बेरीनागः आज शहीद हवलदार बहादुर सिंह बोहरा की 14वीं पुण्यतिथि है. आज ही के दिन यानी 26 सितंबर 2018 को जम्मू कश्मीर के गांदरबल जिले में आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे. बहादुर सिंह भारतीय सेना के 10वीं बटालियन, पैराशूट रेजिमेंट के जवान थे. बहादुर सिंह बोहरा पिथौरागढ़ जिले के एकमात्र अशोक चक्र विजेता जवान हैं. उन्हें मरणोपरांत यह सम्मान दिया गया था.
शहीद हवलदार बहादुर सिंह बोहरा (Martyr Jawan Bahadur Singh) पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग तहसील के रावलखेत गांव के रहने वाले थे. बहादुर सिंह बोहरा जिले के एकमात्र अशोक चक्र विजेता हैं. 26 जनवरी 2009 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उनकी पत्नी को अशोक चक्र से सम्मानित किया था. उन्होंने जम्मू कश्मीर में जांबाजी का परिचय देते हुए पांच आतंकियों को मौत के घाट उतारा था. उनका बचपन काफी संघर्षशील रहा था.
बहादुर सिंह बोहरा के पैतृक रावलखेत गांव में पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है. जहां अधिकतर भूमि पथरीली व पठारी है. गांव में धान, मंडुवा, भट्ट, गेहूं, जौ के अलावा अन्य फसलें पर्वतीय जलवायु के अनुसार पैदा होती है. इसी गांव में 5 अक्टूबर 1977 को रावलखेत गांव के तोक गागर के निवासी गोविंद सिंह बोहरा और देवकी देवी के घर में बहादुर सिंह बोहरा का जन्म हुआ था.
बहादुर सिंह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. उनके पिता गोविंद सिंह बोहरा केंद्र सरकार में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. केंद्र सरकार के कर्मचारी होने के कारण उनके पिता घर से बाहर ही रहते थे. ऐसे में घर और गृहस्थी को संभालने का जिम्मेदारी बहादुर सिंह की माता देवकी देवी के कंधों में रहती थी.
बहादुर सिंह चाहे कितनी ज्यादा विषम परिस्थितियां हों, वो हमेशा प्रसन्नचित्त अवस्था में रहते थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की प्राथमिक पाठशाला में हुई थी. कक्षा पांच के बाद तारा इंटर कॉलेज तामानौली में आगे की पढ़ाई की. स्कूल दूर था और जंगलों से होकर गुजरना पड़ता था. ऐसे में जंगली जानवरों के हमले का डर भी सताता था. जिससे बचने के लिए सभी एक साथ मिलकर स्कूल जाते थे.
इतना ही नहीं बहादुर सिंह समेत अन्य बच्चे सूर्य उदय से पहले अंधेरे में ही छ्यूला (चीड़ की लकड़ी का अति ज्वलनशील भाग) को जलाकर स्कूल जाते थे. जंगल का मार्ग होने के कारण कई बार गुलदार भी दिख जाता था, लेकिन उनके हाथों में जलती मशाल देखकर गुलदार आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं करता था. इसी तरह कई प्रकार की कठिनाइयों और विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई की.
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बहादुर सिंह के परिवार में ताऊ और चाचा सैनिक पृष्ठभूमि से थे. ऐसे में उनके सैनिक जीवन की बहादुरी से भरी घटनाओं को वो उत्सुकता से सुनते थे. ऐसे में उन्होंने भी सेना में जाने का सपना देखा. वो पहाड़ की पतली और पथरीली पगदंडियों में दौड़ का अभ्यास करते थे. बहादुर सिंह सेना की भर्ती प्रक्रिया में शारीरिक परीक्षण में सफल हो जाते थे, लेकिन मेडिकल में असफल हो जाते थे. क्योंकि उनके पांव के तलवे समतल थे.
