पलामू: एक जमाना था जब बाघों के शिकार करने पर 25 रुपए का इनाम दिया जाता था और बाघ के चमड़ा के कारोबार का कोलकाता सबसे बड़ा केंद्र हुआ करता था. 29 जुलाई को वर्ल्ड टाइगर डे मनाया जा रहा है. पूरे विश्व में बाघों के संरक्षण के लिए अभियान चलाया जा रहा है और इनकी संख्या बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं.
हम अपनी खबर के माध्यम से आपको बता रहे हैं कि एक वक्त था जब बाघ का शिकार किया जाता था और उसके चमड़े का कारोबार होता. 1905 में अंग्रेजों ने सर्वे एंड सेटलमेंट गजट जारी किया था. इस सर्वे को डीएचआई सैंडर्स ने जारी किया था और इसे सैंडर्स रिपोर्ट भी कहा जाता है. इस रिपोर्ट में बाघों के शिकार एवं उससे जुड़े आंकड़ों का जिक्र था.
इस साल अब तक पलामू टाइगर रिजर्व के कैमरा ट्रैप में पांच बाघों के मौजूद होने की पुष्टि हुई है. पिछले साल यानी 2023 में यहां पर तीन बाघ होने की पुष्टि हुई थी. इससे पहले 2018 में नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी ने पलामू टाइगर रिजर्व इलाके में बाघों की संख्या शून्य बताई थी, जबकि इससे पहले 2005 में यहां पर 40 बाघ मौजूद होने का बात कही गई थी. 2000 में यह आंकड़ा 38 रिकॉर्ड किया गया था. 1986 में पलामू टाइगर रिजर्व इलाके में बाघों की संख्या का आंकड़ा 60 दर्ज किया गया था. 1974 में पूरे देश में एक साथ जो टाइगर रिजर्व का गठन किया गया था उनमें से एक पलामू टाइगर रिजर्व भी था.
नक्सलियों के कब्जे में था पीटीआर, कमजोर होने के बाद मिलने लगे बाघ
पलामू टाइगर रिजर्व इलाके में बाघों की संख्या लगातार कम हुई है. हालांकि 2023-24 में पिछले एक दशक के आंकड़ों में सबसे अधिक संख्या को रिकॉर्ड किया गया है. पलामू टाइगर रिजर्व नक्सलियों के रेड कॉरिडोर का हिस्सा रहा है. नक्सलियों का ट्रेनिंग सेंटर बुढ़ा पहाड़ भी पलामू टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है. तीन दशकों तक नक्सलियों का इलाके में कब्जा रहा, इस दौरान कई विस्फोट की घटना हुई है और दर्जनों बार मुठभेड़ हुई है.
किसी जमाने में यह इलाका गोली और विस्फोट की आवाज से गूंजता था. 2023-24 में पहली बार पलामू टाइगर रिजर्व के बूढ़ा पहाड़ से सटे हुए इलाकों में बाघों पर निगरानी के लिए ट्रैकिंग कैमरे लगाए गए थे. नक्सलियों के खौफ के कारण इलाके में ट्रैकिंग कैमरा नहीं लगाया जाता था. पिछले दो वर्षों में पलामू टाइगर रिजर्व में बाघों की मौजूदगी के जितने भी सबूत मिले हैं सभी बूढ़ा पहाड़ कॉरिडोर से जुड़े हुए हैं.
पीटीआर के लिए मवेशी है बड़ी चुनौती, 1.67 लाख मवेशी इलाके में है मौजूद
पलामू टाइगर रिजर्व 1129 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. जिसकी सीमा छत्तीसगढ़ के बलरामपुर और झारखंड के पलामू गढ़वा, लातेहार तक फैला हुआ है. पलामू टाइगर रिजर्व में 260 से भी अधिक गांव है. 2011 के जनगणना के अनुसार 1.67 लाख मवेशी है. यह मवेशी बाघों के लिए सबसे बड़ा खतरा है और उनके साथ बड़ी संख्या में ग्रामीण पलामू टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में दाखिल होते हैं. यह मवेशी पलामू टाइगर रिजर्व के ग्रास लैंड को नुकसान पहुंचाते हैं और वन्य जीव को पानी को संक्रमित कर देते हैं.
