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67 सालों से कोर्ट में चल रहा यह केस, अभी तक नहीं हुआ फैसला, जानें क्या है मामला

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Mar 13, 2024, 2:35 PM IST

Royalty Is Tax Or Not : किसी भी खदान संचालकों से ली जाने वाली रॉयल्टी टैक्स है या नहीं, और यदि यह टैक्स है, तो इसकी वसूली कौन करेगा, राज्य या केंद्र. इस मामले पर नौ जजों की एक बेंच सुनवाई कर रही है. यह मामला 1957 से ही चला आ रहा है. खान अधिनियम के अनुसार खनन पट्टा धारकों को पट्टे वाले क्षेत्र से किसी भी खनिज को हटाने या उपभोग करने के लिए रॉयल्टी का भुगतान करना होगा.

Supreme Court
सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में नौ जजों की पीठ ने खनिज अधिकारों से संबंधित कर लगाने वाले राज्य कानूनों की वैधता को लेकर सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट इस सवाल से संबंधित 80 से अधिक अपीलों की सुनवाई कर रहा है. कोर्ट के सामने मुख्य मुद्दा यह है कि क्या खनन पर ली जाने वाली रॉयल्टी एक टैक्स है और क्या राज्यों के पास इस तरह का टैक्स लगाने का संवैधानिक अधिकार है या नहीं.

खनन कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया है कि राज्य खनिज अधिकारों पर टैक्स नहीं लगा सकते, क्योंकि यह खनिज विकास से संबंधित है. इस पर बनाया जाने वाला कोई भी कानून विशेष रूप से केंद्र के लिए आरक्षित है.

कंपनियों की ओर से पेश होते हुए वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि यदि खनिज अधिकारों पर टैक्स लगाना खनिज विकास पर कानून की वास्तुकला के साथ असंगत हो जाता है, तो टैक्स लगाने की राज्य की शक्ति समाप्त हो जाती है.

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि क्या उनका यह तर्क कि संघ एकरूपता लाने के लिए खनिजों पर कर तय करता है, संविधान में निहित शक्ति के संघीय वितरण पर प्रभाव डालता है.

उन्होंने पूछा, कि कानून यह क्यों नहीं कहता कि यह वह टैक्स है, जो संघ वसूल करेगा और उस हद तक राज्य की शक्ति का हनन होगा या ऐसा कुछ ? आपको इसे अनुमान के आधार पर क्यों कहना होगा ? पीठ में जस्टिस हृषिकेश रॉय, अभय एस ओका, बीवी नागरत्ना, जेबी पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्ज्वल भुइयां, सतीश चंद्र शर्मा और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह भी शामिल थे.

साल 1957 से चल रहा केस
28 दिसंबर 1957 को, केंद्र सरकार ने खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम ('खान अधिनियम') लागू किया था. इसके तहत खानों और खनिजों का नियंत्रण संघ के दायरे में लाया गया. अधिनियम की धारा 9 में कहा गया है कि खनन पट्टा धारकों को पट्टे वाले क्षेत्र से किसी भी खनिज को हटाने या उपभोग करने के लिए रॉयल्टी का भुगतान करना होगा.

19 जुलाई 1963 को, तमिलनाडु सरकार ने चूना पत्थर और कंकड़ निकालने के लिए एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी इंडिया सीमेंट लिमिटेड को खनन पट्टा दिया. खान अधिनियम के तहत रॉयल्टी तय की गयी थी. इस बीच, राज्य विधान, मद्रास पंचायत अधिनियम, 1958 ('मद्रास अधिनियम') की धारा 115(1) के तहत, सरकार को भुगतान किए गए भू-राजस्व पर 45 पैसे प्रति रुपये की दर से प्रत्येक पंचायत में स्थानीय उपकर लगाया जाना था.

इंडिया सीमेंट ने इस प्रावधान को मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी और दावा किया कि तमिलनाडु सरकार के पास रॉयल्टी पर टैक्स लगाने की विधायी क्षमता का अभाव है. एकल न्यायाधीश पीठ ने माना कि मद्रास अधिनियम के तहत लगाया गया टैक्स भूमि पर एक टैक्स था, जिसे तमिलनाडु सरकार राज्य सूची की प्रविष्टि 49 के तहत लेने के लिए सक्षम थी. एक डिवीजन बेंच ने एकल न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि करते हुए कहा कि स्थानीय उपकर केवल भूमि पर लगाया गया शुल्क था.

