कोलकाता: ईस्टर्न मेट्रोपॉलिटन बाईपास कोलकाता के पूर्वी हिस्से से होकर गुजरता है और शहर के दक्षिणी हिस्से को उसके पूर्वी हिस्से से जोड़ता है. यहां मुख्य सड़क के किनारे कुछ भव्य संरचनाओं के बावजूद, भव्य युवा भारती क्रीड़ांगन (साल्ट लेक स्टेडियम) को देखना मुश्किल नहीं है. इस विशाल स्टेडियम में एक लाख से ज़्यादा दर्शकों बैठ सकते हैं और इसने शहर के कुछ सबसे बड़े खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की मेजबानी की है.
18 अगस्त को स्टेडियम ऐतिहासिक डूरंड कप के हिस्से के रूप में सौ साल पुराने कोलकाता डर्बी की मेजबानी के लिए तैयार था, जो एशिया का सबसे पुराना फुटबॉल टूर्नामेंट है, जहां चिर प्रतिद्वंद्वी मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के बीच मुकाबला होना था. टीमें तैयार थीं, खिलाड़ी तैयार थे, आयोजक तैयार थे, लेकिन प्रशासन तैयार नहीं था.
दरअसल, 14 अगस्त की रातको हिंसक भीड़ ने आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के अंदर जो उत्पात मचाया, उसे देखकर प्रशासन हिल गया. बता दें कि आरडजी मेडीकल कॉलेज में इस महीने की शुरुआत में एक 31 वर्षीय महिला लेडी डॉक्टर छात्रा के साथ रेप किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई.
ऐसे में ममता बनर्जी-प्रशासन को अच्छी तरह से पता था कि डर्बी मैच जैसी विशाल भीड़ सामूहिक रूप से पीड़िता के लिए न्याय मांगने का एक आदर्श मंच होगी, इसलिए प्रशासन ने आयोजकों से कहा कि वह उन्हें मैच के लिए सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता.
स्टेडियम के बाहर विरोध प्रदर्शन
बंगाल प्रशासन ने सोचा कि उसने पहला राउंड जीत लिया है, लेकिन अगले ही दिन दोनों क्लब के हजारों समर्थकों ने स्टेडियम के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. इसे रोकने लिए बड़ी तादाद में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए.ऐसे में सवाल उठा कि अगर सरकार उनके विरोध को रोकने के लिए इतनी बड़ी पुलिस टुकड़ी तैनात कर सकती है, तो स्टेडियम के अंदर सुरक्षा प्रदान करने में पुलिस सक्षम क्यों नहीं थी.
इसके साथ दोनों क्लब के बीच ऐसी एकता देखने को मिली, जो इससे पहले कभी नहीं देखी गई थी. विरोध प्रदर्शन में दो सदी पुराने फुटबॉल क्लबों के समर्थकों ने हाथ मिलाया और कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे, जबकि एक अन्य फुटबॉल प्रमुख मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब के समर्थकों ने आरजी कर चिकित्सक के लिए न्याय की मांग करते हुए उनका साथ दिया.
14-15 अगस्त की रात को बलात्कार और हत्या की शिकार महिला के लिए 'न्याय' की मांग करते हुए बंगाल भर में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए. कोलकाता में विशाल सभाएं हुईं. स्टेडियम के बाहर विरोध प्रदर्शन के साथ ही सवाल और भी तीखे हो गए, क्योंकि यह कॉलेज और विश्वविद्यालय परिसरों, अदालतों, आईटी केंद्रों, चिकित्सा संस्थानों या प्रदर्शन कला स्थानों और अब स्कूलों में भी पहुंच गया.
ममता बनर्जी से हुई चूक
बस यहीं पर ममता बनर्जी विफल रहीं. वह स्थिति की गंभीरता को समझ ही नहीं पाईं. 9 अगस्त को जब यह जघन्य अपराध प्रकाश में आया, तब से लेकर अब तक बंगाल सरकार कई बार चूकी है, जिससे यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि प्रशासन मामले को दबाने के लिए बेताब है.
लापरवाही, पारदर्शिता की कमी, जनाक्रोश को असंवेदनशील तरीके से संभालना, अपराध स्थल के पास अचानक से मरम्मत कार्य शुरू हो जाना, माता-पिता का अपनी बेटी के शव की एक झलक पाने के लिए इंतजार करना, शव को जलाने की होड़, 14 अगस्त की रात को अस्पताल के अंदर तोड़फोड़ को रोकने में पुलिस की विफलता, मीडिया और सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं पर आरोप लगाना और जांच में लापरवाही के खिलाफ सोशल मीडिया पर आलोचना करने वालों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई. ममता की नाकामी की यह सूची बस लंबी होती जा रही है.
डॉ संदीप घोष मामला
इस बीच आग में घी डालने का काम आरजी कर मेडिकल कॉलेज के संकटग्रस्त प्रिंसिपल डॉ संदीप घोष के मामले ने किया. घोष पर बलात्कार और हत्या के मामले को आत्महत्या का रूप देने की कोशिश करने का आरोप था. उनके खिलाफ भारी आक्रोश के चलते उन्होंने इस्तीफा दे दिया, लेकिन कुछ ही घंटों में उन्हें कलकत्ता नेशनल मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल का प्रिंसिपल फिर से नियुक्त कर दिया गया.
विरोध प्रदर्शनों के नए दौर और सीएनएमसीएच के छात्रों द्वारा उन्हें प्रवेश देने से मना करने के कारण सरकार को उनकी नई नियुक्ति रद्द करनी पड़ी. इससे पहले पिछले साल जून में भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद घोष को आरजी कर अस्पताल से मुर्शिदाबाद मेडिकल कॉलेज में स्थानांतरित कर दिया गया था, लेकिन तब भी वह एक पखवाड़े के भीतर ही वापस आ गए थे.