कैसे होती है बाघों की गिनती, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट डाटा का करता है अध्ययन
2014 से पहले बाघों की गिनती वैज्ञानिक तरीके से नहीं होती थी. बाघों के पद चिन्ह और उनके स्कैट को गिनती का आधार माना जाता. 2014 के बाद से बाघों की गिनती में वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाने लगा. इस दौरान बाघों के डाटा के अध्ययन के लिए ट्रैकिंग कैमरे लगाए जाने लगे, बाघों के स्कैट और उनके पद चिन्ह का सैंपलिंग वैज्ञानिक तरीके से किया जाने लगा. बाघों के शिकार और रहने वाले स्थान पर मल समेत अन्य सैंपल लिए जाने लगे. बाघों की गिनती के लिए डीएनए जांच भी शुरू हुई. जिसके बाद बाघों के आंकड़े में कमी आई. बाघों से जुड़े आंकड़े एवं डाटा का अध्ययन वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट देहरादून के द्वारा किया जाता है.
बाघ का कॉरिडोर
पलामू टाइगर रिजर्व- तिमोर पिंगला (छत्तीसगढ़)- संजय डुबरी टाइगर रिजर्व (छत्तीसगढ़)- बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व (मध्यप्रदेश)
बाघ के शिकार पर 25 रुपए का था इनाम, मजिस्ट्रेट के निगरानी में मिलती थी इनाम की राशि
1905 की रिपोर्ट में कहा गया था कि छोटानागपुर (वर्तमान में पलामू, गया, छत्तीसगढ़ का बलरामपुर एवं अन्य) संथाल परगना में बाघ के शिकार पर 25 रुपए का इनाम मिलता था. मजिस्ट्रेट की निगरानी में यह इनाम की राशि दी जाती थी और मजिस्ट्रेट बाघ के चमड़े को जब्त कर कोलकाता ले जाते थे. कोलकाता में 100 रुपए में चमड़े को बेचा जाता था. 1893 में 384, 1884 में 1023, 1895 में 1321, 1895 में 1972, 1897 में 1111 रुपए इनाम की राशि बांटी गई थी. 1905 के बाद स्थिति में बदलाव हुआ था. 1951 में जमींदारी प्रथा कानून होने के बाद बाघों के शिकार को लेकर नियम कानून बदल गए थे.
बाघों के शिकार को लेकर राजाओं ने बनाया था नियम, 1951 के बाद बढ़ गया था शिकार
भारत की आजादी से पहले बाघ के शिकार को लेकर राजाओं और जमींदारों ने एक नियम बनाया था. कोई भी राजा मादा बाघिन या उसके बच्चे का शिकार नहीं करता था. अगर गलती से किसी राजा ने इसका शिकार कर लिया तो उसे हीन भावना से देखा जाता. 1951 में सरकार ने राजाओं और जमींदारों से वन क्षेत्र ले लिया था. उसके बाद से शिकार के नियम बदल गए और बाघों के शिकार में बेतहाशा वृद्धि हुई थी. 1972 में वाइल्डलाइफ प्रोटक्शन एक्ट लागू किया गया जिसके बाद बाघों के शिकार को प्रतिबंधित कर दिया गया.
सैंडर्स की रिपोर्ट में साफ तौर पर लिखा है कि बाघों के शिकार पर 25 रुपए का इनाम दिया जाता था. 1991 में जमींदारी प्रथा खत्म हुई थी जिसके बाद बाघों के शिकार को लेकर नियम बदल गए और कोई भी व्यक्ति शिकार करने लगा था. इसका नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में बाघिन या बच्चे का भी शिकार हुआ.- प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव, वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट
बाघ खास महक से पहचानते है अपनी मांद, वर्षों तक मौजूद रहती है मांद की महक
बाघों की कई रोचक कहानियां हैं. बाघों में एक खास महक होती है जिसके माध्यम से वे अपनी मांद को पहचानते हैं. किसी मांद में एक बाघ रहता है और दशकों बाद भी कोई बाघ वहां पर पहुंचता है तो उसे इस बात का एहसास हो जाता है कि मांद को पहचान जाता है. प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि बांधों में सूंघने की क्षमता गजब की होती है. बाघ दशकों के बाद भी महक को पहचान लेते हैं.
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