इंडिया सीमेंट्स ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. उन्होंने तर्क दिया कि रॉयल्टी पर उपकर लगाना अनिवार्य रूप से रॉयल्टी पर एक टैक्स है और यह तमिलनाडु सरकार की विधायी क्षमता से परे है. तमिलनाडु सरकार ने तर्क दिया कि उपकर भूमि के संबंध में लगाया गया शुल्क था और राज्य सूची की प्रविष्टि 49, 50 या 45 के अंतर्गत आता है.

25 अक्टूबर 1989 को, इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि रॉयल्टी इनडायरेक्ट रूप से निकाले गए खनिजों से संबंधित थी. निर्णय में पाया गया कि खान अधिनियम के तहत रॉयल्टी एक टैक्स है. रॉयल्टी पर टैक्स के रूप में रॉयल्टी पर उपकर (टैक्स पर लगने वाले टैक्स) राज्य की लेजिस्लेटिव कैपेसिटी से परे था क्योंकि संघ का खान अधिनियम क्षेत्र को कवर करता है.

25 नवंबर 1992 को, केसोराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड (टेक्सटाइल्स डिवीजन) बनाम कोल इंडिया लिमिटेड मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच ने राज्य की विधायी क्षमता की कमी के कारण कोयले पर उपकर के रूप में कुछ लेवी को असंवैधानिक करार दिया था. वहां, पश्चिम बंगाल कर संशोधन कानून कोयला खदानों पर उपकर लगाने के लिए एक कानूनी व्यवस्था लाया था. ईंट मिट्टी के खनन और चाय बागान भूमि पर भी इसी तरह के उपकर लगाए गए थे. बेंच ने कहा कि पश्चिम बंगाल द्वारा लगाया गया सेस इंडिया सीमेंट्स में असंवैधानिक घोषित किए गए सेस के समान है.

फरवरी 1995 में, मध्य प्रदेश राज्य बनाम महालक्ष्मी फैब्रिक मिल्स लिमिटेड (1995) मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने खान अधिनियम की धारा 9 की संवैधानिकता को बरकरार रखा. मामले में उठाया गया एक महत्वपूर्ण विवाद यह था कि इंडिया सीमेंट्स में सात न्यायाधीशों की पीठ ने गलती से रॉयल्टी एक टैक्स है, लिख दिया था जबकि वास्तव में इसका अर्थ यह था कि रॉयल्टी पर उपकर एक टैक्स है. न्यायालय ने निर्णय लिया कि ऐसी कोई टाइपोग्राफिक गलती नहीं हुई है और निष्कर्ष "रॉयल्टी एक टैक्स है" तार्किक रूप से उस निर्णय से निकला है.

मई 1999 में, बिहार कोयला खनन क्षेत्र विकास प्राधिकरण (संशोधन) अधिनियम, 1992 को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी. इसने खनिज वाली भूमि से भूमि राजस्व पर अतिरिक्त उपकर और कर लगाया था. यह खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण बनाम भारतीय इस्पात प्राधिकरण नामक मामले की उत्पत्ति होगी, जो अंततः वर्तमान नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के निर्माण की ओर ले जाएगा. इस मामले में समानांतर सुनवाई शुरू होगी.

1 मार्च 2000 को, राम धनी सिंह बनाम कलेक्टर, सोनभद्र मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने यूपी की धारा 35 को बरकरार रखा. विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण अधिनियम, 1986 जो लघु खनिजों पर उपकर लगाता है.

2000 के दशक की शुरुआत तक, कलकत्ता और इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इन निर्णयों पर कई विशेष अनुमति याचिकाएं और रिट याचिकाएं सामने आई थीं.

15 जनवरी 2004 को, पश्चिम बंगाल राज्य बनाम केसोराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड ('केसोराम इंडस्ट्रीज') मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 3:2 के बहुमत से माना कि एक गंभीर, अनजाने" लिपिकीय गलती हुई थी. इंडिया सीमेंट्स के पाठ में. उसी मुद्दे पर दोबारा गौर करने के बाद, जिसका मूल्यांकन महालक्ष्मी फैब्रिक मिल्स ने नौ साल पहले किया था, बहुमत के फैसले में कहा गया कि बेंच ने गलती से लिखा था कि "रॉयल्टी एक टैक्स है" जबकि इसका अर्थ यह है कि रॉयल्टी पर उपकर एक टैक्स है. उन्होंने कहा कि इंडिया सीमेंट ने केस कानूनों पर भरोसा किया था जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि रॉयल्टी एक कर नहीं है.