बहादुर सिंह सेना भर्ती के मेडिकल में असफल होने के कारण कुछ समय तक निराश अवश्य होते थे, लेकिन दोबारा सेना में भर्ती की तैयारी शुरू कर देते थे. कुमाऊं रेजिमेंट सेंटर रानीखेत (Kumaon Regiment Center Ranikhet) के सूबेदार बंसत राम ने उनकी मेहनत को देखते हुए बहादुर सिंह की मदद की. उन्होंने रानीखेत सेंटर में रहने खाने का प्रबंध कर दिया. बहादुर सिंह 25 अगस्त 1996 को भारतीय सेना की पैराशूट रेजिमेंट में भर्ती हो गए. उन्होंने पैराशूट रेजिमेंट ट्रेनिंग सेंटर बैंगलोर (अब बेंगलुरु) में ट्रेनिंग ली. साल 1997 में आगरा में हवाई जहाज से पैराशूट के साथ जंप करने की ट्रेनिंग की. जिसके बाद वे 10वीं बटालियन पैराशूट रेजिमेंट का हिस्सा बन गए.
बता दें कि 10वीं बटालियन पैराशूट रेजिमेंट (विशेष बल) का इतिहास भारतीय सेना में एक गौरवशाली रेजिमेंट के रूप में होता है. देश के अंदर आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों को कुचलने में इस रेजिमेंट की प्रमुख भूमिका रही है. बहादुर सिंह ने बटालियन में आने के बाद तीन महीने का कमांडो कोर्स पूरा किया और एक बेहतरीन कमांडो बन गए.
साल 1999 में कारगिल में पाकिस्तान ने घुसपैठ (Kargil war 1999) की थी. तब बहादुर सिंह की 10वीं बटालियन पैराशूट रेजिमेंट भी दुश्मन के खिलाफ मोर्चा लेने के लिए कारगिल पहुंच गई थी. कारगिल युद्ध में बहादुर सिंह भी अपनी बटालियन के साथ इस विजय युद्ध में शामिल थे. साल 2008 में वो अपनी बटालियन के साथ आतंकवाद ग्रस्त कश्मीर के बांदीपुरा में तैनात थे. सितंबर महीने में आतंकी सोलवन क्षेत्र में घुस आए थे.
वहीं, 10वीं बटालियन पैराशूट रेजिमेंट के पांच कमांडो दल ने सोलवन के अलग-अलग क्षेत्रों से आतंकियों को घेरने की योजना बनाई. उस समय कुछ कमांडो को पैदल तो कुछ कमांडो को वायु मार्ग से सोलवन के क्षेत्र में भेजा गया. वायु मार्ग से जाने वाली कमांडो दल में हवलदार बहादुर सिंह शामिल थे. उस समय हवलदार बहादुर सिंह और उनके स्क्वाड को तीन आतंकी नजर आए. उन्होंने एक आतंकी को मार गिराया, जिसमें वो खुद ही घायल हुए. उनका बायां कंधा आतंकियों की गोलियां लगने से छलनी हो गया था.
साथियों ने उन्हें सुरक्षित स्थान में ले जाने का प्रयास किया, लेकिन हवलदार बहादुर सिंह ने सुरक्षित स्थान में जाने से मना कर दिया. हवलदार बहादुर सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए थे. घायल होते हुए भी वो अंतिम सांस तक आतंकियों को मार गिराना चाहते थे. रात 11 बजे तक आतंकियों और हवलदार बहादुर सिंह के स्क्वाड के बीच मुठभेड़ चलती रही. इस दौरान हवलदार बहादुर सिंह ने दो आतंकियों को भी मार गिराया, लेकिन बहादुर सिंह देश की रक्षा करते-करते शहीद हो गए. दुर्भाग्य आज ये है कि उनके गांव में विकास नहीं पहुंच पाई है. अभी भी ग्रामीण सड़क निर्माण की मांग कर रहे हैं.