दौसा.दो वक्त की रोटी कमाने निकला मजदूर एक ऐसी लाइलाज बीमार अपने साथ घर लेकर पहुंचा. जिससे उसका पार पाना नामुमकिन है. पेट की आग बुझाने के खदानों में काम करने वाले मजदूर आज जिंदगी और मौत के बीच लड़ाई लड़ रहे हैं. ये दर्द उन्हें दिया है, सिलिकोसिस नाम की बीमारी ने. प्रदेश में पत्थरों की मांग जैसे-जैसे इमारतों में बढ़ रही है, वैसे-वैसे सिलकोसिस से हो रही गरीब मजदूरों की मौतों में भी इजाफा हो रहा है.
धरातल पर सरकार के सारे दावे फेल
सरकार भले ही सिलिकोसिस नीति बनाकर सिलिकोसिस पीड़ितों को राहत देने का दावा कर रही हो, लेकिन धरातल स्तर पर ये सारे दावे खोखले साबित हो रहे हैं. दौसा जिले के सिकंदरा कस्बे और आसपास के क्षेत्र में पत्थर व्यवसाय से जुड़े सैकड़ों सिलिकोसिस पीड़ित ऐसे हैं, जो सरकार के सिलिकोसिस आर्थिक सहायता से वंचित हैं. कई लोग को मदद की आस में दुनिया भी छोड़ चुके हैं. जिनके परिजन सिलिकोसिस से मिलने वाले मुआवजे के इंतजार में हैं.
कैसे होता है सिलिकोसिस?
सिलिकोसिस फेफड़ों की बीमारी है. पत्थर या सीमेंट की खदानों जैसी धूल भरी जगहों पर लगातार काम करते रहने से नाक के जरिए धूल, सीमेंट या कांच के महीन कण फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं. धीरे–धीरे व्यक्ति की शारीरिक क्षमता कम होती जाती है. वह हर दिन कमजोर होता जाता है और आखिर में मौत हो जाती है.
परिजनों को नहीं मिला मुआवजा
जिले के सिकराय विधानसभा क्षेत्र में भी कई ऐसे लोग हैं, जिन्होंने सिलिकोसिस बीमारी के इलाज के लिए श्रम विभाग में आवेदन कर दिया है, लेकिन सालों बाद भी आज तक उनको मुआवजा या सहायता राशि नहीं मिली है. कई लोगों की तो आवेदन के बाद मृत्यु भी हो चुकी है, लेकिन सरकारी रवैए के चलते सिलिकोसिस पीड़ित आर्थिक सहायता के लिए आज भी मोहताज हैं. ऐसी घटनाएं हमारे सरकारी अफसरों की लेटलतीफी या कहें तो उदासीनता को दर्शाती हैं.
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इसे अफसरों की उदासीनता कहे या बजट की कमी सैकड़ों लोग आज भी सिलिकोसिस बीमारी से जूझ रहे हैं. बीमारी का इलाज करवाना तो दूर घर की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि बच्चों का पेट भरने तक के पैसे नहीं हैं. जिले में कई ऐसी विधवा महिलाएं हैं, जिनके पति सिलिकोसिस बीमारी से गुजर गए, लेकिन सरकार की ओर से मिलने वाला मुआवजा आज भी उनसे कोसों दूर है.