न्यायालय ने दर्ज किया कि इस "टाइपोग्राफिक इरर" ने न्यायशास्त्र को अस्त-व्यस्त कर दिया है. उन्होंने स्पष्ट किया कि रॉयल्टी कोई टैक्स नहीं है, क्योंकि संपत्ति का निजी मालिक भी, जो टैक्स वसूलने का हकदार नहीं है, रॉयल्टी वसूल सकता है. उन्होंने तर्क दिया कि यह रॉयल्टी केवल पट्टेदार द्वारा किया गया खर्च और पट्टेदार की इनकम थी. बहुमत महालक्ष्मी फैब्रिक मिल्स से भी असहमत था, जिसने पहले माना था कि इंडिया सीमेंट्स में कोई मुद्रण संबंधी गलती नहीं हुई थी. खंडपीठ ने राम धनी सिंह मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकारों के पास विधायी क्षमता है.

केसोराम इंडस्ट्रीज में असहमतिपूर्ण राय में पाया गया कि खनिज अधिकारों का अनुदान केंद्र सरकार के खान अधिनियम द्वारा नियंत्रित किया गया था. राज्य सरकारों को खनिज अधिकारों पर कोई भी टैक्स लगाने से अस्वीकृत टैक्स दिया गया. इसने तर्क दिया कि संसद ने चाय और कोयले पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है क्योंकि वे "अत्यधिक महत्व के विषय" थे. इसने आगे कहा कि खनिज पर कराधान का क्षेत्र खान अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत आता है.

इस दौरान, बिहार में खनन मुद्दों पर समान रॉयल्टी से संबंधित खनिज विकास क्षेत्र प्राधिकरण का मामला मुकदमों के समूह में बदल गया था. 80 से अधिक मामले उस मामले से जुड़े होंगे. सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार इस मामले के जरिए इन सभी मामलों में लंबे समय से चले आ रहे विवादों को सुलझाने का फैसला किया है. 7 अप्रैल 2004 को, न्यायालय ने संवैधानिकता मूल्यांकन के "दूरगामी प्रभाव" को देखते हुए खनिज विकास क्षेत्र प्राधिकरण को तीन-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया.

27 मार्च 2006 को जस्टिस रूमा पाल ने खुद को मामले की सुनवाई से अलग कर लिया. 30 मार्च 2011 को, तीन जजों की बेंच जिसमें जस्टिस एस.एच. शामिल थे. कपाड़िया, के.एस. पणिक्कर राधाकृष्णन और स्वतंत्र कुमार ने कहा कि इंडिया सीमेंट्स और केसोराम इंडस्ट्रीज के फैसलों के बीच "प्रथम दृष्टया" टकराव था. उन्होंने मामले को नौ जजों की बेंच के पास भेज दिया. 7 अक्टूबर 2023 को, रजिस्ट्री ने सूचित किया कि खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण सहित चार नौ-न्यायाधीशों की पीठ के मामलों को मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के समक्ष निर्देश के लिए सूचीबद्ध किया गया.

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नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में नौ जजों की पीठ ने खनिज अधिकारों से संबंधित कर लगाने वाले राज्य कानूनों की वैधता को लेकर सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट इस सवाल से संबंधित 80 से अधिक अपीलों की सुनवाई कर रहा है. कोर्ट के सामने मुख्य मुद्दा यह है कि क्या खनन पर ली जाने वाली रॉयल्टी एक टैक्स है और क्या राज्यों के पास इस तरह का टैक्स लगाने का संवैधानिक अधिकार है या नहीं.

खनन कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया है कि राज्य खनिज अधिकारों पर टैक्स नहीं लगा सकते, क्योंकि यह खनिज विकास से संबंधित है. इस पर बनाया जाने वाला कोई भी कानून विशेष रूप से केंद्र के लिए आरक्षित है.

कंपनियों की ओर से पेश होते हुए वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि यदि खनिज अधिकारों पर टैक्स लगाना खनिज विकास पर कानून की वास्तुकला के साथ असंगत हो जाता है, तो टैक्स लगाने की राज्य की शक्ति समाप्त हो जाती है.

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि क्या उनका यह तर्क कि संघ एकरूपता लाने के लिए खनिजों पर कर तय करता है, संविधान में निहित शक्ति के संघीय वितरण पर प्रभाव डालता है.

उन्होंने पूछा, कि कानून यह क्यों नहीं कहता कि यह वह टैक्स है, जो संघ वसूल करेगा और उस हद तक राज्य की शक्ति का हनन होगा या ऐसा कुछ ? आपको इसे अनुमान के आधार पर क्यों कहना होगा ? पीठ में जस्टिस हृषिकेश रॉय, अभय एस ओका, बीवी नागरत्ना, जेबी पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्ज्वल भुइयां, सतीश चंद्र शर्मा और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह भी शामिल थे.

