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कभी 5 करोड़ से भी ज्यादा होती थी गिद्धों की आबादी, और अब इनकी घटती संख्या ने इंसानों को कर दिया परेशान - Declining Vulture Population - DECLINING VULTURE POPULATION

Declining Vulture Population : 1990 के आसपास भारत में गिद्धों की संख्या 5 करोड़ से अधिक थी. पशुओं के इलाज में काम आने वाली डाइक्लोफेनाक ने गिद्धों की आबादी को नष्ट कर दिया. गिद्धों का काम मृत जीवों को खाकर धरती को साफ-सुथरा रखना था. उनकी अनुपस्थिति में यह काम किसी अन्य जीव ने नहीं किया. इसका असर मानव जाति पर दिख रहा है. पढ़ें पूरी खबर.

absence of vultures Diseases are increasing
गिद्धों की कमी से बढ़ रही हैं बीमारियां (Getty Images)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Aug 1, 2024, 5:05 AM IST

हैदराबादः भारत में गिद्धों की संख्या में 1990 के दशक से भारी गिरावट आई है. वर्तमान समय में इसकी संख्या में गिरावट जारी है. स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स 2023 के अनुसार गिद्ध शिकारी पक्षी हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति पारिस्थिति तंत्र के लिए आवश्यक है. अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन जर्नल में गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण भारतीय नागरिकों पर प्रभाव का विस्तार से अध्ययन किया गया है. अध्ययन में पाया गया है कि गिद्धों के नहीं होने के कारण मृत पशुओं से पैदा होने वाले हानिकारक बैक्टीरिया की चपेट में आने से विभिन्न बीमारियों से बीते 5 सालों में 5 लाख लोगों की मौत हो गई.

1990 के दशक के पहले, गिद्ध भारतीय आसमान में सबसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले पक्षियों में से थे. फिर बिना किसी चेतावनी के 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में कई प्रजातियों की आबादी लगभग शून्य हो गई. किसी भी कशेरुकी (Vertebrates) में दर्ज की गई सबसे तेज गिरावट में से एक.

स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स ने कई शोध के आधार पर जानकारी साझा किया है कि : पशुओं के इलाज में उपयोग में आने वाली डाइक्लोफेनाक का उपयोग इसके लिए सबसे बड़ा कारक है. 2008 में भारत में डाइक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंधित कर दिया गया. इससे बची हुई गिद्ध आबादी के लिए कुछ उम्मीद जगी है.

सफेद-पूंछ वाले गिद्ध, भारतीय गिद्ध और लाल-पूंछ वाले गिद्धों में सबसे अधिक दीर्घकालिक गिरावट (क्रमशः 98 फीसदी, 95 फीसदी और 91 फीसदी) आई है. मिस्र के गिद्ध और प्रवासी ग्रिफॉन गिद्धों में भी काफी गिरावट आई है, लेकिन इतनी भयावह रूप से नहीं है. आज, गिद्धों की बची हुई आबादी संरक्षित क्षेत्रों में और उसके आस-पास पाई जाती है, जहां उनके आहार में (संभवतः दूषित) पशुधन की तुलना में मृत वन्यजीव अधिक होते हैं.

डाइक्लोफेनैक प्रतिबंध ने कुछ स्थानों पर गिद्धों की संख्या में कमी को धीमा कर दिया. रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि देश भर में गिद्धों की संख्या में गिरावट जारी है: भारतीय गिद्धों में हर साल 8 फीसदी से अधिक और लाल-पूंछ वाले और सफेद-पूंछ वाले गिद्धों में क्रमशः 5 फीसदी और 4 फीसदी से अधिक की गिरावट आ रही है. इस तरह की निरंतर गिरावट गिद्धों के लिए चल रहे खतरों का संकेत देती है, जो विशेष रूप से चिंता का विषय है क्योंकि गिद्धों की गिरावट ने मानव कल्याण को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.

क्यों खतरनाक है डाइक्लोफेनाक
विशेषज्ञों के अनुसार डाइक्लोफेनाक मवेशियों के इलाज के लिए गैर-स्टेरॉयडल दर्द निवारक दवाओं में से एक है. इस दवा से जिन पशुओं का इलाज किया जाता है, मरने के बाद उनके शव को जो भी पक्षी खाते हैं, उनका किडनी डैमेज हो जाता है. अंततः किडनी डैमेज से संबंधित पक्षियों की मौत हो जाती है. गिद्धों का मुख्य आहार मृत मवेशी है, इस कारण इसका सबसे ज्यादा असर गिद्धों की आबादी पर पड़ा.