एक महीने बाद आरजी कर मेडिकल कॉलेज के उपाधीक्षक ने राज्य सतर्कता आयोग को पत्र लिखकर घोष पर अवैध रूप से बायोमेडिकल कचरा बेचने और कोविड फंड का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया. जांच शुरू की गई, लेकिन जांच के नतीजे कभी सामने नहीं आए.
पहली बार सीएम ममता के खिलाफ मिडिल क्लास
ममता सरकार के भीतर का यह 'सिंडिकेट राज' अब खत्म हो चुका है. 2011 के बाद पहली बार बंगाली मध्यम वर्ग ममता बनर्जी के खिलाफ सड़कों पर उतर आया है. बंगाल की मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि वह बलात्कार और हत्या के पीछे के लोगों के लिए मृत्युदंड चाहती हैं. उनके भतीजे और तृणमूल के नंबर 2 अभिषेक बनर्जी एक कदम आगे बढ़ गए हैं.
सोशल मीडिया पर हैदराबाद मॉडल के रूप में लोकप्रिय 2019 के पुलिस मुठभेड़ और एक महिला के बलात्कार और हत्या के आरोपी चार व्यक्तियों की हत्या के आधार पर, अभिषेक ने आरजी कर मेडिकल कॉलेज के अपराधी के लिए इसी तरह के फॉर्मूले की वकालत की है.
अब, यह त्वरित समाधान कुछ हद तक समझ में आता है अगर यह उत्तेजित और परेशान जनता से आया हो, लेकिन जब ऐसी बातें किसी राज्य के मुख्यमंत्री या किसी जिम्मेदार राजनीतिक नेता द्वारा कही जाती हैं, तो यह संविधान और न्यायपालिका के उनके आकलन के बारे में चिंता पैदा करता है. हकीकत में ममता और उनके भतीजे दोनों अपने खिलाफ जनता के गुस्से को दूर करने के लिए इतने बेताब थे कि वे इस अविश्वास को कॉल से नहीं कतराते. एकमात्र समस्या यह थी कि कोई भी इसे स्वीकार नहीं कर रहा था.
लोगों को लगता है कि आरजी कर बलात्कार और हत्या मामले में ममता बनर्जी जो कुछ भी कर रही हैं, वह मूल रूप से जिम्मेदारी से भागना है या राज्य अपने नागरिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है. यह तब और स्पष्ट हो गया जब हज़ारों लोगों ने इस मुद्दे पर राज्य सरकार की घुटने टेकने वाली प्रतिक्रिया की निंदा की और 'रत्तिरर साथी' यानी हेल्पर्स ऑफ द नाइट नामक एक कार्यक्रम आयोजित किया.
सरकार की आलोचना
इसके बाद जब पश्चिम बंगाल में काम करने वाले संगठनों को प्रशासनिक आदेश में कहा गया कि महिलाओं के लिए सुरक्षित क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए और महिलाओं के लिए रात की ड्यूटी से बचा जाना चाहिए, तो लोगों ने स्थिति के प्रति असंवेदनशीलता और महिला विरोधी दृष्टिकोण के लिए सरकार की आलोचना की.
इस समय एक सवाल बार-बार उठता है. अगर ममता बनर्जी की सरकार में 'सिंडिकेट राज' और भाई-भतीजावाद ने इस हद तक जड़ें जमा ली हैं कि लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए एक बलात्कार और हत्या के मामले की जरूरत है, तो फिर तृणमूल कांग्रेस बंगाल में लगातार चुनाव क्यों जीत रही है. 2011 में जब ममता ने 34 साल पुराने वाम मोर्चे को चुनाव से बाहर किया था, तब से वाम और कांग्रेस दोनों ही लगातार हार रहे हैं. भाजपा भी उनका मुकाबला नहीं कर पाई है.
लगातार जीत हासिल कर रही है टीएमसी
इस हैरान करने वाले सवाल का जवाब है, किसी विश्वसनीय विकल्प का अभाव. यही एकमात्र फैक्टर ममता को सत्ता में वापस लाता रहता है और संसद में विधायकों की अच्छी संख्या सुनिश्चित करता है. उन्होंने दो चीजों को सफलतापूर्वक मिलाकर बंगाल के सामने पेश किया है.
पहला यह कि वह भाजपा और 'सोनार बांग्ला' के बीच खड़ी एकमात्र व्यक्ति हैं और दूसरा, लक्ष्मी भंडार के रूप में उनके लोकलुभावन उपाय, महिलाओं के लिए नकद सहायता और इसी तरह की अन्य योजनाएं, जो सामाजिक स्तर और लिंग से परे हैं. लाभार्थियों ने कभी पीछे मुड़कर सवाल नहीं किया.
ममता को इस महीने की शुरुआत में अपने पड़ोस में जो कुछ हुआ, उस पर गौर करना चाहिए. बांग्लादेश ने उदारवादी शेख हसीना को हिंसक तरीके से उखाड़ फेंका है, जिन्होंने उस देश को राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता की पेशकश की थी और उन्हें अतिवादी जमात-ए-इस्लामी के खिलाफ खड़ा माना जाता था. इन सब बातों ने उन्हें अशांत राजनीति से हमेशा के लिए छूट नहीं दिलाई.
दशकों बाद पहली बार, ममता बनर्जी सड़कों पर बंगाली मूड और घृणा को पढ़ने में विफल रही हैं. उन्होंने 275 सदस्यीय विधानसभा में 235 सीटों की विशाल संख्या के साथ अजेय वाम मोर्चे को देखा है, जबकि 2006 में तृणमूल की 30 सीटें थीं. उन्हें बेहतर पता होना चाहिए कि संख्या और शोर अब मायने नहीं रखते.