वाराणसी: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में शैल गुफाओं का वैज्ञानिक अध्ययन किया है, जिसमें जनजातियों की चित्रकारी परंपरागत शोध किया गया है. इसमे पता चला, कि 5000 साल पहले लोग कैसे चित्रकारी से अभिव्यक्ति के घरों पर व्यक्त करते थे. बड़ी बात यह है, कि इस शोध में उस समय प्रयोग की जाने वाली रंगों के तकनीक का भी अध्ययन किया गया है, जहां से चौकाने वाले परिणाम सामने आए हैं.
जी हां! केंद्र सरकार भारतीय ज्ञान परंपरा को विकसित करने को लेकर तमाम योजनाएं बना रही है. इसके तहत बाकायदा अलग-अलग विश्वविद्यालय में भारतीय ज्ञान परंपरा के केंद्र पर स्थापित किए गए हैं, ताकि प्राचीन काल की परंपराओं को आगे बढ़ाया जा सके. इसी के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पुरातात्विक विभाग के जरिए कैमूर पर्वत श्रृंखलाओं पर शोध कर हजारों साल पुराने जनजातीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों की परंपरा, चित्रकारी से जुड़ी जानकारी पर अध्ययन किया जा रहा है. जिसमें 5000 साल पुराने चित्रकार परंपरा, रंगों का पता लगाया गया है.
BHU ने 5000 साल पहले शैल चित्रकारी का खोला राज: इस बारे में शोध में शामिल काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति और पुरातत्व विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर सचिन कुमार तिवारी ने बताया कि,BHU, आईआईटी और दिल्ली के शोध केंद्र मिलकर के इस शोध काम को पूरा कर रहे हैं.इसके तहत केंद्र सरकार की ओर से फंडिंग की गई है.उन्होंने बताया कि, सामान्य तौर पर देखा जाता है कि, शैल पर्वतों पर जो चित्रकार की जाती है वह मुख्यतः हेमेटाइट पत्थर से की जाती है. लेकिन, कैमूर पर्वत श्रृंखला में सोनभद्र में अध्ययन के दौरान पहली बार यह जानकारी सामने आई की हेमेटाइट के साथ लेटराइट पत्थर का भी उपयोग कर लाल रंगों को बनाकर उससे चित्रकारी की गई हैं, जो परतदार चट्टानों पर आज भी साक्ष्य के रूप में मौजूद है.इसके साथ ही इस बात की भी जानकारी मिली है कि, उस समय यहां के शैल चित्रकारी कैसी थी.
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फूलों से भी बनता था रंग: आगे डॉक्टर तिवारी बताते हैं कि, ये जानकारी उत्तर प्रदेश में कैमूर पर्वत श्रृंखला के सोनभद्र,मिर्जापुर,चंदौली, और बिहार के अधौर इलाके में शैल गुफाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके एकत्रित की गई है.इन क्षेत्रों में रहने वाले बैगा, भील जनजातियों के यहां भी आधुनिक चित्रकार के परंपरा आज भी दिखाई देती है.वही शोध में डॉक्टर तिवारी के साथ अध्ययन कर रही धरनी कुमार बताती है कि, हमने इस शोध का जब वैज्ञानिक अध्ययन किया तो जानकारी मिली कि उस समय चित्रों को बनाने में कुसुम और अन्य जंगली पौधों का प्रयोग किया गया है,जिसमें मंजूस्था का पौधा भी शामिल है.इसके जरिए पीला या अन्य कलर बनाकर के पेंटिंग की गई है.
आज मौजूद है चित्र: उन्होंने बताया कि उस समय वैज्ञानिक अध्ययन में डाई तकनीक का भी साक्ष्य मिलता है, जिससे इस बात की ओर भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे समय भी टेक्सटाइल में डाई पद्धति का प्रयोग किया जाता था, जो वर्तमान आज के समय में भी मौजूद है. उन्होंने बताया कि इन चित्रकारी में शिकार करते लोग जानवर,पेड़ पौधे वह अलग-अलग मनुष्यों की आकृतियों को दर्शाया गया है जो आज भी नजर आते हैं.
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