गिद्धों के नहीं होने से इंसानों की हो रही है मौत

अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन जर्नल में शिकागो विश्वविद्यालय के हैरिस स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के सहायक प्रोफेसर इयाल फ्रैंक व उनके सह-लेखक अनंत सुदर्शन का एक लेख प्रकाशित हुआ है. लेख के अनुसार मरे हुए पशुओं से घातक बैक्टीरिया पैदा होता है. बीबीसी पर प्रोफेसर इयाल फ्रैंक सह-लेखक अनंत सुदर्शन के आलेख के आधार पर छपी रिपोर्ट के अनुसार पहले जहां मृत पशुओं के मांस को खाकर बैक्टीरिया पैदा होने वाली स्थितियों को रोक देते थे. वहीं गिद्धों की अनुपस्थिति में बैक्टीरिया का प्रसार तेजी से होता है. इस बैक्टीरिया के संक्रमण से बीते 5 साल में कई बीमारी से 5 लाख लोगों की मौत हो गई.

इयाल फ्रैंक कहते हैं, 'गिद्धों को प्रकृति की स्वच्छता सेवा माना जाता है क्योंकि वे हमारे पर्यावरण से बैक्टीरिया और रोगजनकों वाले मृत जानवरों को हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं - उनके बिना, बीमारी फैल सकती है.'

मानव स्वास्थ्य में गिद्धों की भूमिका को समझना वन्यजीवों की सुरक्षा के महत्व को रेखांकित करता है, न कि केवल प्यारे और लाड़ले जानवरों की. हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में उन सभी का एक काम है जो हमारे जीवन को प्रभावित करता है.

आलेख में आगे कहा गया है कि गिद्धों के पतन से पहले और बाद में, उन भारतीय जिलों में मानव मृत्यु दर की तुलना की, जो कभी गिद्धों से भरे हुए थे और उन जिलों में जहां गिद्धों की आबादी ऐतिहासिक रूप से कम थी. उन्होंने रेबीज वैक्सीन की बिक्री, जंगली कुत्तों की संख्या और जल आपूर्ति में रोगजनकों के स्तर की भी जांच की. आलेख में पाया गया कि सूजन-रोधी दवाओं की बिक्री बढ़ने और गिद्धों की आबादी कम होने के बाद, उन जिलों में मानव मृत्यु दर में 4 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई, जहां कभी गिद्धों की आबादी थी. शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि इसका प्रभाव बड़ी संख्या में पशुधन वाले शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक था, जहां शवों को फेंकना आम बात थी.

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असम में विलुप्त होने के कगार पर गिद्ध, बढ़ सकता है संक्रामक बीमारियों का खतरा - Declining Vulture Population

हैदराबादः भारत में गिद्धों की संख्या में 1990 के दशक से भारी गिरावट आई है. वर्तमान समय में इसकी संख्या में गिरावट जारी है. स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स 2023 के अनुसार गिद्ध शिकारी पक्षी हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति पारिस्थिति तंत्र के लिए आवश्यक है. अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन जर्नल में गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण भारतीय नागरिकों पर प्रभाव का विस्तार से अध्ययन किया गया है. अध्ययन में पाया गया है कि गिद्धों के नहीं होने के कारण मृत पशुओं से पैदा होने वाले हानिकारक बैक्टीरिया की चपेट में आने से विभिन्न बीमारियों से बीते 5 सालों में 5 लाख लोगों की मौत हो गई.

1990 के दशक के पहले, गिद्ध भारतीय आसमान में सबसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले पक्षियों में से थे. फिर बिना किसी चेतावनी के 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में कई प्रजातियों की आबादी लगभग शून्य हो गई. किसी भी कशेरुकी (Vertebrates) में दर्ज की गई सबसे तेज गिरावट में से एक.

स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स ने कई शोध के आधार पर जानकारी साझा किया है कि : पशुओं के इलाज में उपयोग में आने वाली डाइक्लोफेनाक का उपयोग इसके लिए सबसे बड़ा कारक है. 2008 में भारत में डाइक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंधित कर दिया गया. इससे बची हुई गिद्ध आबादी के लिए कुछ उम्मीद जगी है.

