बेतिया: आज 2 अक्टूबर है. आज ही के दिन महात्मा गांधी की जयंती मनाई जाती है. बापू पहले सूट-बूट पहना करते थे. फिर एक समय आया, जब उन्होंने अपनी गुजराती पोशाक काठियावाड़ी पहनना शुरू किया. उसके बाद उन्होंने उसे भी त्याग दिया और मात्र एक धोती धारण कर लिया. एक धोती पहनकर उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बिता दी. आपको बताएंगे वैसी कहानी, जिस कारण महात्मा गांधी ने वस्त्र त्याग कर मात्र एक धोती के सहारे पूरा जीवन बिता दिया.
एक धोती से जिंदगी बिताने का प्रण: सवाल ये कि आखिर एक धोती पर पूरी जिंदगी बिताने के लिए उन्होंने क्यों इच्छा जाहिर की. इतिहास के पन्नों में महात्मा गांधी के वस्त्र पोशाक को लेकर कई कहानियां है. 16 नवंबर साल 1917, यह वह दिन था जिस दिन मोहनदास करमचंद गांधी गुजराती पोशाक काठियावाड़ी पहनकर चंपारण की धरती पर पहुंचे थे. उन्होंने चंपारण से सत्याग्रह की शुरुआत की थी. इसी चंपारण में कुछ ऐसा हुआ जिस कारण उनके मन में विचार आया की वह गुजराती पोशाक को छोड़ मात्र एक धोती पर अपनी जीवन व्यतीत करेंगे.
चंपारण ने गांधी को बदला: चंपारण के सत्याग्रही अनिरुद्ध प्रसाद चौरसिया बताते हैं कि महात्मा गांधी ने गौनाहा प्रखंड के भितिहरवा में 20 नवम्बर 1917 में आश्रम सह पाठशाला की स्थापना की. उसी दिन गांधी जी अपने साथ लाये दो शिक्षकों को यहां छोड़कर बेतिया हाजारीमल धर्मशाला में चले गए. 22 नवम्बर को विद्यालय का संचालन करने के लिए कस्तूरबा गांधी को उन्होंने यहां भेजा. उस दिन से लगातार 6 माह तक कस्तूरबा गांधी विद्यालय की संचालन करती रहीं और स्वच्छता और स्वालम्बन पर विशेष ध्यान देती रही.
कस्तूरबा गांधी का बड़ा योगदान: इस बीच कस्तूरबा गांधी वहां के गावों में भी भ्रमण करती रही. 28 नवम्बर 1917 को श्रीरामपुर, बलुआ, अमोलवा होते हुए राजकुमार शुक्ल के गांव मुरलीभरहवा पहुंची और वहीं पर गोपाल ठाकुर के घर पर रात्रि विश्राम की और वहां की महिलाओं को साफ सफाई का पाठ पढ़ाया. उन्हें साफ सफाई के लिए जागृत करती रही.
कस्तूरबा गांधी से महिला की मुलाकात: अगल-बगल के गांवों में भी बराबर भ्रमण कर जन चेतना जगाने का कार्य करती रहीं. इसी बीच एक दिन वहां के कोलडीह गांव में भ्रमण करने पहुंची. यहां पर गरीबों की बस्ती में एक ऐसी महिला से मुलकात हुई, जिसकी साड़ी काफी गंदी थी. उसको स्नान और साफ रहने के लिए प्रेरित की. कुछ दिनों के बाद पुनः कस्तूरबा गांधी कोलडीह गयी तो उस औरत को वही पुरानी साड़ी पहने हुए गंदे हालत में देखी. उन्होंने पूछा कि आपने क्यों नहीं अपनी साड़ी की सफाई की. उसके बाद वह महिला कस्तूरबा गांधी को अपने फूसनुमा घर में बुलाकर ले गई और बोली- ''आप खुद देख लीजिए मेरे पास दूसरी कोई साड़ी नहीं है. नदी भी गांव से काफी दूर है.''
जब अवाक रह गए गांधी: यह सुनकर कस्तूरबा गांधी आश्रम लौटीं और फिर यहां से वह बेतिया हजारीमल धर्मशाला में जाकर महात्मा गांधी से मिलीं और इस करुण कथा को सुनी. यह सुनकर महात्मा गांधी द्रवित हो उठे. उन्होंने कस्तूरबा गांधी से कहा "जो धोती मैंने अपने लिए बनवाया था, वह धोती ले जाकर उस महिला को दे दो. उन्होंने कहा कि मैंने इतना वस्त्र धारण किया है लेकिन आज भी इतनी गरीबी है कि एक साड़ी को वह महिला पहन रही है. बदलने के लिए दूसरी साड़ी नहीं है."
यहीं से महात्मा गांधी के मन में एक विचार आया. 22 सितंबर 1921 में उन्होंने ठान लिया और तय कर लिया कि अब वह एक ही वस्त्र पहनेंगे. बापू एक धोती में आधी को अपनी कमर में पहनते थे और आधी को अपने बदन पर ओढ़ लेते थे. इस तरह उन्होंने अपनी बाकी की जिंदगी एक धोती पहनकर ही काट ली.
सूट-बूट और काठियावाड़ी त्याग कर अपनाई धोती : महात्मा गांधी को लेकर पर हमारे मन मस्तिष्क में उनकी जो तस्वीर बनी है, उसमें वो सिर्फ एक छोटी धोती में दिखाई देते हैं. बता दें कि महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका में ही कर दी थी. फिर जब वो भारत आए तो एक नए नजरिए से सब कुछ देखने लगे. यहां बापू को भारतीय दिखना था. इसलिए अपनी काठियावाड़ी पोशाक को उन्होंने अपना लिया. फिर 1915 में महात्मा गांधी ने धोती और कुर्ता के साथ खास तरह की पगड़ी पहननी शुरू कर दी और साथ में गमछा भी रखने लगे. लेकिन बिहार के चंपारण की धरती ने उन्हें बदल दिया.
''1917 में जब महात्मा गांधी बिहार के चंपारण में आए तो यहां के हालात देखकर वह चौंक गए कि पूरे-पूरे परिवार के पास सिर्फ एक कपड़ा है. उसी को परिवार के सभी लोग जरूरत पड़ने पर बारी-बारी से पहनते हैं. लेकिन जब कस्तूरबा गांधी ने महात्मा गांधी को भीतिहरवा के कोलडीह गांव के महिला की कहानी सुनाइए तो उनका मन पूरी तरह से बदल गया और उन्होंने विचार किया कि कि अब मैं भी मात्र एक धोती पर पूरी जिंदगी बिताऊंगा.''- अनिरुद्ध प्रसाद चौरसिया, चंपारण सत्याग्रही
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