अजमेर.जगत पिता ब्रह्मा की नगरी पुष्कर के ईमली मोहल्ले में किलेनुमा बना वराहा प्राचीन ऐतिहासिक विशाल मंदिर अपने अतीत में कई घटनाओं का गवाह रहा है. जमीन से 30 फीट ऊंचे मंदिर में जाने के लिए चौड़ी सीढ़िया हैं और मुख्य द्वार किले जैसा है. भीतर प्रवेश करते ही सबसे पहले धर्मराज जी के दर्शन होते हैं.
वराह मंदिर में है पुण्य का खजाना हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कर्म प्रधान होता है. कर्म व्यक्ति के जीवनकाल में ही नहीं, बल्कि मरने के बाद भी उसकी गति को निर्धारित करते हैं. हर व्यक्ति के अच्छे बुरे कर्मों का लेखा-जोखा धर्मराज जी के पास होता है. पुष्कर में धर्मराज जी का एकमात्र मंदिर है. कहा जाता है कि हर व्यक्ति के कर्मों का (सरसो के बीज) राई से कम का भी लेखा-जोखा धर्मराज जी पूरा रखते हैं. उसके आधार पर ही व्यक्ति के लिए स्वर्ग और नरक के द्वार खुलते है.
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पूर्णिमा पर होती है विशेष पूजा-अर्चना...
मंदिर में विराजमान धर्मराज जी की पूर्णिमा पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है. धर्मराज जी के आगे दीपक जलाकर उन्हें राई अर्पित की जाती है. कई लोग पूर्णिमा के दिन व्रत भी रखते हैं, जिसका उद्यापन मकर संक्रांति के दिन किया जाता है. लेकिन व्रत के बीच छोटी दीपावली पर यमराज के नाम से दीपक जलाया जाता है. व्रत में दान पुण्य का विशेष महत्व है. व्रत का उद्यापन होने पर माना जाता है कि व्यक्ति के बुरे कर्म कट जाते हैं और अच्छे कर्मों के आधार पर व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होती है. इसके अलावा पूर्वजों के लिए भी व्रत और उद्यापन करने पर उन्हें भी मोक्ष की प्राप्ति होती है.
पूर्णिमा पर होती है विशेष पूजा-अर्चना मंदिर में है गरुड़ की प्रतिमा...
मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की प्रतिमा है और ठीक उनके सामने भगवान विष्णु के वराह अवतार के दर्शन होते हैं. वराह अवतार भगवान विष्णु की प्रतिमा स्वयं प्रकट विग्रह मानी जाती है. हिंदू धर्म ग्रंथों की मान्यता के अनुसार हिरणायक्ष नामक दानव ने माता पृथ्वी को समुंद्र तल में दिया था. तब पृथ्वी और संपूर्ण प्राणियों की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था और पृथ्वी को अपने मुख पर रखकर वे समुंदर के ऊपर से अवतरित हुए थे. मंदिर को किले के समान स्वरूप 1727 ईसवी में मिला था. जबकि कहा जाता है कि इससे पूर्व मंदिर और भी ज्यादा भव्य और विशाल था. करीब 125 फीट मंदिर का शिखर था, जहां स्वर्णदीप जला करता था. ऐसा भी कहा जाता है कि स्वर्णदीप में एक मन घी जलता था. मंदिर के ऊंचे शिखर से दिल्ली दिखाई देती थी.
चौहान वंश के राजा अर्णोराज चौहान ने मंदिर को भव्यता प्रदान की थी यह भी पढ़ें:स्पेशल: कबाड़खाना बनकर रह गया करोड़ों में बना यह उद्यान, लोकार्पण के बाद भी है बंद
क्या कहना है स्थानीय लोगों का...
स्थानीय लोग बताते हैं कि 10वीं शताब्दी में राजा रुदा देव ब्राह्मण मंदिर का निर्माण करवाया था. 13वीं शताब्दी में अजमेर के चौहान वंश के राजा अर्णोराज चौहान ने मंदिर को भव्यता प्रदान की थी. आक्रांता उसे मंदिर की सुरक्षा के लिए महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह ने मंदिर के चारों ओर से किले का रूप दे दिया. मंदिर में यवन आक्रमण झेले. वहीं मुगल शासक औरंगजेब ने भी मंदिर को नष्ट करने का पूरा प्रयास किया था. इस दौरान जोधपुर से राजा अजीत सिंह ने औरंगजेब की सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया था. लेकिन इस युद्ध के बीच औरंगजेब ने मंदिर परिसर में कई हिस्सों को तोड़ दिया था. पुष्कर भगवान विष्णु का वराह मंदिर स्थानीय ही नहीं, बल्कि पुष्कर आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए बड़ी आस्था का केंद्र है. यहां बूंदी के राजा ने मनो वजनी भाला मंदिर को भेंट किया था.
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चैत्र माह वराह नवमी के दिन धूमधाम से प्राकट्य उत्सव मनाया जाता है. वहीं जलझूलनी एकादशी पर मंदिर से लक्ष्मी नारायण की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. शरद पूर्णिमा के दिन सवा मनी वजनी लक्ष्मी-नारायण की मूर्ति श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए वराह अवतार भगवान विष्णु की प्रतिमा के आगे रखी जाती है. जन्माष्टमी और अन्नकूट पर भी मंदिर में विशेष आयोजन होते हैं. वराह अवतार मंदिर में चावल से बने विशेष भोग लगाने की परंपरा है.