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संवेदनशील नदियों पर पावर प्रोजेक्ट की अनुमति मिलने से उठे सवाल

चमोली में आई प्राकृतिक आपदा के बाद संवेदनशील नदियों पर बनने वाले पावर प्रोजेक्टों को लेकर सवाल उठने लगे हैं. वहीं, अब पर्यावरणविद् राज्य, केंद्र और एजेंसियों द्वारा इन प्रोजेक्ट को अनुमति दिए जाने को लेकर सवाल उठा रहे हैं.

संवेदनशील नदियों पर पावर प्रोजेक्ट
संवेदनशील नदियों पर पावर प्रोजेक्ट

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Published : Feb 14, 2021, 5:03 PM IST

Updated : Feb 14, 2021, 6:59 PM IST

चमोली: तपोवन में आई आपदा में अब तक 50 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है. जबकि 160 लोग अब भी लापता है. इतनी बड़ी जनहानि को लेकर यूं तो अब सरकार के स्तर पर अध्ययन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है. लेकिन वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं, जिसके बाद न केवल उत्तराखंड, बल्कि भारत सरकार की वर्तमान एजेंसियां सवालों के घेरे में आ गई है. जिन की भूमिका पावर प्रोजेक्ट को शुरू करने के लिए अनुमति से जुड़ी है.

नदियों पर पावर प्रोजेक्ट की अनुमति मिलने से उठे सवाल.

7 फरवरी को चमोली के जोशीमठ में जल प्रलय का खौफनाक मंजर अपने साथ दर्दनाक तस्वीरें भी लेकर आया. आपदा के फौरन बाद राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार ने राहत एवं बचाव कार्य शुरू किए. आपदा में आए भारी मलबे से 50 शव को निकाला गया. इस दौरान करीब 15 से ज्यादा लोगों को रेस्क्यू कर बचाया भी गया. लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि आखिरकार इस त्रासदी में हुए बड़े नुकसान का जिम्मेदार कौन है?

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लिहाजा वैज्ञानिकों की राय भी जाननी बेहद जरूरी है, जो तपोवन त्रासदी के पीछे की हकीकत और सवालों को सामने लाने में बेहद अहम है. पर्यावरणविद् इस हादसे के बाद जल प्रलय की वजहों को अध्ययन के माध्यम से सामने लाने की बात कह रहे हैं और इसमें सबसे बड़ा सवाल पावर प्रोजेक्ट को ऐसे संवेदनशील जगह पर स्थापित करने को लेकर ही उठ रहे हैं. पर्यावरणविद् एसपी सती ने कुछ ऐसे तथ्य रखे हैं, जो ऋषिगंगा और धौलीगंगा पर बने प्रोजेक्ट को लेकर सवालों खड़े कर रहे हैं. इस मामले में पर्यावरण को लेकर सवाल क्या है ?

विशेषज्ञों के सवाल

1. ऋषिगंगा और धौलीगंगा में बने प्रोजेक्ट के लिए नदियों का अध्ययन क्यों नहीं करवाया गया.
2. धौलीगंगा जिसमें कई सहायक छोटी नदियां मिलती है. वह सभी अपने साथ हमेशा ही मलबा लेकर आती है और इसी लिए धौलीगंगा का पानी हमेशा मटमैला होता है और इसी के लिए इसका नाम धौली रखा गया है. धौली यानी धवला इस बात की जानकारी होने के बावजूद भी इस संवेदनशील क्षेत्र में पावर प्रोजेक्ट की अनुमति कैसे दी गई.
3. तमाम प्रोजेक्ट पर सवाल खड़े करने वाली एजेंसियां जैसे एनजीटी और बड़े पर्यावरणविदों ने क्यों नहीं पहले इसका विरोध किया या रोक लगाने के लिए कदम उठाएं.
4. पर्यावरणविद इस क्षेत्र को संवेदनशील मानते हैं, लिहाजा राज्य सरकार से लेकर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने क्यों नहीं इस पर विचार किया.
5. रैणी गांव समेत तमाम स्थानीय द्वारा इन पावर प्रोजेक्ट का विरोध करने के बावजूद भी सरकारों की तरफ से क्यों नहीं सुनवाई की गई.
6. ग्लेशियर्स के इतने पास होने के बावजूद भी इन नदियों पर बने इन प्रोजेक्ट को क्यों नहीं झीलों पर निगरानी या ग्लेशियर्स की स्थिति पर अध्ययन करवाया गया.

यह वह सवाल है, जिनका जवाब अब तक न तो उत्तराखंड सरकार ने दिया है और ना ही केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने. पावर प्रोजेक्ट को लेकर खतरे पर भी अब तक किसी भी सरकार या अधिकारी की तरफ से कोई बात नहीं की जा रही है. शायद ऐसा इसलिए भी है. क्योंकि सरकारें इस मामले को लेकर जिम्मेदारी तय करना ही नहीं चाहती. बहरहाल पर्यावरणविद् ने जो सवाल खड़े किए हैं, वह बेहद गंभीर है. इस पर अध्ययन और विचार हो ना उतना ही जरूरी है, जितना कि भविष्य में किसी त्रासदी को रोकने के लिए तमाम परिस्थितियों के लिए तैयार रहना.

Last Updated : Feb 14, 2021, 6:59 PM IST

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