बेरीनाग:प्रदेश में कुमाऊं अंचल में आज 'खतड़ुवा' पर्व मनाया जा रहा है. यह पर्व भादों यानी भाद्रपद के महीने में (17 सितंबर को) मनाया जाता है. 'खतड़ुवा' पर्व (Khatduwa festival) पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व है. कुछ राजनीतिक व्यक्तियों और बंटवारे की भावना वाले लोगों ने इस त्यौहार के साथ कई तरह के किस्से जोड़ दिये हैं. कोई कहता है कि इस लोक पर्व पर सरकार ने वोट बैंक के लिए पाबंदी लगा दी है. जिससे इस पर्व को मनाने का मूल उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है. इस त्योहार को मनाने के अनेक वैज्ञानिक और प्राकृतिक कारण भी हैं.
इसे राजनीतिक रूप एवं क्षेत्रीय आधार से ना देखते हुए पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले जन मानस की वार्षिक गौशाला 'गोठ' व्यवस्था की लोक परंपरा के रूप में भी देखा जा सकता है. खतड़ुवा शब्द की उत्पत्ति 'खातड़' या 'खातड़ि' शब्द से हुई है, जिसका पर्वतीय भाषा में अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े.
गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य अधिकतर 17 सितंबर) से पहाड़ों में जाड़ा (ठंड) धीरे-धीरे शुरू हो जाता है. यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं. इस तरह यह लोक पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी है.
प्रसिद्ध काश्तकार हरीश पंत बताते हैं कि इस दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं. पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है और उन्हें अच्छे पकवान बनाकर खिलाया जाता है. इस दिन पहाड़ों में परंपरा अनुसार भोजन बनाते समय 'तवा' नहीं लगाते. पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है. शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है, इसलिये 'खतड़ुवा' के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है.
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कुमाऊं में महिलाएं शाम के समय खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करती हैं. पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल (खतड़ुवा) को बार-बार घुमाया जाता है, जिससे गोशाला के कीटाणु भी खत्म हों और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को सभी दुख-बीमारी से सदैव दूर रखें.
गांव के बच्चे और नौजवान किसी ऊंची जगह पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं. गौशाला के अन्दर से मशाल (खतड़ुवा) लेकर महिलाएं भी इस चौराहे पर पहुंचती हैं और इस लकड़ियों के ढेर में अपने अपने घरों के 'खतड़ुवा' समर्पित किये जाते हैं. गांव के एक ऊंचे स्थान पर लकड़ी के ढेर को पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानकर 'बूढ़ी' जलायी जाती है. यह 'बूढ़ी' गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानी जाती है, जिनमें (खुरपका और मुंहपका) मुख्य हैं.