हैदराबाद: धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के लिए भारत के फैसले ने एक दशक पुराने वन-पार्टी रूल को तोड़ दिया है, और समावेशी और सहभागी शासन के लिए रास्ता तैयार किया है. यह एक ऐसा रास्ता है जहां सामूहिक विवेक का उपयोग करके निर्णय लिए जाते हैं. भारतीय इतिहास में अस्सी दिनों तक चली सबसे लंबी चुनावी प्रक्रिया ने भाजपा को उसकी कुल सीटों की संख्या के हिसाब से कमजोर कर दिया.
'आम सहमति बनाना जरूरी हो गया'
400 और उससे ज्यादा सीटों (अब की बार 400 पार) का सपना टूट गया. भाजपा को अब सरकार बनाने के लिए अपने एनडीए सहयोगियों पर निर्भर रहना होगा और जो भी निर्णय लिया जाएगा, उसके लिए सहयोगियों की सहमति की आवश्यकता होगी. मोदी निस्संदेह तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम करना जारी रखेंगे, लेकिन वे अपने विरोधियों पर हावी नहीं हो पाएंगे, जिसके लिए उन्हें अपने सहयोगियों से अनुमति लेनी होगी. वहीं, मोदी को पहली बार इस अनजान क्षेत्र में कदम रखना होगा. जैसै कि 2016 में 500 और 1000 रुपये के नोट बंद करने का फैसला तत्कालीन वित्त मंत्रालय में कई लोगों से सलाह मशविरा किए बिना लिया गया था. क्योंकि उस वक्त भाजपा बहुमत में थी और बहुमत में होने के कारण ऐसा कर सकती थी. वहीं उस वक्त अगर यह गठबंधन होता तो नोटबंदी का फैसला मुश्किल होता, क्योंकि इसके लिए गठबंधन सहयोगियों की सहमति की जरूरत होती.
'भाजपा की मूल विचारधारा पीछे छूट जाएगी'
भाजपा ने सत्ता में आने के बाद से ही देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को बदनाम करने वाले बयान देकर अपने ऑडियोलॉजिस्ट सपोर्ट के आधार को मजबूत किया है, जो कभी-कभी छोटा लेकिन आखिर में अधिक स्वच्छ होते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने एक रैली के दौरान पूरे समुदाय को 'घुसपैठिया' कहा था. जब तक नया गठबंधन जारी रहेगा, तब तक यह बात पीछे रह सकती है. इसके साथ ही पार्टी द्वारा पेश किए जाने वाले कहानी को धर्मनिरपेक्ष दिग्गज राजनेता चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों के साथ अच्छी तरह से प्रतिध्वनित होना होगा. आंध्र प्रदेश विधानसभा और लोकसभा में जीत हासिल करने के तुरंत बाद, नायडू ने विजयवाड़ा में मीडिया को संबोधित करते हुए एक बयान दिया था कि लोकतंत्र में एक मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए'. वह इस बात पर जोर दे रहे थे कि वह और उनकी पार्टी किस बात में विश्वास करते हैं.
'समावेशी, धर्मनिरपेक्ष नीतियों की ओर बदलाव'
इस बयान ने भारत की आलोचनात्मक आवाजो को राहत दी होगी. सभी गठबंधन सहयोगियों में से, नायडू के नेतृत्व वाली टीडीपी (तेलुगु देशम पार्टी) अपनी संख्या और भौगोलिक स्थिति के कारण निर्णायक स्थिति में है. कर्नाटक और तेलंगाना के बाद, आंध्र प्रदेश तीसरा राज्य है जिसने दक्षिण में भाजपा के लिए द्वार खोले हैं. इसलिए, भाजपा को सावधानी से कदम उठाने होंगे. चंद्रबाबू जैसे लोग कट्टरता, बहुसंख्यकवाद और उत्सुकता को स्वीकार नहीं करते. उम्मीद है कि सरकार की नीतियां फिर से समावेशी और धर्मनिरपेक्ष होंगी. पिछले दस वर्षों में आलोचनात्मक आवाजों को फटकार लगाई गई है. जिन्होंने साथ दिया उन्हें पुरस्कृत किया गया. वहीं, प्रफुल्ल पटेल और अजीत पवार जैसे लोगों को भाजपा में शामिल होने से पहले के आरोपों से मुक्त कर दिया गया. बता दें, पटेल के खिलाफ एयर इंडिया भ्रष्टाचार विरोधी मामला था जबकि अजीत पवार कथित तौर पर 25,000 करोड़ रुपये के घोटाले में शामिल थे.
कांग्रेस बनाम मोदी
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इस चुनाव में एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी. उसे अपने बैंक खाते फ्रीज होने तथा अपने दो सहयोगियों और मुख्यमंत्रियों को जेल जाने का दंश झेलना पड़ा. हालांकि, भाजपा के खिलाफ उनके निरंतर अभियान ने काफी हद तक उनके लिए काम किया. भाजपा अकेले नहीं चल सकती, उन्हें सरकार बनाने के लिए सहयोगियों की जरूरत है क्योंकि उनके पास संख्या नहीं है. जिसके बाद, कांग्रेस ने मजबूत नैरेटिव पेश किया. जिससे आम आदमी आसानी से इससे जुड़ सकता था और इससे उसे लाभ भी हुआ, जैसे कि महंगाई, बेरोजगारी और संविधान को खतरा, जिससे मोदी के हथियार कम प्रभावी हो गए.
