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एक हफ्ते तक क्यों मनाया जाता है कुल्लू दशहरा ? पढ़ें दिलचस्प कहानी

देशभर में दशहरा खत्म होने के बाद अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा शुरू होता है. इससे जुड़ा इतिहास, कहानी और परंपराएं बहुत ही खास हैं.

कुल्लू दशहरा
कुल्लू दशहरा (ETV BHARAT)
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By ETV Bharat Himachal Pradesh Team

Published : Oct 10, 2024, 5:32 PM IST

Updated : Oct 14, 2024, 12:23 PM IST

कुल्लू: देशभर में दशहरे का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन हिमाचल के कुल्लू का दशहरा पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध है. अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा कई मायनों में खास है. यहां दशहरें के दौरान ना रामलीला, होता है ना रावण, मेघनाथ, कुंभकरण के पुतले जलाए जाते हैं और ना ही आतिशबाजी होती है. इस दशहरे की कहानी और हिमाचल की देव परंपराएं इसे सबसे अलग और सबसे खास होती है.

दशहरा खत्म होने के बाद 7 दिन का कुल्लू दशहरा

ये इस दशहरे की सबसे खास बात है. देशभर में विजय दशमी या दशहरा खत्म होने के बाद कुल्लू का दशहरा शुरू होता है और एक हफ्ते तक चलता है. हर साल मनाया जाने वाला कुल्लू दशहरा अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि से शुरू होकर एक हफ्ते तक चलता है. इस बार कुल्लू दशहरे का आगाज 13 अक्टूबर को और समापन 19 अक्टूबर को होगा. ये दशहरा कुल्लू के मुख्य देवता भगवान रघुनाथ जी को समर्पित है.

कुल्लू दशहरे के दौरान रथयात्रा में शामिल देवताओं की पालकियां
कुल्लू दशहरे के दौरान रथयात्रा में शामिल देवताओं की पालकियां (फाइल फोटो)

7 दिन तक क्यों मनाते हैं दशहरा ?

दरअसल इस सवाल का जवाब भी रामायण में है. कुल्लू के रघुनाथ मंदिर के मुख्य छड़ीबरदार और पूर्व सांसद महेश्वर सिंह बताते हैं कि "दशहरा या विजय दशमी के दिन भगवान राम ने रावण को मारा लेकिन रावण की मृत्यु इस दिन नहीं हुई थी. कहते हैं कि विजयदशमी के दिन भगवान राम ने रावण की नाभि पर तीर मारा था और रावण की सेना पर जीत हासिल की थी. तब से लेकर पूरे भारत में विजयदशमी का त्योहार मनाया जाता है, लेकिन रावण की मृत्यु विजयदशमी के 7 दिन के बाद हुई थी. इसीलिए कुल्लू का विश्व प्रसिद्ध दशहरा 7 दिन तक मनाया जाता है."

रावण महान शिव भक्त होने के साथ-साथ महाज्ञानी और पंडित था. रावण को शास्त्रों से लेकर वेदों और राजनीति से लेकर संगीत तक का ज्ञान था. कहते हैं कि रावण जब मृत्यु शय्या पर था तो भगवान राम ने लक्ष्मण को शिक्षा लेने के लिए भेजा था. महेश्वर सिंह बताते हैं कि बाण लगने के बाद इन अंतिम 7 दिनों में ही लक्ष्मण ने रावण से शिक्षा ली थी.

364 साल से भी पुराना है इतिहास

इस साल कुल्लू दशहरे 364 साल का हो जाएगा. साल 1660 में पहली बार कुल्लू दशहरा मनाया गया था लेकिन इसके मनाने की वजह इससे भी कई साल पहले की है. तब इस कुल्लू में राजा जगत सिंह का राज हुआ करता था. 17वीं शताब्दी में कुल्लू दशहरे की शुरुआत करने का श्रेय भी राजा जगत सिंह को ही जाता है.

