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लुटता जा रहा है कुदरत का ये खजाना! संभल गए तो ठीक, वरना पछताना होगा

शहडोल के जंगलों में कुदरत का खजाना भरा पड़ा है. आदिवासियों ने लंबे समय तक इन वनस्पतियों और भाजी को खाकर खुद को सेहतमंद रखा है. वक्त गुजरने के साथ ये लोग भी अब प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में ये खजाना भी धीरे धीरे विलुप्त होता जा रहा है.

miracle vegetables
कमाल की भाजी

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Published : Oct 20, 2021, 11:43 AM IST

Updated : Oct 20, 2021, 4:03 PM IST

शहडोल। ये जिला प्राकृतिक तौर हरा भरा हैं. यहां पर कई ऐसी चमत्कारी औषधियां हैं जिनके बारे में जानकर आप हैरान रह जाएंगे. शहडोल जिला आदिवासी बाहुल्य जिला है और आदिवासी अक्सर प्रकृति के बहुत करीब रहे हैं. यही कारण है कि प्रकृति के कई उपहार इन्हें मिले हैं.

स्वाद में लाजवाब, पौष्टिकता से भरपूर, चमत्कारिक हैं ये भाजियां

शहडोल जिला आदिवासी बाहुल्य जिला है. आदिवासी समाज प्रकृति के बहुत करीब रहा है. इसीलिए प्रकृति के कई उपहारों की जानकारी उसे बड़े ही करीब से है. साल के 12 महीने अलग-अलग तरह की भाजियों को ये जंगलों, नदियों के किनारे, खेतों से चुनकर लाते हैं. साल में चार से पांच बार ऐसा भाजियां जरूर खाते हैं. आदिवासी समाज के लोगों की मानें तो यह भाजी खाने में स्वादिष्ट है. पौष्टिकता से भरपूर और स्वास्थ्य के लिए अमृत के समान होते हैं .

जानिए इन भाजियों के बारे में

किसान गोविंद सिंह बताते हैं कि प्रकृति हमें बहुत कुछ देती है. साल के 12 महीने हमें तरह-तरह की भाजी खाने को मिलती है. गोविंद सिंह बताते हैं कि कई भाजी बिना लगाए ही उग जाती है, ये प्रकृति का उपहार नहीं तो क्या है. चकौड़ा भाजी, कनकौआ भाजी, डोकरी भाजी, चेंज भाजी, कजरा भाजी, लोनिया भाजी, पत्थरचट्टा भाजी, हुरहुरिया भाजी, गठबा भाजी, जंगली राई, भथुआ भाजी, और लोनिया भाजी को आजकल लोग अपने घर में भी लगाने लगे हैं. क्योंकि इन्हें बहुत ही पौष्टिक माना गया है. गोविंद सिंह को बताते हैं कि जो उनसे भी बुजुर्ग हैं और बहुत पुराने लोग हैं उन्हें और सारी भाजियों की जानकारी है. आजकल के युवाओं को ये सब जानकारी नहीं है.

प्रकृति का उपहार हैं ये भाजियां

कृषि वैज्ञानिक डॉ मृगेंद्र सिंह कहते हैं कि आदिवासियों को प्रकृति का इतना ज्ञान इसलिए है, क्योंकि वह प्रकृति के सानिध्य में रहते थे. जिले का 40 प्रतिशत क्षेत्रफल वनाच्छादित है. जंगलों में या फिर पहले की जो खेती किसानी थी, वो भी उनकी प्रकृति पर ही निर्भर थी. उनका ये ज्ञान कोई एक दिन का नहीं बल्कि परंपरा से पीढ़ियों से मिला हुआ ज्ञान था. चकौड़ा , धान के खेत में होने वाली कजरा भाजी ऐसी चीजें हैं जिनसे आदिवासियों को भरपूर मिनरल्स, प्रोटीन ,विटामिंस, कैलोरी सब मिल जाता था.

अब इन भाजियों की प्रजाति पर संकट क्यों?

जब ये भाजियां इतनी चमत्कारी हैं और सेहत के लिए इतनी अहम है तो फिर इन भाजियों की प्रजातियों पर संकट क्यों मंडरा रहा है. इसे जानने के लिए जब हमने कुछ आदिवासी समाज के लोगों से संपर्क किया. आदिवासियों के बीच कई सालों से काम करने वाले कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क किया तो सभी का एक ही कहना था कि सबसे बड़ी बात कि इन भाजियों की कोई खेती नहीं होती है. यह प्रकृति का दिया हुआ उपहार है. मतलब अपने समय में खुद से उग जाती हैं.लेकिन बदलते वक्त के साथ जो बदलाव हो रहे हैं, उसका असर इस पर भी देखने को मिल रहा है. पहला कि जो केमिकल युक्त खेती हो रही है सबसे ज्यादा वीडि साइट्स इस्तेमाल किए जा रहे हैं, तो वो भाजियां भी उस में विलुप्त हो रही हैं. उनकी कोई खेती तो होती नहीं है. उनके दाने तैयार हो नहीं पाते हैं, जिससे वह पूरी तरह से विलुप्त हो जाते हैं

आयुर्वेदिक दवा से कम नहीं

पुराने आदिवासियों का मानना है कि इनमें से कई भाजियां तो ऐसी हैं जो सेहत के लिए किसी आयुर्वेदिक दवा से कम नहीं हैं. इसीलिए आदिवासी समाज के लोग साल में 5 से 6 बार उस भाजी को ढूंढ कर जरूर खाते हैं. अब बदलते वक्त का असर दिख रहा है. लोग अब धीरे-धीरे उन्हें खाना छोड़ रहे हैं. पहले जो आदिवासी समाज के लोग डॉक्टर के पास कम जाते थे, क्योंकि वो प्रकृति के ज्यादा नजदीक थे.

Last Updated : Oct 20, 2021, 4:03 PM IST

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