MP Seat Scan Astha: सीहोर की आष्टा विधानसभा, विकास मुद्दा नहीं धर्म के आधार पर तय होती जीत-हार, 12 चुनाव में 7 बार BJP ने लहराई विजयी पताका
आज बात सीहोर की आष्टा विधानसभा की. ये 157 नंबर की विधानसभा है, जो साल 1962 में अस्तित्व में आई थी. यहां अबतक कुल 12 बार चुनाव हो चुके हैं, अधिकतर बीजेपी ने ही जीत हासिल की है, हालांकि कुछ चुनावों में बीजेपी की जीत का अंतर लगातार कम होता रहा है. ETV Bharat की खास पेशकश में सीहोर जिले की विधानसभा आष्टा का विश्लेषण..
सीहोर। एमपी की कुल 230 विधानसभा में से आष्टा का नंबर 157 है. यह साल 1962 में पहली बार अस्तित्व में आई थी. ये सीहोर जिले की एक विधानसभा है, वहीं संसदीय क्षेत्र का एक खंड है। अब तक यहां कुल 12 चुनाव हो चुके हैं. अधिकतर बाजी भाजपा के हाथ में रही है. आखिर क्या है कारण कि भाजपा से कांग्रेस यह सीट छीन नहीं पाती है? ऐसे कई और सवालों के जवाब और रोचक फैक्ट पता चले, जब ईटीवी भारत ने इस सीट का एनालिसिस किया.
पर्यटन, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से आष्टा विधानसभा:यहां पर्यटन के नाम पर देव बिड़ला मंदिर है. इसके अलावा इलाही माता मंदिर है. पुरानी मूर्तियां बहुत निकलती हैं. प्राचीन शंकर मंदिर है. किवंदती है कि रावण अक्सर यहां आता था, क्योंकि यहां के किले में राजा अजय पाल तांत्रित क्रिया करते थे. यहां पार्वती नदी के किनारे शिव मंदिर है और यहां ठीक महाकाल स्वरूप का शिवलिंग है.
आष्टा की खासियत
माना जाता है कि यह एकमात्र मंदिर है, जिसके बायीं हाथ तरफ पार्वती नदी बहती है. पूरे देश में सिर्फ यही शिव और पार्वती एक साथ दो अलग रूप में मौजूद हैं. आष्टा शहर की भी रोचक कहानी है. इसके चारों कोनों पर चार खेड़ापति मंदिर, चार दरगाह, चार बावड़ी हैं और कमाल की बात यह है कि तीनों ही पास-पास है. आष्टा शहर का नाम अष्टावक्र ऋषि के ऊपर पड़ा. हालांकि, इस विधानसभा का एकमात्र आकर्षण किला बर्बादी की कगार पर है.
क्या है जातीय गणित?: यहां कुल 2 लाख 48 हजार 274 मतदाता हैं. इनमें से करीब 40 हजार जनसंख्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वोटर्स की है. इसके बाद मेवाड़ा, परमाल और सेंधव के वोट हैं. गांव में जहां ठाकुरों का वर्चस्व है, तो वहीं शहरी क्षेत्र में जैन समाज का बाहुल्य है. यदि शहरी और गांव की तस्वीर देखें तो 40 फीसदी मुस्लिम और 60 फीसदी हिंदु हैं. हर साल कोई न काेई तनाव बन ही जाता है और इससे वोटों का ध्रुवीकरण बना रहता है.
आष्टा में कितने मतदाता
इस साल भी जब शहर में पालकी निकाली गई तो तनाव पूर्ण स्थिति बन गई. पालकी में करीब 30 से 40 हजार भक्त आए थे. इन सबके बावजूद रिजर्व सीट में भी बलाई समाज का वर्चस्व रहा है. इसी वर्ग से लोग अधिकतर विधायक बनते आए हैं. कुल 12 विधायक में से 8 इसी वर्ग से रहे हैं. इस बार भी इसी वर्ग के लोग अधिक दावेदारी कर रहे हैं. कांग्रेस ने भी कुछ ऐसी बिसात बिछाई है. इस क्षेत्र से विधायक रहे नंदकिशोर खत्री एकमात्र थे, जो दूसरी जाति से थे. वहीं आष्टा शहर से भी एक बार ही विधायक बने हैं. बाकी सभी विधायक आसपास गांव के बने हैं.