सफेद-पूंछ वाले गिद्ध, भारतीय गिद्ध और लाल-पूंछ वाले गिद्धों में सबसे अधिक दीर्घकालिक गिरावट (क्रमशः 98 फीसदी, 95 फीसदी और 91 फीसदी) आई है. मिस्र के गिद्ध और प्रवासी ग्रिफॉन गिद्धों में भी काफी गिरावट आई है, लेकिन इतनी भयावह रूप से नहीं है. आज, गिद्धों की बची हुई आबादी संरक्षित क्षेत्रों में और उसके आस-पास पाई जाती है, जहां उनके आहार में (संभवतः दूषित) पशुधन की तुलना में मृत वन्यजीव अधिक होते हैं.

डाइक्लोफेनैक प्रतिबंध ने कुछ स्थानों पर गिद्धों की संख्या में कमी को धीमा कर दिया. रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि देश भर में गिद्धों की संख्या में गिरावट जारी है: भारतीय गिद्धों में हर साल 8 फीसदी से अधिक और लाल-पूंछ वाले और सफेद-पूंछ वाले गिद्धों में क्रमशः 5 फीसदी और 4 फीसदी से अधिक की गिरावट आ रही है. इस तरह की निरंतर गिरावट गिद्धों के लिए चल रहे खतरों का संकेत देती है, जो विशेष रूप से चिंता का विषय है क्योंकि गिद्धों की गिरावट ने मानव कल्याण को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.

क्यों खतरनाक है डाइक्लोफेनाक
विशेषज्ञों के अनुसार डाइक्लोफेनाक मवेशियों के इलाज के लिए गैर-स्टेरॉयडल दर्द निवारक दवाओं में से एक है. इस दवा से जिन पशुओं का इलाज किया जाता है, मरने के बाद उनके शव को जो भी पक्षी खाते हैं, उनका किडनी डैमेज हो जाता है. अंततः किडनी डैमेज से संबंधित पक्षियों की मौत हो जाती है. गिद्धों का मुख्य आहार मृत मवेशी है, इस कारण इसका सबसे ज्यादा असर गिद्धों की आबादी पर पड़ा.

गिद्धों के नहीं होने से इंसानों की हो रही है मौत

अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन जर्नल में शिकागो विश्वविद्यालय के हैरिस स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के सहायक प्रोफेसर इयाल फ्रैंक व उनके सह-लेखक अनंत सुदर्शन का एक लेख प्रकाशित हुआ है. लेख के अनुसार मरे हुए पशुओं से घातक बैक्टीरिया पैदा होता है. बीबीसी पर प्रोफेसर इयाल फ्रैंक सह-लेखक अनंत सुदर्शन के आलेख के आधार पर छपी रिपोर्ट के अनुसार पहले जहां मृत पशुओं के मांस को खाकर बैक्टीरिया पैदा होने वाली स्थितियों को रोक देते थे. वहीं गिद्धों की अनुपस्थिति में बैक्टीरिया का प्रसार तेजी से होता है. इस बैक्टीरिया के संक्रमण से बीते 5 साल में कई बीमारी से 5 लाख लोगों की मौत हो गई.

इयाल फ्रैंक कहते हैं, 'गिद्धों को प्रकृति की स्वच्छता सेवा माना जाता है क्योंकि वे हमारे पर्यावरण से बैक्टीरिया और रोगजनकों वाले मृत जानवरों को हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं - उनके बिना, बीमारी फैल सकती है.'

मानव स्वास्थ्य में गिद्धों की भूमिका को समझना वन्यजीवों की सुरक्षा के महत्व को रेखांकित करता है, न कि केवल प्यारे और लाड़ले जानवरों की. हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में उन सभी का एक काम है जो हमारे जीवन को प्रभावित करता है.

आलेख में आगे कहा गया है कि गिद्धों के पतन से पहले और बाद में, उन भारतीय जिलों में मानव मृत्यु दर की तुलना की, जो कभी गिद्धों से भरे हुए थे और उन जिलों में जहां गिद्धों की आबादी ऐतिहासिक रूप से कम थी. उन्होंने रेबीज वैक्सीन की बिक्री, जंगली कुत्तों की संख्या और जल आपूर्ति में रोगजनकों के स्तर की भी जांच की. आलेख में पाया गया कि सूजन-रोधी दवाओं की बिक्री बढ़ने और गिद्धों की आबादी कम होने के बाद, उन जिलों में मानव मृत्यु दर में 4 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई, जहां कभी गिद्धों की आबादी थी. शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि इसका प्रभाव बड़ी संख्या में पशुधन वाले शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक था, जहां शवों को फेंकना आम बात थी.

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