धनबादः रहस्य है, आज भी ये रहस्य बना हुआ है कि आखिरी दिनों में उनके साथ क्या हुआ. उनका निधन कैसे हुआ, हादसा था या फिर किसी की साजिश या फिर उन्होंने खुद ही गुमनामी में रहने का फैसला लिया. कई दशक तक ऐसी बातें भी सामने आई कि जिसने दुनिया को जरूर चौंका दिया. ये कहानी भारत के एक ऐसे शख्स की है, जिनका जीवन किसी रहस्य से कम न था. आलम ऐसा है कि उनके आखिरी दिनों का राज आज भी रहस्य बना हुआ है. ये और कोई नहीं जंग-ए-आजादी के सिपाही नेताजी सुभाषचंद्र बोस हैं.
आवेश और आवेग की आभा लिए, गोल चश्मे के पीछे आंखों में भारत आजादी की मशाल लिए निकल चला वो शख्स भारत को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने के लिए. सिर्फ शांति और सत्याग्रहण नहीं आजाद हिंद फौज के साथ अंग्रेजी सेना को युद्ध के लिए ललकारा. गुलामी की बेड़ी में जकड़े देश के नौजावानों से कहा-तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा. दुनिया के एक कोने से युवाओं को ललकारा कि दिल्ली चलो.
क्या है आखिरी दिनों का रहस्य
नेताजी सुभाषचंद्र बोस देश की आजादी के लिए हरमुमकिन कोशिश करने में कभी पीछे नहीं रहे. राजनीतिक परिदृश्य हो, दल और संगठन की बात हो या फिर अंग्रेजों के साथ संग्राम की बात हो, इनमें से ऐसा कोई आग्रह न हो जिससे जुड़कर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में जुड़े रहने से पीछे रहे हो. अंग्रेजी शासन की नाक में दम करने वाले नेताजी हमेशा से गरम दल के पक्षधर रहे. कांग्रेस से अलग होने के बाद फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से नेताजी ने अपनी पार्टी बनाई और जुलाई 1940 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के हॉलवेट स्तंभ को ढहा दिया. इसके बाद अंग्रेजी सरकार ने सुभाषचंद्र बोस के साथ उनकी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक के कई नेताओं को कैद कर लिया गया.
गिरफ्तारी के बाद उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया. अनशन के कारण उनकी तबीयत बिगड़ गयी. जिस कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें घर में ही नजरबंद कर दिया और उनके घर के बाहर कड़ा पहरा बिठा दिया. इस शर्त पर उन्हें रिहा किया गया था कि उनके स्वस्थ होने पर दोबारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा. इसके बाद वो अपने आवास चले गये. आजादी के सिपाही को आखिर अंग्रेजी शासन कितने दिनों तक कैद रख पाती आखिर हुआ भी वही, जो नेताजी ने सोच रखा था. घर में नजरबंद से बच निकलने के लिये सुभाषचंद्र बोस ने एक योजना बनाई. 16 जनवरी 1941 को उन्होंने अंग्रेजी पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान का भेष बनाया और मोहम्मद जियाउद्दीन के नाम से अपने घर से निकले. नेताजी के भाई शरदचंद्र बोस के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर झारखंड के धनबाद जिले के गोमो तक पहुंचाया.
भारत के जिस कोने में नेताजी आखिरी बार नजर आए थे वो झारखंड के धनबाद का गोमो रेलवे स्टेशन था. नेताजी सुभाषचंद्र बोस 18 जनवरी की रात पठान के वेश में गोमो स्टेशन से ही पेशावर मेल से रवाना हुए थे. ये वही पेशावर मेल था, जिसे बाद कालका मेल और वर्तमान में नेताजी एक्सप्रेस के नाम से जाना जाता है. इसी ट्रेन में नेताजी अपने गंतव्य के लिए रवाना हुए. उनके इस यात्रा को निष्क्रमण यात्रा के रूप में याद किया जाता है. ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया था तो नेताजी ने भेष बदल कर भागने की योजना बनाई, उनकी इस रणनीति में उनके मित्र सत्यव्रत बनर्जी साथ थे. सत्यव्रत बनर्जी ने ही इसे महाभिनिष्क्रमण यात्रा का नाम दिया था.
2 जुलाई 1940 को हॉलवेल मूवमेंट के दौरान नेताजी को भारतीय रक्षा कानून की धारा 129 के तहत कोलकाता में गिरफ्तार किया गया था. प्रेसीडेंसी जेल में उन्होंने आमरण अनशन किया. जिससे उनकी तबीयत बिगड़ गयी, गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 5 दिसंबर 1940 को इस शर्त पर रिहा किया कि तबीयत ठीक होते ही उन्हें पुन: गिरफ्तार किया जा सकता है. यहां से रिहा होने के बाद एल्गिन रोड स्थित अपने आवास चले गये.