हिमाचल के मशहूर साहित्यकार डॉक्टर सूरत ठाकुर बताते हैं कि, 'बात 1637 की है. कुल्लू के राजा जगत सिंह से डरकर एक ब्राह्मण ने आत्महत्या कर ली थी. इससे राजा को ब्रह्म हत्या का दोष लगा. राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था. इस बीमारी से मुक्ति के लिए पयोहारी बाबा किशन दास ने राजा को सलाह दी कि वो अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्तियां लाएं. इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी. इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था.'

सबसे दिलचस्प कहानी

बताया जाता है कि दामोदर दास जब अयोध्या से मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो पीछा कर रहे अयोध्या के पुजारियों ने उन्हें पकड़ लिया और उनकी पिटाई के बाद उनसे मूर्तियां छीन लीं. जब अयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वो इतनी भारी हो गई कि कई लोग मिलकर भी इन मूर्तियों को नहीं उठा सके. वहीं जब इन्हें पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई. ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या के पुजारियों ने मूर्तियों को कुल्लू लाने दिया.

डॉक्टर सूरत ठाकुर का कहना है कि, 'कुल्लू में मौजूद भगवान रघुनाथ और माता सीता की मूर्तियों को भगवान रघुनाथ जी ने अश्वमेध यज्ञ के समय अपने हाथों से बनाया था. कहते हैं कि इन मूर्तियों के दर्शन के बाद राजा का रोग खत्म हो गया था. स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया और इस तरह से यहां दशहरे की शुरुआत हुई.'

अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति
अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति (फाइल फोटो)

लक्ष्मण नहीं लेकिन हनुमान साथ हैं

कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में भगवान रघुनाथ और सीता माता की मूर्तियां तो हैं लेकिन लक्ष्मण की मूर्ति यहां मौजूद नहीं है. बाद में मंदिर में जरूर हनुमान जी की मूर्ति को भी रखा गया है. मान्यता है कि रघुनाथ और सीता की मूर्ति को त्रेता युग में अश्वमेध यज्ञ के दौरान भगवान राम ने अपने हाथों से बनाया था. मान्यता है कि इस यज्ञ में पति-पत्नी को बैठना होता है लेकिन अश्वमेध यज्ञ के वक्त सीता माता वन में थी तो भगवान राम ने यज्ञ के लिए ये मूर्तियां बनाई थी.

साहित्यकार सूरत ठाकुर का कहना है कि, 'भगवान रघुनाथ के सम्मान में 1660 से दशहरा उत्सव का आयोजन किया जाने लगा. अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति को पालकी (रथ) में बिठाकर ढालपुर के रथ मैदान में लाया जाता है और उसके बाद भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा शुरू की जाती है. ऐसे में 7 दिनों तक भगवान रघुनाथ ढालपुर में अपने अस्थाई शिविर में विराजमान रहते हैं और हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शन करते हैं.'

350 देवी देवताओं को भेजा जाता है न्योता

कुल्लू दशहरा उत्सव हिमाचल की देव संस्कृति का प्रतीक है. कुल्लू घाटी के 350 से अधिक देवी देवताओं को निमंत्रण भेजा जाता है. कई सौ किलोमीटर से देवताओं के रथ कुल्लू के ढालपुर मैदान में पहुंचते हैं. भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह ने बताया कि, 'दशहरा उत्सव से पहले मेले में हिस्सा लेने आए देवी देवता भगवान रघुनाथ के दर्शनों के लिए मंदिर पहुंचते हैं. जहां पर देवी-देवताओं का नाम दर्ज किया जाता है और उसके बाद वह अपने-अपने अस्थाई शिविरों में विराजमान हो जाते हैं.'

हिमाचल को देवभूमि क्यों कहते हैं इसकी एक झलक कुल्लू दशहरे में भी मिल जाती है. इसे देवी देवताओं का वार्षिक सम्मेलन भी कहा जाता है. कुल्लू दशहरा हिमाचल की देव और लोक संस्कृति का प्रतीक है. इस दौरान सभी स्थानीय देवी-देवताओं का ढोल-नगाड़ों की धुनों पर देव मिलन होता है और सांस्कृतिक संध्याओं में स्थानीय और देश-विदेश की संस्कृति की झलक देखने को मिलती है.

