नई दिल्ली: केरल के 23 वर्षीय एक युवक ने दावा किया था कि उसका जन्म उसकी मां के विवाहेतर संबंध से हुआ है, क्योंकि उसकी मां एक अन्य व्यक्ति के साथ संबंध था. वह अपने जैविक पिता का पता लगाने के लिए उस व्यक्ति का डीएनए टेस्ट कराना चाहता था. हालांकि, व्यक्ति लगातार कहता रहा कि उसने युवक की मां के साथ कभी यौन संबंध नहीं बनाए. युवक ने केरल हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, लेकिन उसे शीर्ष अदालत से भी राहत नहीं मिली.
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने मंगलवार को इस जटिल मामले में फैसला सुनाया कि यह मानना सही नहीं है कि किसी व्यक्ति का अपने पिता को जानने का वैध हित किसी अन्य व्यक्ति के निजता और सम्मान के अधिकार के उल्लंघन से ऊपर है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि मात्र व्यभिचार (adultery) के आरोपों के आधार पर डीएनए परीक्षण का आदेश आखिरकार दूसरे व्यक्ति के सम्मान और निजता के अधिकार का उल्लंघन करेगा. अदालत ने फैसला सुनाया कि 23 वर्षीय युवक की मां का पूर्व पति उसका वैध पिता है.
23 वर्षीय युवक ने कहा कि वह कई स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहा है और उसने कई सर्जरी करवाई हैं, जिसका खर्च वह और उसकी मां नहीं उठा सकती हैं. वह याचिकाकर्ता से इस आधार पर भरण-पोषण चाहता है कि वह उसका जैविक पिता है.
जस्टिस कांत ने अपने निर्णय में कहा, "हितों का संतुलन डीएनए परीक्षण को अनिवार्य नहीं करता है, क्योंकि इससे याचिकाकर्ता और प्रतिवादी की मां पर गलत प्रभाव पड़ने की संभावना है. जिसके कारण, डीएनए परीक्षण की कोई 'महत्वपूर्ण आवश्यकता' नहीं है. यह साफ है कि हाईकोर्ट ने यह मान कर गलती की कि प्रतिवादी का अपने पिता को जानने का वैध हित अपीलकर्ता के निजता और सम्मान के अधिकार के उल्लंघन से अधिक महत्वपूर्ण है."
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक ओर, न्यायालयों को पक्षों के निजता और सम्मान के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, इसका मूल्यांकन करते हुए कि क्या उनमें से किसी एक को 'अवैध' घोषित किए जाने से सामाजिक कलंक उन्हें बड़ा नुकसान पहुंचाएगा. दूसरी ओर, न्यायालयों को बच्चे के अपने जैविक पिता को जानने के वैध हित का मूल्यांकन करना चाहिए और क्या डीएनए परीक्षण की कोई महत्वपूर्ण आवश्यकता है.
पीठ ने कहा, डीएनए परीक्षण के जरिये किसी व्यक्ति के पितृत्व (paternity) की जांच की इजाजत देते समय, अदालतों को निजता के उल्लंघन का भी ध्यान रखना चाहिए.
जस्टिस कांत ने कहा कि जबरन डीएनए परीक्षण कराने से व्यक्ति के निजी जीवन पर बाहरी दुनिया की नजर पड़ सकती है. उन्होंने कहा, "विशेष रूप से बेवफाई के मामलों में यह जांच कठोर हो सकती है और समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा और पदवी नष्ट कर सकती है. यह व्यक्ति के सामाजिक और पेशेवर जीवन के साथ-साथ उसके मानसिक स्वास्थ्य को भी अपरिवर्तनीय रूप से प्रभावित कर सकती है."
पीठ ने कहा कि इस वजह से व्यक्ति को अपनी गरिमा और निजता की रक्षा के लिए कुछ कदम उठाने का अधिकार है, जिसमें डीएनए परीक्षण से इनकार करना भी शामिल है.
पीठ ने कहा कि नाजायज संतान से जुड़े सामाजिक कलंक का असर माता-पिता के जीवन में भी पड़ता है क्योंकि कथित बेवफाई के कारण उन पर अनुचित जांच हो सकती है. पीठ ने कहा, "इस पृष्ठभूमि में अपीलकर्ता के निजता और सम्मान के अधिकार पर विचार किया जाना चाहिए."
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