सीएसडीएस के एक अध्ययन के अनुसार, 24 प्रतिशत लोगों ने मूल्य वृद्धि/मुद्रास्फीति पर नाखुशी दिखाई. 23 प्रतिशत लोग बेरोजगारी से नाखुश थे.
वहीं, मोदी का मानना था कि उन्हें अजेय बनाने वाला सबसे बड़ा हथियार राम मंदिर था, लेकिन वह भी भाजपा की अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं कर सका. बता दें, जनवरी में भी उन्होंने मतदाताओं की यादें ताजा रखने के लिए राम मंदिर का दौरा किया था. लेकिन उनकी यह तरकीब भी काम ना आई, इस चुनाव में अयोध्या में लोगों ने एक चौंकाने वाले फैसले दिया. लोगों ने BJP के मुकाबले समाजवादी पार्टी को चुना, जिसे उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का हमदर्द माना जाता है.
'भाजपा का अनुच्छेद 370 निरस्तीकरण का दावा'
एक और महत्वपूर्ण घटना जिसका जिक्र मोदी ने अपने अधिकांश भाषणों में किया, चुनावी रैलियों से पहले और उसके दौरान किया. वह बात थी अनुच्छेद 370 को हटाना. वास्तव में, उन्होंने चुनाव परिणामों के बाद भी इस मुद्दे को उठाया, और कश्मीर में अधिक मतदान कारण अनुच्छेद 370 को हटाए जाने को बताया . बता दें, बारामूला के लोगों ने सज्जाद लोन को वोट नहीं दिया, जो पीडीपी-भाजपा गठबंधन के दौरान भाजपा के मंत्री थे. जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी बारामूला ने नजरअंदाज कर दिया. अब्दुल्ला और लोन को करारा झटका देते हुए, मतदाताओं ने एक ऐसे नेता को चुना जो 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से अलगाववाद का समर्थन करने के आरोप में तिहाड़ जेल में बंद है.
वहीं, हिंदू दलित वोटों में कुल मिलाकर कमी आई, क्योंकि उन्हें लगता था कि संविधान बदलने से उनके लाभ प्रभावित हो सकते हैं. इसके विपरीत, कांग्रेस ने अनुच्छेद 370 जैसे संवेदनशील विषय को छुए बिना, भाजपा की 400 से अधिक सीटें हासिल करने की महत्वाकांक्षा के खिलाफ सतत अभियान चलाया.
'रणनीति में बदलाव'
कांग्रेस ने आम आदमी के रोजमर्रा के कामों से जुड़े मुद्दे भी उठाए. इसके विपरीत, भाजपा ने प्रत्येक चरण बीतने के बाद अपनी रणनीति बदली. पहले दो चरणों के दौरान, उसने कल्याणकारी योजनाओं के बारे में बात की, जिनसे उसे लाभ हुआ. विभाजनकारी बयान देने के बाद भी, बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भाजपा को वोट दिया. लगभग, आठ प्रतिशत मुसलमानों ने भाजपा को वोट दिया, क्योंकि उनका मानना था कि कल्याणकारी योजनाओं में धर्म नहीं देखा जाता है.
'एग्जिट पोल विफल'
एग्जिट पोल के नतीजे कांग्रेस के लिए अभियान को आगे बढ़ाने का जरिया बन गया, कांग्रेस अब इसका इस्तेमाल यह दिखाने के लिए कर रही है कि कैसे संस्थाओं को प्रभावित किया गया और उन पर दबाव बनाया गया. सभी एग्जिट पोल में भाजपा को भारी बहुमत के साथ वापसी करते हुए दिखाया गया. टीवी चैनल इन नतीजों से भरे हुए थे, चुनाव विश्लेषकों ने भी सर्वेक्षणों की वैधता को सटीक बताया था. लोकिन एक भी अध्ययन ने यह संकेत नहीं दिया कि भाजपा 272 के जादुई आंकड़े से नीचे है, जो सरकार बनाने के लिए आवश्यक है.
'वादे पूरे करने होंगे'
अब जबकि एनडीए तीसरी बार सरकार बना रहा है, यह देखना दिलचस्प होगा कि जब गठबंधन के साथी भाजपा से मोल-तोल करने के लिए अपनी मांग लेकर आएंगे तो स्थिति कैसी होगी. चुनावी रैलियों में किए गए वादों के मद्देनजर गठबंधन के साथी पहले कुछ मुद्दों पर चर्चा करना चाहेंगे. अग्निपथ योजना ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया है और दो गठबंधन सहयोगियों के बीच बहस भी शुरू हो गई है. जेडी (यू) इसे प्राथमिकता बता रहा है और एलजेपी (रामविलास) कह रही है कि इसे आगे बढ़ाने का अभी सही समय नहीं है. हालांकि अभी बहुत कुछ देखना बाकी है, लेकिन यह स्पष्ट है कि मजबूत विपक्ष और गठबंधन शासन से इस देश की प्रगति में तेजी आएगी.
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