दशहरे के दौरान निकाली गई रथ यात्रा
दशहरे के दौरान निकाली गई रथ यात्रा (फाइल फोटो)

माता हिडिंबा से है खास नाता

कुल्लू का राजपरिवार ही हर साल कुल्लू दशहरे के आगाज की औपचारिकताएं निभाता है. दशहरा भले त्रेता युग से जुड़ता है लेकिन कुल्लू दशहरे में द्वापर युग की झलक भी मिलती है. पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा माता कुल्लू आती हैं. हिडिंबा (महाभारत में भीम की पत्नी) कुल्लू राजघराने की कुलदेवी हैं. कुल्लू के प्रवेशद्वार पर उनका स्वागत किया जाता है और राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में उनका प्रवेश होता है. इसके उपरांत ढालपुर में मैदान में हिडिंबा का प्रवेश होता है. हिडिंबा देवी के आदेश के साथ ही कुल्लू दशहरे की शुरुआत होती है.

पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख लगता है कि सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं. इस दौरान रंग बिरंगी पालकियों (देवरथ) में सभी देवी देवताओं की मूर्तियों को रखा जाता है और रथ यात्रा निकाली जाती है.

स्थानीय निवासी विवेक शर्मा ने बताया कि, 'रथ यात्रा में सैकड़ों लोग शामिल होते हैं. कई बार पुलिस भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पाती. इस दौरान देवता धुंबल नाग अपनी शक्ति से भीड़ और ट्रैफिक को नियंत्रित करते हैं. उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं. रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा और लुभावना होता है और सारी रात लोगों का नाच गाना चलता है.'

यहां लंका दहन होता है लेकिन रावण दहन नहीं

कुल्लू दशहरे में ना रामलीला होती है और ना ही रावण दहन होता है लेकिन लंका दहन होता है. लेकिन कुल्लू दशहरे के लंका दहन का रावण की लंका जलाने जैसा कुछ नहीं होता. दशहरे के पहले दिन रथ यात्रा के साथ कुल्लू दशहरा शुरू होता है और भगवान रघुनाथ के रथ को ढालपुर मैदान के पास अस्थायी शिविर में लाया जाता है. दूसरे से लेकर छठे दिन राजा यानी भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह शाही जलेब में शामिल होकर शहर की परिक्रमा करते हैं. रघुनाथ जी के रथ के साथ कुल्लू घाटी के सभी देवी ढालपुर में ही अस्थायी शिविर में रहते हैं. कुल्लू दशहरा उत्सव में सातवें दिन लंका दहन किया जाता है. वहीं, लंका दहन के दिन निकलने वाली रथ यात्रा में माता हिडिंबा का रथ सबसे आगे चलता है. इस दिन माता को अष्टांग बलि दी जाती है. जैसे ही बलि की प्रथा पूरी होने को ही लंका दहन कहा जाता और इसके साथ ही माता का रथ वापस अपने देवालय की ओर लौट जाता है. इसके साथ ही दशहरा उत्सव का भी समापन हो जाता है.

कई देशों के सांस्कृतिक दल दशहरे में लेते हैं हिस्सा

ये दशहरे में हिमाचल की देव संस्कृति के साथ-साथ बीते कई सालों से दुनियाभर की संस्कृति की झलक भी दिखती है. अंतरराष्ट्रीय दर्जा प्राप्त होने के बाद हर साल कई दूसरे देशों से भी सांस्कृतिक दल यहां पहुंचते हैं. इस बार भी करीब 20 अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक दलों के हिस्सा लेने की उम्मीद है. अब तक रूस, श्रीलंका, अमेरिका, इंडोनेशिया और म्यांमार के सांस्कृतिक दलों ने इस आयोजन में भाग लेने की पुष्टि की है. इसके अलावा कई अन्य राज्यों के कलाकार भी कुल्लू दशहरे में हिस्सा लेने आते हैं. इस बार असम, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान और हरियाणा राज्य के कलाकार भी अपनी कला का प्रदर्शन करेंगे.

