'राजनीति' ने बिगाड़ी रिस्पना और बिंदाल नदी की 'सूरत' देहरादून: राजधानी देहरादून की 2 नदियां अब इतिहास होने जा रही हैं. कभी दूनवासियों की जरूरतों को पूरा करती इन नदियों का स्वरूप आज सिकुड़ सा गया है. सरकारें इन नदियों के पुनर्जीवन के नाम पर अभियान और स्टडी टूर तक ही सीमित दिखाई दी हैं. खास बात यह है कि इस सब का जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि उत्तराखंड की वोट बैंक की राजनीति है.
देहरादून के लिए रिस्पना और बिंदाल महज दो नदियां नहीं हैं, बल्कि ये दून की स्वच्छ आबोहवा और ऐतिहासिक कालखंड की गवाह भी हैं. ये दूनवासियों की जरूरत भी रही हैं. ये दोनों नदियां देहरादून के स्वस्थ पर्यावरण का पर्याय भी हैं. मगर ये बातें अब पुरानी हैं. आज हम जिस रिस्पना और बिंदाल को जानते हैं वह एक गंदे नाले के सिवाय कुछ और नहीं दिखाई देती हैं. ये दोनों नदियां नेताओं की वोट बैंक की राजनीति का शिकार हुई हैं. ऐसा भी नहीं है कि रिस्पना और बिंदाल नदियों को पुराना स्वरूप देने के लिए कोई प्रयास ना हुए हों, लेकिन यह प्रयास स्टडी टूर और अभियान चलाकर फोटोग्राफी तक ही सीमित रहे.
कब कब हुए रिस्पना और बिंदाल नदी के स्वरूप को बदलने के प्रयास
- साल 2010 में पहली बार इन दोनों नदियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास शुरू हुआ
- रिवरफ्रंट डेवलपमेंट योजना के तहत तत्कालीन भाजपा सरकार ने नदी के 36 किलोमीटर क्षेत्र को विकसित करने का विचार किया
- इस परियोजना की लागत करीब ₹90 करोड़ रुपये मानी गई
- तत्कालीन मेयर विनोद चमोली ने टीम के साथ अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट योजना का अवलोकन किया
- गुजरात में साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की टीम ने तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक के सामने इसका डेमो भी दिया
- रमेश पोखरियाल निशंक के मुख्यमंत्री पद से हटते ही ये योजना ठंडे बस्ते में चली गई
- साल 2018 में फिर एक बार पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इसके लिए प्रयास शुरू हुए
- 3.7 किलोमीटर पर पायलट प्रोजेक्ट शुरू करने का विचार किया गया
- इस प्रोजेक्ट की लागत 750 करोड़ अनुमानित लगाई गई.
- रिस्पना से ऋषिपर्णा अभियान के रूप में 2 लाख पौधे नदियों के किनारे लगाने का दावा किया गया
- अभियान में 10,000 से ज्यादा लोगों ने भी हिस्सा लिया
- त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद योजना भी ठंडे बस्ते में चली गई.
रिस्पना और बिंदाल नदी देहरादून की राजनीति के लिहाज से भी हमेशा नेताओं की जुबां पर रही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि नदियों के किनारे मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों पर राजनीतिक दलों ने खूब राजनीति की है. इसी राजनीति के चलते इन दोनों नदियों का स्वरूप बदल चुका है. दरअसल, राजनीतिक दबाव के चलते इन नदियों के किनारे तमाम अवैध बस्तियां बसा दी गईं. इसके साथ ही नदियों का सिकुड़ना और दूषित होना भी समय के साथ बढ़ता चला गया. कांग्रेस के पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट मानते हैं कि नेताओं ने ही इन नदियों पर अतिक्रमण करवाकर इसका स्वरूप बिगाड़ने का काम किया है. कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता इस मामले में भाजपा सरकार को परियोजनाओं को अधर में छोड़ने का जिम्मेदार मान रहे हैं.
राजनीति की 'गंगा' बनीं रिस्पना और बिंदाल नदियां
- देहरादून में पांच से ज्यादा विधानसभा सीटों के लिए इन नदियों में बसी मलिन बस्तियों का विशेष महत्व है
- उत्तराखंड में कुल 584 मलिन बस्तियां हैं, जिनमें 12 लाख लोग रहते हैं.
- देहरादून में इन दो नदियों के किनारे करीब दो लाख वोटर रहते हैं.
- बिंदाल और रिस्पना नदियों के किनारे 129 मलिन बस्तियां मौजूद हैं.
- इन दोनों नदियों के किनारे करीब 14,000 परिवार रहते हैं.
- कांग्रेस ने इन बस्तियों के नियमितीकरण का दांव खेल सबसे पहले इस पर राजनीति शुरू की.
- नदियों के किनारे रहने वाले अधिकतर लोग कांग्रेस का वोट बैंक माने जाते हैं.
- फिलहाल नदियों के सौंदर्यीकरण की योजना के बजाय अब इस पर एलिवेटेड रोड बनाने के लिए विचार किया जा रहा है.
जिस हिसाब से आज इन दोनों नदियों के हालात हैं, उससे साफ है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण देहरादून की यह दोनों नदियां आज दम तोड़ रही हैं. नदियों की स्वच्छता और सौंदर्यीकरण के लिए करोड़ों की लागत का बजट तैयार करने से लेकर परियोजनाओं को शुरू करने के लिए तमाम दावे भी किए गए, लेकिन कोई भी दावा हकीकत में धरातल पर नहीं उतरा. इस स्थिति पर कांग्रेस के आरोपों के बीच भाजपा मानती है कि उनकी सरकार नदियों के पुनर्जीवन के लिए लगातार प्रयासरत है. आने वाले समय में हालात बेहतर होंगे.
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उत्तराखंड में पिछले 13 सालों से इन दोनों नदियों को स्वच्छ और बेहतर करने के लिए प्रयास चल रहे हैं. इसके साथ ही इतने ही सालों से इस पर जमकर राजनीति भी हुई. मगर इसके बाद भी इन दोनों नदियों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं दिखाई दिये. इन दोनों नदियों की हालत खराब है. इसे बेहतर करने की जरूरत है, यह तो सब मानते हैं, लेकिन कोई गंभीर प्रयास करने को तैयार नहीं दिखाई देता.