आष्टा विधानसभा का राजनीतिक गणित:कांग्रेस में इस बार सबसे ऊपर कमल सिंह चौहान का नाम है. यह कांग्रेस की तरफ से दावेदारी कर रहे हैं. कमल सिंह के पूर्वजों ने अपनी एक अलग पार्टी प्रजातांत्रित पार्टी बनाई थी. इस पार्टी का विलय अब कांग्रेस में हो गया है. ऐसे में लभगग साफ है कि कमल सिंह ही कांग्रेस का चेहरा बन सकते हैं. इसके दो कारण है. पहला वे बलाई समाज से आते हैं और दूसरा आदिवासियों में भी होल्ड है. एक फैक्टर और है जो मदद करेगा. इस सीट पर पूर्व कांग्रेस नेता अजीत सिंह सिंधिया के साथ भाजपा में चले गए हैं. इनकी तरफ से एक दावेदार कम हो गया. ऐसे में कमल सिंह को बलाई समाज के बल्क वोट मिलेंगे और वे कांग्रेस का सूखापन तोड़ सकते हैं.
इस वर्ग के करीब 20 से 22 हजार वोटर हैं. अब बात करें भाजपा की तो जिला पंचायत अध्यक्ष रहे गोपाल इंजीनियर दावेदारी कर रहे हैं, लेकिन भाजपा की तरफ से सबसे मजबूत नाम कैलाश बगाना का माना जा रहा है. इन्हें संघ का समर्थन है और ये अनुसूचित जाति मोर्चा में प्रदेश मंत्री हैं. एक दावेदार कांग्रेस से आए अजीत सिंह हैंं.
व्यापारिक और रोजगार की स्थिति: आष्टा विधानसभा भले ही सीहोर का हिस्सा हो, लेकिन इस पर भोपाल की बजाय इंदौर का असर है. शहरी क्षेत्र में रहने वालों में 90 फीसदी आबादी व्यापार से जुड़ी है और कैलाश विजयवर्गीय को बहुत मानती है. विजयवर्गीय का यहां एक तरफा वर्चस्व है. इसी प्रकार कांग्रेस के बड़े नेता पूर्व मंत्री और देवास सांसद रहे सज्जन सिंह वर्मा का यह दूसरा घर माना जाता है. रोजगार व्यापार से मिलता है और कोई बड़ी इंडस्ट्री नहीं है. वहीं, ग्रामीण इलाका पूरी तरह से कृषि पर निर्भर है. आष्टा में सबसे बड़ी मंडी भी है. करीब में धागा फैक्ट्री है. कोटरी में फैक्ट्री है. उससे जोडकर रखा है. कपड़े की दुकान है. पशुओं का व्यापार होता है.
यहां के क्षेत्रीय मुद्दे?: लोग यहां मुद्दों पर बहुत अधिक चर्चा नहीं करते हैं, लेकिन पानी और रेल दो बड़े मुद्दे मान सकते हैं. व्यापारिक केंद्र होने के कारण लंबे समय से रेल लाइन की मांग चल रही है. देवास सांसद रहते सज्जन सिंह वर्मा ने काफी प्रयास किया और स्वीकृति भी मिली, लेकिन अब लाइन शिफ्ट हो गई. अब यही लाइन आष्टा की बजाय बुधनी क्षेत्र से निकल रही है. इसके बाद भी इसका बहुत विरोध नहीं हुआ. इसकी वजह मान सकते हैं कि क्षेत्र में कोई बड़ा नेता नहीं है. यहां की राजनीति इंदौर के हिसाब से चलती है.
सीट के प्रमुख मुद्दे?: एमपी की बाकी सीटों पर मुद्दे होते हैं, लेकिन यहां कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, रिजर्व सीट होने की वजह से एक अलग ही तरह का राजनीति माहौल बना रहता है. शहर में व्यापारियों की चलती है, तो ग्रामीण इलाकों में किसानों का वर्चस्व है. यदि मूलभूत सुविधाओं में मुद्दों की बात करें, तो सड़क, बिजली से लोग संतुष्ट हैं. बस पानी को लेकर थोड़ी बैचेनी है. वह भी शहरी क्षेत्र में, क्योंकि भरी गर्मी में पानी की किल्लत हाेती ही है.
हिंदू मुस्लिम फैक्टर भी यहां जमकर काम करता है. हिंदु मतदाता 60 फीसदी तो मुस्लिम 40 फीसदी हो गए हैं. कमाल की बात यह है कि इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम वोट होने और रिजर्व सीट होने के बाद भी कांग्रेस के लिए यह सीट चुनौती बनी हुई है. हालांकि, इस बार भाजपा के सामने भी कम चुनौती नहीं है. लगातार जीत का अंतर कम होने से बीजेपी के नेता चिंतित हैं.