साल 1957 से चल रहा केस
28 दिसंबर 1957 को, केंद्र सरकार ने खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम ('खान अधिनियम') लागू किया था. इसके तहत खानों और खनिजों का नियंत्रण संघ के दायरे में लाया गया. अधिनियम की धारा 9 में कहा गया है कि खनन पट्टा धारकों को पट्टे वाले क्षेत्र से किसी भी खनिज को हटाने या उपभोग करने के लिए रॉयल्टी का भुगतान करना होगा.

19 जुलाई 1963 को, तमिलनाडु सरकार ने चूना पत्थर और कंकड़ निकालने के लिए एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी इंडिया सीमेंट लिमिटेड को खनन पट्टा दिया. खान अधिनियम के तहत रॉयल्टी तय की गयी थी. इस बीच, राज्य विधान, मद्रास पंचायत अधिनियम, 1958 ('मद्रास अधिनियम') की धारा 115(1) के तहत, सरकार को भुगतान किए गए भू-राजस्व पर 45 पैसे प्रति रुपये की दर से प्रत्येक पंचायत में स्थानीय उपकर लगाया जाना था.

इंडिया सीमेंट ने इस प्रावधान को मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी और दावा किया कि तमिलनाडु सरकार के पास रॉयल्टी पर टैक्स लगाने की विधायी क्षमता का अभाव है. एकल न्यायाधीश पीठ ने माना कि मद्रास अधिनियम के तहत लगाया गया टैक्स भूमि पर एक टैक्स था, जिसे तमिलनाडु सरकार राज्य सूची की प्रविष्टि 49 के तहत लेने के लिए सक्षम थी. एक डिवीजन बेंच ने एकल न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि करते हुए कहा कि स्थानीय उपकर केवल भूमि पर लगाया गया शुल्क था.

इंडिया सीमेंट्स ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. उन्होंने तर्क दिया कि रॉयल्टी पर उपकर लगाना अनिवार्य रूप से रॉयल्टी पर एक टैक्स है और यह तमिलनाडु सरकार की विधायी क्षमता से परे है. तमिलनाडु सरकार ने तर्क दिया कि उपकर भूमि के संबंध में लगाया गया शुल्क था और राज्य सूची की प्रविष्टि 49, 50 या 45 के अंतर्गत आता है.

25 अक्टूबर 1989 को, इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि रॉयल्टी इनडायरेक्ट रूप से निकाले गए खनिजों से संबंधित थी. निर्णय में पाया गया कि खान अधिनियम के तहत रॉयल्टी एक टैक्स है. रॉयल्टी पर टैक्स के रूप में रॉयल्टी पर उपकर (टैक्स पर लगने वाले टैक्स) राज्य की लेजिस्लेटिव कैपेसिटी से परे था क्योंकि संघ का खान अधिनियम क्षेत्र को कवर करता है.

25 नवंबर 1992 को, केसोराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड (टेक्सटाइल्स डिवीजन) बनाम कोल इंडिया लिमिटेड मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच ने राज्य की विधायी क्षमता की कमी के कारण कोयले पर उपकर के रूप में कुछ लेवी को असंवैधानिक करार दिया था. वहां, पश्चिम बंगाल कर संशोधन कानून कोयला खदानों पर उपकर लगाने के लिए एक कानूनी व्यवस्था लाया था. ईंट मिट्टी के खनन और चाय बागान भूमि पर भी इसी तरह के उपकर लगाए गए थे. बेंच ने कहा कि पश्चिम बंगाल द्वारा लगाया गया सेस इंडिया सीमेंट्स में असंवैधानिक घोषित किए गए सेस के समान है.

फरवरी 1995 में, मध्य प्रदेश राज्य बनाम महालक्ष्मी फैब्रिक मिल्स लिमिटेड (1995) मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने खान अधिनियम की धारा 9 की संवैधानिकता को बरकरार रखा. मामले में उठाया गया एक महत्वपूर्ण विवाद यह था कि इंडिया सीमेंट्स में सात न्यायाधीशों की पीठ ने गलती से रॉयल्टी एक टैक्स है, लिख दिया था जबकि वास्तव में इसका अर्थ यह था कि रॉयल्टी पर उपकर एक टैक्स है. न्यायालय ने निर्णय लिया कि ऐसी कोई टाइपोग्राफिक गलती नहीं हुई है और निष्कर्ष "रॉयल्टी एक टैक्स है" तार्किक रूप से उस निर्णय से निकला है.