खुद हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू कुल्लू दशहरे की तैयारियों की समीक्षा ले चुके हैं. मुख्यमंत्री ने कहा है कि "अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में कई विदेशी राजदूतों के शामिल होने की भी उम्मीद है जिससे इस आयोजन की विश्व पटल पर छवि उभरेगी. 14 अक्टूबर को सांस्कृतिक परेड का आयोजन किया जाएगा और 19 अक्टूबर को कुल्लू कार्निवल होगा जिसमें विभिन्न सरकारी विभागों के कार्यक्रमों और उपलब्धियों को प्रदर्शित करने वाली झांकियां शामिल होंगी."

इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे को आकर्षक बनाने के लिए कबड्डी, वॉलीबॉल समेत कई अन्य खेल प्रतियोगिताएं भी होंगी. इस आयोजन को सफल बनाने के लिए कुल्लू प्रशासन से लेकर हिमाचल सरकार तक ने पूरी तैयारी की है. सुरक्षा के भी पुख्ता बंदोबस्त किए गए हैं. इस बार 300 होमगार्ड के साथ-साथ 870 पुलिसकर्मी तैनात किए जाएंगे.

1966 तक कुल्लू दशहरा को राज्य स्तर का दर्जा मिला

आजादी के बाद साल 1966 तक कुल्लू दशहरा को राज्य स्तर का दर्जा मिला और 1970 में अंतरराष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा की गई, लेकिन इसे मान्यता नहीं मिल पाई. ऐसे में साल 2017 में से अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया गया और इस देव महाकुंभ को देखने के लिए देश-विदेश से भी भारी संख्या में पर्यटक ढालपुर पहुंचते हैं. अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में साल 1990 के बाद दूसरे देश से भी कलाकारों का आना शुरू हुआ और बीते कई सालों से विदेशी कलाकार, मेहमान और पर्यटक यहां पहुंचते हैं. पिछले साल भी 15 से अधिक देशों के कलाकारों ने अपने प्रतिभा का किया था. कुल्लू दशहरे का व्यापारिक महत्व भी है. यहां स्थानीय व्यापारियों के साथ साथ देशभर के अन्य हिस्सों से आए व्यापारी भी भाग लेते हैं. इस दौरान लाखों करोड़ों का कारोबार होता है.

ये भी पढ़ें: जानें क्या है कुल्लू दशहरे में दो देवताओं के बीच धुर विवाद, सुप्रीम कोर्ट में है मामला

कुल्लू: देशभर में दशहरे का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन हिमाचल के कुल्लू का दशहरा पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध है. अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा कई मायनों में खास है. यहां दशहरें के दौरान ना रामलीला, होता है ना रावण, मेघनाथ, कुंभकरण के पुतले जलाए जाते हैं और ना ही आतिशबाजी होती है. इस दशहरे की कहानी और हिमाचल की देव परंपराएं इसे सबसे अलग और सबसे खास होती है.

दशहरा खत्म होने के बाद 7 दिन का कुल्लू दशहरा

ये इस दशहरे की सबसे खास बात है. देशभर में विजय दशमी या दशहरा खत्म होने के बाद कुल्लू का दशहरा शुरू होता है और एक हफ्ते तक चलता है. हर साल मनाया जाने वाला कुल्लू दशहरा अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि से शुरू होकर एक हफ्ते तक चलता है. इस बार कुल्लू दशहरे का आगाज 13 अक्टूबर को और समापन 19 अक्टूबर को होगा. ये दशहरा कुल्लू के मुख्य देवता भगवान रघुनाथ जी को समर्पित है.

कुल्लू दशहरे के दौरान रथयात्रा में शामिल देवताओं की पालकियां
कुल्लू दशहरे के दौरान रथयात्रा में शामिल देवताओं की पालकियां (फाइल फोटो)

7 दिन तक क्यों मनाते हैं दशहरा ?

