धेमाजी: असम में धेमाजी जिले के भरालीचुक गांव के एक टीचर ने पत्थर के टुकड़े, प्लास्टिक और लकड़ी के टुकड़े से आकर्षक मूर्तियां तैयार करने का एक नायाब तरीका ढूंढा है. इससे उनकी पहचान के साथ-साथ गांव का भी नाम रोशन हो रहा है. अब इन मूर्तियां के बनाने के ऑर्डर आने लगे हैं.
भरालीचुक गांव के नंबर 2 के एक निजी स्कूल के शिक्षक प्रबीर गोगोई एक दशक से भी अधिक समय से ऐसी ही रचनात्मक सोच के साथ ऐसी ही रचनात्मक कला कृतियों में व्यस्त हैं. ऐसी रचनात्मकता से जुड़े गोगोई ने 2012 से अब तक 70 से अधिक मूर्तियां बनाई हैं. उन्हें अपने गृह नगर धेमाजी के अलावा कई स्थानों पर भी भेजा है.
जैसे ही उसे नए ऑर्डर मिलते हैं, वह घर के आंगन में दिन-रात व्यस्त हो जाते हैं. अपने ग्राहकों के लिए बनाई गई हर कृति को नया आकार देने का आनंद लेता हैं. इसलिए जब कोई उसके घर आता है तो वह बुद्ध की मूर्तियों से लेकर शंकरदेव की मूर्तियों जैसी कलाकृतियों को आसानी से देख सकता है जो उसकी साख और प्रतिभा को प्रदर्शित करती हैं.
ईटीवी भारत से बात करते हुए प्रबीर गोगोई ने कहा, 'मैंने 2012 में काम करना शुरू किया. मैंने सबसे पहले नाटक सीखा. गुवाहाटी के कलाक्षेत्र में एक नाटक कार्यशाला करते समय, मुझे मुखौटे की कला से परिचित कराया गया. मैंने वहां से सीखा और घर लौटने पर कुछ नया बनाने के उद्देश्य से इस शिल्प को शुरू किया, जो दूसरों को पसंद आए. मैंने डॉ. पुष्पा गोगोई, असीम दत्ता, रजनी हांडिक, सूर्या बरुआ जैसे धेमाजी की कलाकृति से जुड़ी कुछ प्रमुख हस्तियों से प्रेरणा लेकर अपनी यात्रा शुरू की.'
उन्होंने पूर्व की बातों को याद किया, 'लॉकडाउन के दौरान मैंने चार कंक्रीट ड्रेगन बनाए जो धेमाजी के ऐतिहासिक घुघुहा डोल में बनाए गए थे. अब तक 70 से अधिक विभिन्न थीम पर मॉडल बनाए जा चुके हैं.'
अपनी खुशी जाहिर करते हुए गोगोई ने कहा, 'यह एक रचनात्मक काम है. इसलिए इसका समाज पर प्रभाव पड़ेगा. चीजें बनते देखकर अलग-अलग लोग और पड़ोसी आते हैं और आपके काम की सराहना करते हैं. इससे संतुष्टि मिलती है. इसका समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.'
मूर्तिकारों के लिए बाजार की कमी
गोगोई ने बताया कि धेमाजी में केवल कुछ ही कलाकार हैं जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है. लेकिन बाजार और प्रदर्शन की कमी के कारण उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. उन्होंने कहा, 'धेमाजी में अभी तक कोई उचित बाजार नहीं है. धेमाजी में अभी तक ऐसा बाजार नहीं बना है जिससे कलाकृतियों को उचित मूल्य मिल सके. धीरे-धीरे परिदृश्य विकसित हो रहा है. अलग-अलग लोग इस पेशे को अपनाने लगे हैं. लेकिन इसे विकसित होने में समय लगेगा.'