नई दिल्लीः देश में चिकित्सा के क्षेत्र में नई-नई रिसर्च हो रही है ताकि मरीजों को हर बीमारी में बेहतर इलाज मिल सके. इसी क्रम में आईआईटी दिल्ली के टेक्सटाइल एवं फायर इंजीनियरिंग विभाग के एक पीएचडी रिसरचर और एक रिसर्च साइंटिस्ट ने मिलकर स्मार्ट सॉक्स बनाए हैं. ये स्मार्ट सॉक्स किसी व्यक्ति के चलने के तरीके का पहचान करके आर्थोपेडिक और न्यूरोलॉजिकल विकारों के बारे में जानकारी देते हैं.
- दिल्ली एम्स में न्यूरोलॉजी विभाग के डॉक्टरों की देखरेख में चल रहा है ट्रायल
- ट्रायल पूरा होते ही बाजार में लांच होंगे स्मार्ट शॉक्स
इस पूरे काम को टेक्सटाइल एवं फायर इंजीनियरिंग विभाग के चेयर प्रोफेसर अश्वनी कुमार अग्रवाल के सुपरविजन में पीएचडी शोधार्थी सूरज सिंह और रिसर्च साइंटिस्ट जोवनप्रीत सिंह ने किया है. ईटीवी भारत के साथ विशेष बातचीत में प्रोफेसर अश्विनी कुमार अग्रवाल ने इन स्मार्ट मोज़ों (शॉक्स) की क्षमताओं के बारे में विस्तार से बताया. उन्होंने बताया कि कैसे ये किसी व्यक्ति के चलने के तरीके का विश्लेषण करके आर्थोपेडिक और न्यूरोलॉजिकल विकारों के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करते हैं.
प्रो.अग्रवाल ने बताया कि अभी तक न्यूरोलॉजिस्ट और ऑर्थोपेडिशियन गेट मशीन के जरिए किसी भी न्यूरोलॉजी और ऑर्थोपेडिक समस्या से जूझ रहे मरीज के चलने के पैटर्न, उसकी चाल में सामान्य व्यक्ति से कितना अंतर है इसका पता लगाते हैं. उसकी बीमारी किस स्तर की है जिससे उसके चलने और दौड़ने पर असर हुआ है. इस सबकी जानकारी के लिए एक गेट मशीन का इस्तेमाल करते हैं. यह गेट मशीन काफी कीमती होती है और इसको लगाने के लिए काफी जगह की भी जरूरत होती है. करीब तीन या चार करोड़ की कीमत की यह मशीन देश के एक दो ही बड़े अस्पतालों में है. दिल्ली एम्स में भी यह मशीन उपलब्ध है. इतनी कम संख्या में मशीनें होने और न्यूरोलॉजी और ऑर्थोपेडिक के मरीजों की संख्या लाखों में होने के चलते डॉक्टर हर मरीज चलने के पैटर्न के बारे में गेट मशीन से जानकारी प्राप्त नहीं कर पाते हैं. जिन अस्पतालों में यह मशीन उपलब्ध है उनमें भीड़ के चलते मरीजों को लंबी-लंबी तारीखें मिलती हैं. इस समस्या को ध्यान में रखकर यह शॉक्स तैयार किए गए हैं.
प्रोफेसर अग्रवाल ने ये भी बताया कि यह एक तरीके से डायग्नोस्टिक टूल हैं. इसके माध्यम से हमारा यह प्रयास है कि जो भी काम गेट मशीन कर रही है. उसको हम इन शॉक्स के माध्यम से कर पाएं जिससे एक नॉर्मल न्यूरोलॉजिस्ट, ऑर्थोपेडिशियन और फिजीशियन भी इन शॉक्स के माध्यम से मरीजों की समस्या को चेक कर पाएं और उनको उचित इलाज मिल सके.
इस तरह काम करते हैं सॉक्स
इन सॉक्स को तैयार करने में शामिल रिसर्च साइंटिस्ट जोवनप्रीत सिंह ने बताया कि इन शोक्स में भी कपड़े का ही इस्तेमाल किया गया है. शोक्स के नीचे तीन से चार सेंसर लगाए गए हैं. जो व्यक्ति के चलने पर उसकी चाल को डिटेक्ट करते हैं. इन सॉक्स को गंदा होने पर धो भी सकते हैं. इससे भी सेंसर पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. 30-35 धुलाई तक ये सेंसर काम करते रहते हैं. उसके बाद इन्हें बदला जा सकता है. साथ ही इस डेटा को कलेक्ट करने के लिए शोक्स के ऊपर एक डिजिटल डिवाइस भी पहनना होता है. यह डिवाइस डेटा को कलेक्ट करके ब्लूटूथ के माध्यम से उसको फोन, लैपटॉप, डेस्कटॉप, टैबलेट या आईपैड में स्टोर कर सकते हैं. इन शोक्स के माध्यम से ट्रेडमिल पर भी वॉकिंग पैटर्न का डेटा लिया जा सकता है.
किस स्टेज में है स्मार्ट सॉक्स प्रोडक्ट?
प्रोफेसर अश्ननी कुमार अग्रवाल ने बताया कि हमारा प्रोडक्ट तैयार है. बस अब हम इसका दिल्ली एम्स के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डा. भावुक गर्ग की टीम के साथ ट्रायल करा रहे हैं, जिससे ये पता चल सके कि जो डेटा गेट मशीन से आ रहा है और जो स्मार्ट शॉक्स से आ रहा है वह सटीक है या नहीं. इसके लिए स्वस्थ लोगों और न्यूरोलॉजी व ऑर्थोपेडिक मरीजों दोनों के डेटा को गेट मशीन पर और स्मार्ट सॉक्स के साथ कलेक्ट किया जा रहा है. जब यह डेटा पूरी तरह मैच करेगा और यह सुनिश्चित हो जाएगा कि ये स्मार्ट सॉक्स जिस उद्देश्य के साथ बनाए गए हैं उस पर खरे उतर रहे हैं तब हम इनको बाजार में लाने के लिए कंपनियों से व्यावसायीकरण की बात करेंगे.
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