दरअसल इस सवाल का जवाब भी रामायण में है. कुल्लू के रघुनाथ मंदिर के मुख्य छड़ीबरदार और पूर्व सांसद महेश्वर सिंह बताते हैं कि "दशहरा या विजय दशमी के दिन भगवान राम ने रावण को मारा लेकिन रावण की मृत्यु इस दिन नहीं हुई थी. कहते हैं कि विजयदशमी के दिन भगवान राम ने रावण की नाभि पर तीर मारा था और रावण की सेना पर जीत हासिल की थी. तब से लेकर पूरे भारत में विजयदशमी का त्योहार मनाया जाता है, लेकिन रावण की मृत्यु विजयदशमी के 7 दिन के बाद हुई थी. इसीलिए कुल्लू का विश्व प्रसिद्ध दशहरा 7 दिन तक मनाया जाता है."

रावण महान शिव भक्त होने के साथ-साथ महाज्ञानी और पंडित था. रावण को शास्त्रों से लेकर वेदों और राजनीति से लेकर संगीत तक का ज्ञान था. कहते हैं कि रावण जब मृत्यु शय्या पर था तो भगवान राम ने लक्ष्मण को शिक्षा लेने के लिए भेजा था. महेश्वर सिंह बताते हैं कि बाण लगने के बाद इन अंतिम 7 दिनों में ही लक्ष्मण ने रावण से शिक्षा ली थी.

364 साल से भी पुराना है इतिहास

इस साल कुल्लू दशहरे 364 साल का हो जाएगा. साल 1660 में पहली बार कुल्लू दशहरा मनाया गया था लेकिन इसके मनाने की वजह इससे भी कई साल पहले की है. तब इस कुल्लू में राजा जगत सिंह का राज हुआ करता था. 17वीं शताब्दी में कुल्लू दशहरे की शुरुआत करने का श्रेय भी राजा जगत सिंह को ही जाता है.

हिमाचल के मशहूर साहित्यकार डॉक्टर सूरत ठाकुर बताते हैं कि, 'बात 1637 की है. कुल्लू के राजा जगत सिंह से डरकर एक ब्राह्मण ने आत्महत्या कर ली थी. इससे राजा को ब्रह्म हत्या का दोष लगा. राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था. इस बीमारी से मुक्ति के लिए पयोहारी बाबा किशन दास ने राजा को सलाह दी कि वो अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्तियां लाएं. इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी. इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था.'

सबसे दिलचस्प कहानी

बताया जाता है कि दामोदर दास जब अयोध्या से मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो पीछा कर रहे अयोध्या के पुजारियों ने उन्हें पकड़ लिया और उनकी पिटाई के बाद उनसे मूर्तियां छीन लीं. जब अयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वो इतनी भारी हो गई कि कई लोग मिलकर भी इन मूर्तियों को नहीं उठा सके. वहीं जब इन्हें पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई. ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या के पुजारियों ने मूर्तियों को कुल्लू लाने दिया.

डॉक्टर सूरत ठाकुर का कहना है कि, 'कुल्लू में मौजूद भगवान रघुनाथ और माता सीता की मूर्तियों को भगवान रघुनाथ जी ने अश्वमेध यज्ञ के समय अपने हाथों से बनाया था. कहते हैं कि इन मूर्तियों के दर्शन के बाद राजा का रोग खत्म हो गया था. स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया और इस तरह से यहां दशहरे की शुरुआत हुई.'

अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति
अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति (फाइल फोटो)

लक्ष्मण नहीं लेकिन हनुमान साथ हैं

कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में भगवान रघुनाथ और सीता माता की मूर्तियां तो हैं लेकिन लक्ष्मण की मूर्ति यहां मौजूद नहीं है. बाद में मंदिर में जरूर हनुमान जी की मूर्ति को भी रखा गया है. मान्यता है कि रघुनाथ और सीता की मूर्ति को त्रेता युग में अश्वमेध यज्ञ के दौरान भगवान राम ने अपने हाथों से बनाया था. मान्यता है कि इस यज्ञ में पति-पत्नी को बैठना होता है लेकिन अश्वमेध यज्ञ के वक्त सीता माता वन में थी तो भगवान राम ने यज्ञ के लिए ये मूर्तियां बनाई थी.