मई 1999 में, बिहार कोयला खनन क्षेत्र विकास प्राधिकरण (संशोधन) अधिनियम, 1992 को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी. इसने खनिज वाली भूमि से भूमि राजस्व पर अतिरिक्त उपकर और कर लगाया था. यह खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण बनाम भारतीय इस्पात प्राधिकरण नामक मामले की उत्पत्ति होगी, जो अंततः वर्तमान नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के निर्माण की ओर ले जाएगा. इस मामले में समानांतर सुनवाई शुरू होगी.

1 मार्च 2000 को, राम धनी सिंह बनाम कलेक्टर, सोनभद्र मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने यूपी की धारा 35 को बरकरार रखा. विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण अधिनियम, 1986 जो लघु खनिजों पर उपकर लगाता है.

2000 के दशक की शुरुआत तक, कलकत्ता और इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इन निर्णयों पर कई विशेष अनुमति याचिकाएं और रिट याचिकाएं सामने आई थीं.

15 जनवरी 2004 को, पश्चिम बंगाल राज्य बनाम केसोराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड ('केसोराम इंडस्ट्रीज') मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 3:2 के बहुमत से माना कि एक गंभीर, अनजाने" लिपिकीय गलती हुई थी. इंडिया सीमेंट्स के पाठ में. उसी मुद्दे पर दोबारा गौर करने के बाद, जिसका मूल्यांकन महालक्ष्मी फैब्रिक मिल्स ने नौ साल पहले किया था, बहुमत के फैसले में कहा गया कि बेंच ने गलती से लिखा था कि "रॉयल्टी एक टैक्स है" जबकि इसका अर्थ यह है कि रॉयल्टी पर उपकर एक टैक्स है. उन्होंने कहा कि इंडिया सीमेंट ने केस कानूनों पर भरोसा किया था जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि रॉयल्टी एक कर नहीं है.

न्यायालय ने दर्ज किया कि इस "टाइपोग्राफिक इरर" ने न्यायशास्त्र को अस्त-व्यस्त कर दिया है. उन्होंने स्पष्ट किया कि रॉयल्टी कोई टैक्स नहीं है, क्योंकि संपत्ति का निजी मालिक भी, जो टैक्स वसूलने का हकदार नहीं है, रॉयल्टी वसूल सकता है. उन्होंने तर्क दिया कि यह रॉयल्टी केवल पट्टेदार द्वारा किया गया खर्च और पट्टेदार की इनकम थी. बहुमत महालक्ष्मी फैब्रिक मिल्स से भी असहमत था, जिसने पहले माना था कि इंडिया सीमेंट्स में कोई मुद्रण संबंधी गलती नहीं हुई थी. खंडपीठ ने राम धनी सिंह मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकारों के पास विधायी क्षमता है.

केसोराम इंडस्ट्रीज में असहमतिपूर्ण राय में पाया गया कि खनिज अधिकारों का अनुदान केंद्र सरकार के खान अधिनियम द्वारा नियंत्रित किया गया था. राज्य सरकारों को खनिज अधिकारों पर कोई भी टैक्स लगाने से अस्वीकृत टैक्स दिया गया. इसने तर्क दिया कि संसद ने चाय और कोयले पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है क्योंकि वे "अत्यधिक महत्व के विषय" थे. इसने आगे कहा कि खनिज पर कराधान का क्षेत्र खान अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत आता है.

इस दौरान, बिहार में खनन मुद्दों पर समान रॉयल्टी से संबंधित खनिज विकास क्षेत्र प्राधिकरण का मामला मुकदमों के समूह में बदल गया था. 80 से अधिक मामले उस मामले से जुड़े होंगे. सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार इस मामले के जरिए इन सभी मामलों में लंबे समय से चले आ रहे विवादों को सुलझाने का फैसला किया है. 7 अप्रैल 2004 को, न्यायालय ने संवैधानिकता मूल्यांकन के "दूरगामी प्रभाव" को देखते हुए खनिज विकास क्षेत्र प्राधिकरण को तीन-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया.

27 मार्च 2006 को जस्टिस रूमा पाल ने खुद को मामले की सुनवाई से अलग कर लिया. 30 मार्च 2011 को, तीन जजों की बेंच जिसमें जस्टिस एस.एच. शामिल थे. कपाड़िया, के.एस. पणिक्कर राधाकृष्णन और स्वतंत्र कुमार ने कहा कि इंडिया सीमेंट्स और केसोराम इंडस्ट्रीज के फैसलों के बीच "प्रथम दृष्टया" टकराव था. उन्होंने मामले को नौ जजों की बेंच के पास भेज दिया. 7 अक्टूबर 2023 को, रजिस्ट्री ने सूचित किया कि खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण सहित चार नौ-न्यायाधीशों की पीठ के मामलों को मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के समक्ष निर्देश के लिए सूचीबद्ध किया गया.

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