नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अदालतों के लिए यह जरूरी है कि वे जमानत देते समय अनुपालन योग्य शर्तें रखें. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक विवाद में जब दंपत्ति अपने भावनात्मक मतभेदों को दूर करने की कोशिश कर रहे हों, तो ऐसी स्थिति में कठोर शर्त रखना न केवल जमानत पाने वाले को बल्कि दोनों को ही सम्मानजनक जीवन से वंचित करेगा. न्यायमूर्ति सी टी रविकुमार और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने शुक्रवार को दिए फैसले में एक कहावत 'कानून किसी व्यक्ति को ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं करता जो वह संभवतः नहीं कर सकता' का हवाला दिया.
पीठ की ओर से फैसला देते हुए न्यायमूर्ति रविकुमार ने कहा कि यह देखना दुखद है कि गिरफ्तारी से पहले जमानत के लिए कठोर शर्तें लगाने की प्रथा की निंदा करने वाले कई फैसलों के बावजूद ऐसे आदेश पारित किए जा रहे हैं. पीठ ने पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें वैवाहिक विवाद मामले में एक व्यक्ति को अग्रिम जमानत देते हुए अव्यवहारिक शर्त तय की गई थी.
पीठ ने कहा कि जैसा कि इस अदालत ने परवेज नूरदीन के मामले (2020) में कहा था, गिरफ्तारी से पहले जमानत देते समय शर्तें लगाने का अंतिम उद्देश्य आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करना है और इस प्रकार, अंततः निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करना और जांच प्रक्रिया का सुचारू प्रवाह सुनिश्चित करना है.
पीठ ने कहा, 'दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के मद्देनजर, जिनमें बहुत कठोर शर्तें लगाई गई हैं, विशेष रूप से उन मामलों में जो वैवाहिक मतभेद के अलावा और कुछ नहीं हैं. हम इस दृष्टिकोण को दोहराना चाहेंगे कि अदालतों को गिरफ्तारी-पूर्व जमानत दिए जाने योग्य पाए जाने पर जमानत देते समय शर्तें लगाने में बहुत सतर्क रहना चाहिए.'
न्यायमूर्ति रविकुमार ने कहा कि यह सावधानी से किया जाना चाहिए. खासकर तब जब संबंधित दंपत्ति जो तलाक की कार्यवाही में मुकदमा कर रहे हैं. पीठ ने कहा कि विवादित आदेश से पता चलता है कि जो पक्ष अलग होने वाले थे, उन्होंने पुनर्विचार किया और कटुता को दूर करने और फिर से एकजुट होने के लिए अपनी तत्परता दिखाई और अपीलकर्ता ने भी तलाक का मामला वापस लेने पर सहमति व्यक्त की.
पीठ ने कहा, 'किसी को इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि लड़का या लड़की, माता-पिता और भाई-बहनों के अलावा सगे-संबंधियों से भी बंधे होंगे और ऐसे बंधे हुए रिश्तों को केवल अपनेपन और अपने प्रति लगाव के कारण नहीं तोड़ा जा सकता, क्योंकि समान रिश्तों को भी उसी सौहार्द के साथ आगे बढ़ाया जाना चाहिए.'
न्यायमूर्ति रविकुमार ने इस बात पर जोर दिया कि दोनों परिवारों के सहयोग के बिना विवाह के माध्यम से संबंध पनप नहीं सकते, बल्कि नष्ट हो सकते हैं. उन्होंने कहा, 'इस मामले में जिस तरह की शर्तें रखी गई, उसमें एक व्यक्ति को एक हलफनामा देने की आवश्यकता होती है. इसमें एक वचनबद्धता के रूप में एक बयान होता है कि वह जीवनसाथी की शारीरिक और वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करेगा. ताकि वह अपीलकर्ता के किसी भी परिवार के सदस्य के हस्तक्षेप के बिना एक सम्मानजनक जीवन जी सके. इसे केवल एक पूरी तरह से असंभव और अव्यवहारिक शर्त के रूप में वर्णित किया जा सकता है.'
पीठ ने कहा कि पत्नी ऐसी शर्त का दुरुपयोग नहीं कर सकती, लेकिन इस तरह की छूट देना एक को दूसरे पर हावी बनाने के अलावा और कुछ नहीं है, जो किसी भी तरह से घरेलू जीवन में एक सुखद स्थिति बनाने के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य नहीं करता है. इसके विपरीत, ऐसी स्थितियाँ केवल प्रतिकूल परिणाम ही देंगी. इसमें कोई संदेह नहीं है कि वैवाहिक कलह के बाद पुनर्मिलन तभी संभव है जब पक्षों को आपसी सम्मान, आपसी प्रेम और स्नेह को पुनः प्राप्त करने के लिए अनुकूल स्थिति में रखा जाए.
पीठ ने कहा कि वैवाहिक मामलों से संबंधित मामलों के संबंध में शर्तें इस तरह से रखी जानी चाहिए कि जमानत पाने वाले और पीड़ित को खोया हुआ प्यार और स्नेह वापस मिल सके और वे शांतिपूर्ण घरेलू जीवन में वापस आ सकें. पीठ ने कहा कि इस मामले में पक्षों ने स्पष्ट रूप से एक साथ रहने की इच्छा व्यक्त की और इस संबंध में अपीलकर्ता-पति ने तलाक के मामले को वापस लेने की इच्छा व्यक्त की.