साहित्यकार सूरत ठाकुर का कहना है कि, 'भगवान रघुनाथ के सम्मान में 1660 से दशहरा उत्सव का आयोजन किया जाने लगा. अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति को पालकी (रथ) में बिठाकर ढालपुर के रथ मैदान में लाया जाता है और उसके बाद भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा शुरू की जाती है. ऐसे में 7 दिनों तक भगवान रघुनाथ ढालपुर में अपने अस्थाई शिविर में विराजमान रहते हैं और हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शन करते हैं.'

350 देवी देवताओं को भेजा जाता है न्योता

कुल्लू दशहरा उत्सव हिमाचल की देव संस्कृति का प्रतीक है. कुल्लू घाटी के 350 से अधिक देवी देवताओं को निमंत्रण भेजा जाता है. कई सौ किलोमीटर से देवताओं के रथ कुल्लू के ढालपुर मैदान में पहुंचते हैं. भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह ने बताया कि, 'दशहरा उत्सव से पहले मेले में हिस्सा लेने आए देवी देवता भगवान रघुनाथ के दर्शनों के लिए मंदिर पहुंचते हैं. जहां पर देवी-देवताओं का नाम दर्ज किया जाता है और उसके बाद वह अपने-अपने अस्थाई शिविरों में विराजमान हो जाते हैं.'

हिमाचल को देवभूमि क्यों कहते हैं इसकी एक झलक कुल्लू दशहरे में भी मिल जाती है. इसे देवी देवताओं का वार्षिक सम्मेलन भी कहा जाता है. कुल्लू दशहरा हिमाचल की देव और लोक संस्कृति का प्रतीक है. इस दौरान सभी स्थानीय देवी-देवताओं का ढोल-नगाड़ों की धुनों पर देव मिलन होता है और सांस्कृतिक संध्याओं में स्थानीय और देश-विदेश की संस्कृति की झलक देखने को मिलती है.

दशहरे के दौरान निकाली गई रथ यात्रा
दशहरे के दौरान निकाली गई रथ यात्रा (फाइल फोटो)

माता हिडिंबा से है खास नाता

कुल्लू का राजपरिवार ही हर साल कुल्लू दशहरे के आगाज की औपचारिकताएं निभाता है. दशहरा भले त्रेता युग से जुड़ता है लेकिन कुल्लू दशहरे में द्वापर युग की झलक भी मिलती है. पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा माता कुल्लू आती हैं. हिडिंबा (महाभारत में भीम की पत्नी) कुल्लू राजघराने की कुलदेवी हैं. कुल्लू के प्रवेशद्वार पर उनका स्वागत किया जाता है और राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में उनका प्रवेश होता है. इसके उपरांत ढालपुर में मैदान में हिडिंबा का प्रवेश होता है. हिडिंबा देवी के आदेश के साथ ही कुल्लू दशहरे की शुरुआत होती है.

पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख लगता है कि सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं. इस दौरान रंग बिरंगी पालकियों (देवरथ) में सभी देवी देवताओं की मूर्तियों को रखा जाता है और रथ यात्रा निकाली जाती है.

स्थानीय निवासी विवेक शर्मा ने बताया कि, 'रथ यात्रा में सैकड़ों लोग शामिल होते हैं. कई बार पुलिस भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पाती. इस दौरान देवता धुंबल नाग अपनी शक्ति से भीड़ और ट्रैफिक को नियंत्रित करते हैं. उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं. रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा और लुभावना होता है और सारी रात लोगों का नाच गाना चलता है.'

