वायु रूप है, प्रेत योनि में गया हुआ है तो नारायणी शिला मंदिर में श्राद्ध करने से वह पितृ योनी में में चला जाएगा. गया और बदरीकाश्रम आदि के फल भी उसको प्राप्त हो सकते हैं. तीन खंड में यह नारायण की शिला है. बदरीकाश्रम में भगवान नारायण का कपाल है, कंठ से लेकर नाभि तक का हिस्सा नारायणी शिला हरिद्वार में और चरण गया में जो विष्णुपद मंदिर कहलाता है.
हरिद्वार के विषय में नारायणी शिला के विषय में स्पष्ट वर्णित है, पुराणोक्त है कि हरिद्वारे पश्चिमीदिग भागे शिला, हरिद्वार के पश्चिम दिशा में नारायणी नाम की जो शिला है, उसके दर्शन मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं. यस्तत्र कुरुक्षेत्र श्रद्धाम, जो व्यक्ति यहां अपने पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करता है, वह अपने 100 पुत्र कुल, पिता और बाबा आदि और 100 मातृ कुल, नाना और नानी आदि के साथ स्वयं का मोक्ष कर लेता है. इसमें कोई संशय नहीं. यहां आकर अपने पितरों के निमित्त नारायण बलि, पिंड दान, तर्पण आदि करें और पितृ दोष से मुक्ति पाएं. यह 16 दिन का महालय पक्ष विशेष अनुग्रह देने वाला है जो लोग पूरे वर्ष अपने पितरों के निमित्त कुछ नहीं कर पाए इन 16 दिनों में अपने पितरों के निमित्त करें. जीवन में कोई कष्ट शेष नहीं रहेगा पितरों के आशीर्वाद से.
इसलिए करते हैं तर्पण: पुराणों में कहा गया है कि जब श्राद्ध पक्ष शुरू होते हैं, तब इस ग्रह योग में पितृलोक पृथ्वी के सबसे करीब होता है. इसीलिए पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण पितृ हमारे घर पहुंच जाते हैं. संसार में आया हुआ जो मानव वैदिक परंपरा से अपने पितरों को पिंड दान, तिलांजलि और ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं. माना जाता है कि अंगूठे में पितरों का वास होता है. इसीलिए तर्पण आदि कर्म करते वक्त अंगूठे से ही पिंड पर जलांजलि दी जाती है.
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