सीट का चुनावी इतिहास, लगातार 7 बार BJP रही विनर:साल 1962 में जब पहली बार सीट बनी तो कांग्रेस के उमराव सिंह ने जनसंघ के गोपी दास को हराकर सीट जीती थी. यह पहली बार से ही रिजर्व सीट है. जीत का अंतर करीब 5243 रहा था, लेकिन तब का यह बड़ा आंकड़ा था, क्योंकि कुल वोटिंग करीब 28991 हुई थी. इसके बाद साल 1967 में जनसंघ ने बाजी मारी और जी गोयल ने कांग्रेस के उमराव सिंह को 7001 वोट से हरा दिया. जबकि 1972 में फिर से कांग्रेस ने उरामव सिंह को मैदान में उतारा और वे विजयी रहे.
आष्टा में हुए 2018 चुनाव परिणाम
उन्होंने बीजेएस के प्रत्याशी नंदकिशोरे बुलाकी चंद को 7903 वोट से हराया. 1977 में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही चेहरे बदले. भाजपा ने नारायण सिंह केसरी और कांग्रेस ने बंसीदास कृष्णदास को टिकट दिया. बाजी भाजपा के हाथ आई. बीजेपी के केसरी ने 10750 वोट से चुनाव जीता. साल 1980 के आष्टा विधान सभा चुनाव में जब बीजेपी ने उम्मीदवार बदलकर देवीलाल रेकवाल को मैदान में उतारा तो उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) के उम्मीदवार राजा राम झा को 3303 वोटों से हराकर बीजेपी की जीत का सिलसिला जारी रखा.
इस जीत को साल 1985 के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार अजीत सिंह उमराव सिंह ने थाम लिया. उन्होंने बीजेवी के सिटिंग एमएलए देवीलाल रेकवाल 4190 वोटों से हरा दिया, लेकिन इस जीत को कांग्रेस आगे जारी नहीं रख पाई. साल 1990 के आष्टा विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने नंद किशोर खत्री को उम्मीदवार बनाया और कांग्रेस ने बापू लाल को. नतीजा बीजेपी के खत्री ने 12811 वोटों से चुनाव जीत लिया. फिर तो जैसे बीजेपी को जीत की आदत लग गई.
साल 1993 में बीजेपी के रणजीत सिंह गुणवान ने कांग्रेस के उम्मीदवार अजीत सिंह उमराव को 12577 वोटों से हराया. साल 1998 में बीजेपी ने फिर रणजीत सिंह गुणवान को प्रत्याशी बनाया और उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार बापूलाल मालवीय को 8061 वोटों से हराया. 2003 में बीजेपी ने हैट्रिक बना दी. इस बार बीजेपी ने उम्मीदवार बदला और रघुनाथ सिंह मालवीय को टिकट दिया. जबकि कांग्रेस ने अजीत उमराव सिंह को उतारा. जीत बीजेपी के मालवीय की हुई और उन्होंने 10652 वोटों से कांग्रेस को हराया.
आष्टा में हुए पिछले तीन चुनाव
इस जीत के बाद भी बीजेपी ने 2008 के विधानसभा चुनाव में मालवीय की बजाय पूर्व विधायक रणजीत सिंह गुणवान को टिकट दिया और कांग्रेस ने गोपाल सिंह इंजीनियर को प्रत्याशी बनाया. जनता ने इस बार भी बीजेपी को 16906 वोटों से जिता दिया. जीत का यह सिलसिला 2013 में कायम रहा. इस बार फिर बीजेपी ने टिकट रणजीत सिंह गुणवान को दिया और कांग्रेस पुरानी हार के बावजूद गोपाल सिंह इंजीनियर पर भरोसा जताया.
इसके बाद भी गुणवान 5504 वोटों से जीत गए. इस तरह बीजेपी की दूसरी हैट्रिक बनी. 2018 में भी बीजेपी की जीत का यह रथ थमा नहीं. इस बार बीजेपी ने अपने पूर्व विधायक रघुनाथ सिंह मालवीय को टिकट दिया. जबकि, कांग्रेस ने तीसरी बार भी लगातार हार रहे गोपाल सिंह इंजीनियर का टिकट दिया. इस बार भी बीजेपी 6044 वोटों से जीत गई.