महाभिनिष्क्रमण की तैयारी
नेताजी के केस की सुनवाई 27 जनवरी 1941 को होनी थी लेकिन तब ब्रिटिश हुकूमत के होश उड़ गये, जब उन्हें 26 जनवरी को यह पता चला कि नेताजी तो कोलकाता में नहीं हैं. उन्हें खोज निकालने के लिए सिपाहियों को अलर्ट मैसेज भिजवाया गया लेकिन नेताजी ने तब तक अपने करीबी नजदीकी के सहयोग से महाभिनिष्क्रमण की तैयारी शुरू कर दी थी.
इस योजना के तहत नेताजी 16-17 जनवरी की रात लगभग एक बजे हुलिया बदलकर, कार में सवार होकर अपनी यात्रा पर कलकत्ता से निकल गये. इस योजना के अनुसार, नेताजी अपनी बेबी ऑस्टिन कार से गोमो पहुंचे थे. वह एक पठान के वेश में यहां पहुंचे थे. 18 जनवरी 1941 को पुराना कंबल ओढ़ कर नेताजी धनबाद के गोमो स्टेशन से हावड़ा-पेशावर मेल (वर्तमान में नेताजी मेल) पर सवार हुए. नेताजी सुभाषचंद्र बोस लोको बाजार में रुके थे और फिर वहां से पठान का भेष धारण कर स्टेशन पहुंचे थे.
वहीं, गोमो के लोको बाजार में स्थित अब्दुल्लाह कॉलोनी हाता में स्थित एक आवास में नेताजी कुछ देर के लिए रुके थे. इस आवास में रहने वाले एडवोकेट एसएन फकरुल्ला बताते हैं कि मेरे दादा एडवोकेट शेख अब्दुल्लाह फ्रीडम फाइटर के साथ ही नेताजी के अच्छे मित्र थे. आजादी के लिए वह साथ साथ लड़े, उनके नाम से ही यह कॉलोनी बना है. 18 जनवरी 1941 को शाम को करीब पांच छह बजे नेताजी यहां पहुंचे. नेताजी दादा से बोले में मुझे ट्रेन पकड़वा दीजिए, अंग्रेज मेरे पीछे लगे हुए हैं. उन्होंने बताया कि मेरे दादा की दर्जी, जिसका नाम अमीन था, उसे नेताजी को गोमो स्टेशन पर ट्रेन पर चढ़ाने के बोला, उनका टिकट पेशावर तक था, गोमो से पेशावर के लिए नेताजी रवाना हो गए. भारत की यही वो धरती थी जहां नेताजी सुभाषचंद्र बोस आखिरी बार नजर आए. इसके बाद वो भारत नजर नहीं आए थे. इसे बाद उनका जर्मनी, यूरोप और एशिया में प्रवास करते रहे.
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की याद में वर्ष 2000 की 17 जनवरी को तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा गोमो स्टेशन का नाम बदलकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस जंक्शन गोमो रखा गया. वहीं स्टेशन परिसर के प्लेटफॉर्म संख्या एक और दो के बीच नेताजी की कांस्य की प्रतिमा स्थापित की गई है. जहां रेल यात्री नेताजी की प्रतिमा को देखते हुए गोमो की धरती को नमन करते हैं. जहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अंतिम चरण इस धरती पर पड़ी थी.
नेताजी का जीवन परिचय
नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था. जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे. पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी. उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे. अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था. नेताजी की माता प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था. दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था. प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी जिसमें 6 पुत्री और 8 पुत्र थे. सुभाष उनकी नौवीं संतान और पांचवें बेटे थे. अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था. शरदचंद्र प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे.
आज भी है रहस्य
18 अगस्त 1945 को ताइवान के ताइपेई में उड़ान भरते समय एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. सुभाषचंद्र बोस इस एयरक्राफ्ट में सवार थे और वह थर्ड डिग्री बर्न के शिकार हो गए. वो कोमा में चले गए और रात 9 से 10 बजे के बीच उनका निधन हो गया. सुभाषचंद्र बोस के जीवित होने की खबरें कई बार आई हैं. कुछ लोगों का मानना है कि नेताजी गुमनामी बाबा के नाम से जाने वाले एक छद्म साधु के रूप में अभी भी जीवित हैं. सुभाषचंद्र बोस की मौत को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं.
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