यहां लंका दहन होता है लेकिन रावण दहन नहीं

कुल्लू दशहरे में ना रामलीला होती है और ना ही रावण दहन होता है लेकिन लंका दहन होता है. लेकिन कुल्लू दशहरे के लंका दहन का रावण की लंका जलाने जैसा कुछ नहीं होता. दशहरे के पहले दिन रथ यात्रा के साथ कुल्लू दशहरा शुरू होता है और भगवान रघुनाथ के रथ को ढालपुर मैदान के पास अस्थायी शिविर में लाया जाता है. दूसरे से लेकर छठे दिन राजा यानी भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह शाही जलेब में शामिल होकर शहर की परिक्रमा करते हैं. रघुनाथ जी के रथ के साथ कुल्लू घाटी के सभी देवी ढालपुर में ही अस्थायी शिविर में रहते हैं. कुल्लू दशहरा उत्सव में सातवें दिन लंका दहन किया जाता है. वहीं, लंका दहन के दिन निकलने वाली रथ यात्रा में माता हिडिंबा का रथ सबसे आगे चलता है. इस दिन माता को अष्टांग बलि दी जाती है. जैसे ही बलि की प्रथा पूरी होने को ही लंका दहन कहा जाता और इसके साथ ही माता का रथ वापस अपने देवालय की ओर लौट जाता है. इसके साथ ही दशहरा उत्सव का भी समापन हो जाता है.

कई देशों के सांस्कृतिक दल दशहरे में लेते हैं हिस्सा

ये दशहरे में हिमाचल की देव संस्कृति के साथ-साथ बीते कई सालों से दुनियाभर की संस्कृति की झलक भी दिखती है. अंतरराष्ट्रीय दर्जा प्राप्त होने के बाद हर साल कई दूसरे देशों से भी सांस्कृतिक दल यहां पहुंचते हैं. इस बार भी करीब 20 अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक दलों के हिस्सा लेने की उम्मीद है. अब तक रूस, श्रीलंका, अमेरिका, इंडोनेशिया और म्यांमार के सांस्कृतिक दलों ने इस आयोजन में भाग लेने की पुष्टि की है. इसके अलावा कई अन्य राज्यों के कलाकार भी कुल्लू दशहरे में हिस्सा लेने आते हैं. इस बार असम, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान और हरियाणा राज्य के कलाकार भी अपनी कला का प्रदर्शन करेंगे.

खुद हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू कुल्लू दशहरे की तैयारियों की समीक्षा ले चुके हैं. मुख्यमंत्री ने कहा है कि "अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में कई विदेशी राजदूतों के शामिल होने की भी उम्मीद है जिससे इस आयोजन की विश्व पटल पर छवि उभरेगी. 14 अक्टूबर को सांस्कृतिक परेड का आयोजन किया जाएगा और 19 अक्टूबर को कुल्लू कार्निवल होगा जिसमें विभिन्न सरकारी विभागों के कार्यक्रमों और उपलब्धियों को प्रदर्शित करने वाली झांकियां शामिल होंगी."

इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे को आकर्षक बनाने के लिए कबड्डी, वॉलीबॉल समेत कई अन्य खेल प्रतियोगिताएं भी होंगी. इस आयोजन को सफल बनाने के लिए कुल्लू प्रशासन से लेकर हिमाचल सरकार तक ने पूरी तैयारी की है. सुरक्षा के भी पुख्ता बंदोबस्त किए गए हैं. इस बार 300 होमगार्ड के साथ-साथ 870 पुलिसकर्मी तैनात किए जाएंगे.

1966 तक कुल्लू दशहरा को राज्य स्तर का दर्जा मिला

आजादी के बाद साल 1966 तक कुल्लू दशहरा को राज्य स्तर का दर्जा मिला और 1970 में अंतरराष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा की गई, लेकिन इसे मान्यता नहीं मिल पाई. ऐसे में साल 2017 में से अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया गया और इस देव महाकुंभ को देखने के लिए देश-विदेश से भी भारी संख्या में पर्यटक ढालपुर पहुंचते हैं. अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में साल 1990 के बाद दूसरे देश से भी कलाकारों का आना शुरू हुआ और बीते कई सालों से विदेशी कलाकार, मेहमान और पर्यटक यहां पहुंचते हैं. पिछले साल भी 15 से अधिक देशों के कलाकारों ने अपने प्रतिभा का किया था. कुल्लू दशहरे का व्यापारिक महत्व भी है. यहां स्थानीय व्यापारियों के साथ साथ देशभर के अन्य हिस्सों से आए व्यापारी भी भाग लेते हैं. इस दौरान लाखों करोड़ों का कारोबार होता है.

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Last Updated : Oct 14, 2024, 12:23 PM IST
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