भोपाल।मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 का सियासी संग्राम और सत्ता का समीकरण आदिवासी वोट बैंक पर टिका हुआ है. प्रदेश में 230 विधानसभा सीटें हैं जिनमें से 47 आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा इतनी ही सीटें ऐसी हैं जिनपर आदिवासी वोटर ही जीत हार तय करते हैं. प्रदेश में आदिवासियों की कुल जनसंख्या 2 करोड़ से भी अधिक है. यही वजह है कि चुनावी साल में आदिवासी वोट को साधने और उसे अपने पाले में लाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस दोनों अपने अपने प्लान लेकर मैदान मारने को तैयार हैं.
एमपी में आदिवासी वोट बैंक शिवराज ने लगाई घोषणाओं की झड़ी:आदिवासियों को साधने के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. भाजपा सरकार ने आदिवासियों के लिए योजनाओं और घोषणाओं की बौछार कर दी है. बीजेपी बैठकों के माध्यम से कार्यकर्ताओं को आदिवासियों के बीच पार्टी की बात रखने की ट्रेनिंग दे रही है. दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी आदिवासी वोट बैंक के लिए विशेष प्लान तैयार किया है. कांग्रेस सभी प्रमुख आदिवासी संगठनों को पार्टी के साथ जोड़ने का काम करेगी ताकि भाजपा उसके पुराने वोट बैंक में सेंध ना लगा सके.
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कांग्रेस का प्लान ऑफ एक्शन तैयार:मध्य प्रदेश की सियासत आदिवासियों के इर्द-गिर्द ही चलती हुई नजर आ रही है. इस बात को समझते हुए पीसीसी चीफ कमलनाथ ने आदिवासी नेताओं और विधायकों को ट्राईबल बेल्ट का दौरा करने और आदिवासियों के साथ संवाद स्थापित करने के निर्देश दे दिए हैं. कांग्रेस ने आगामी 6 महीने के लिए प्लान ऑफ एक्शन भी तैयार कर लिया है, जिसके तहत पार्टी लगातार आदिवासी अंचल में पड़ने वाली विधानसभा सीटों पर मेहनत मशक्कत करेगी. 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो उसे जिताने में आदिवासी वोट बैंक का बड़ा रोल रहा था. 2018 के विधानसभा चुनावों में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से कांग्रेस को 30 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस का कहना है कि आदिवासियों को कमलनाथ और उनकी योजनाओं पर भरोसा है. यही वजह है कि 2018 में आदिवासी कांग्रेस के साथ आए. बीजेपी के राज में आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं. इससे साफ है की अब आदिवासी बीजेपी से दूर हो रहा है.
ऐसा है आदिवासी सीटों का गणित:2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के वोटों के कारण ही कांग्रेस लंबे वनवास के बाद सत्ता में लौटी थी. कांग्रेस को रिजर्व 47 में से 30 सीटें मिली थीं. प्रदेश में आदिवासियों की बड़ी आबादी होने से 230 विधानसभा में से 84 सीटों पर उनका सीधा प्रभाव है. इससे पहले के 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा ने 31 सीटें जीती थीं. कांग्रेस के खाते में 15 सीट आईं थी जबकि, 2018 के चुनाव में भाजपा 47 में से सिर्फ 16 पर ही जीत दर्ज कर सकी थी. कांग्रेस ने 30 सीटें जीतीं और भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी थी. 2023 के चुनावों में सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए आदिवासियों का साथ बेहद जरूरी है ये बात दोनों दल बेहतर जानते हैं. यही वजह है कि बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों अपने अपने तरीकों से आदिवासियों को रिझाने में कोई कोरकसर छोड़ना नहीं चाहते हैं.
आदिवासी वोट बैंक के लिए बीजेपी की खास तैयारी:कैबिनेट मंत्री विश्वास सारंग कहते हैं की हमारी सरकार और पार्टी ने जो वादे किए हैं, वो पूरे किए और जहां तक योजनाओं का सवाल है तो उनको जनता तक पहुंचाने के लिए सभी प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन कांग्रेस ने हमेशा वर्ग संघर्ष पैदा करने की कोशिश की है. आदिवासियों पर पार्टी के फोकस के लिए उन्होंने कई कार्यक्रम और योजनाओं का भी जिक्र किया.
- बीजेपी ने आदिवासी वर्ग से आने वाली द्रोपती मुर्मु को राष्ट्रपति बनाया.
-मोदी और अमित शाह की जोड़ी लगातार मप्र के आदिवासी इलाकों में ताकत झोंक रही है.
-15 नवंबर को पीएम मोदी भोपाल में आयोजित आदिवासी दिवस के कार्यक्रम में शामिल हुए.
-18 सितंबर 2022 को जबलपुर में अमित शाह राजा शंकर शाह विजय शाह के शहीदी दिवस कार्यक्रम में शामिल हुए.
-17 सितंबर 2022 को अपने जन्मदिन के मौके पर पीएम मोदी ने श्योपुर के कूनों में 8 चीतों को छोड़ा.
- पीएम कराहल तहसील में आदिवासी वर्ग की स्वयंसहायता समूद की महिलाओं के कार्यक्रम में पहुंचे.
- इसके अलावा भाजपा ने 2023 तक आदिवासी इलाकों में सरकार की योजनाएं और भाजपा की रीति नीति के प्रचार का अभियान चलाया हुआ है. यह अभियान अगले पूरे साल चलेगा. बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुमेर सिंह सोलंकी ने दावा किया कि सिर्फ भाजपा ही आदिवासी हितैषी है, कांग्रेस चाहे जितनी कोशिश कर ले कामयाब नहीं होगी।
RSS भी मिशन मोड में:आदिवासियों को लेकर आरएसएस भी अपनी तैयारी शुरू कर चुका है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी मिशन 2023 के तहत एक साल के लिए मप्र के आदिवासी इलाकों में विशेष अभियान चला रहा है. जिसके तहत संघ ने सूबे के 8 आदिवासी बहुत ज़िलों में संघ की शाखाओं को दोगुना करने का टारगेट रखा है. इसके साथ ही संघ धर्मांतरण रोकने के लिए इन बेल्टों में जन जागरूता, और संस्कार शालाएं भी बढ़ा रहा है. संघ ने 2023 में कई बड़े कार्यक्रम और सभाएं भी इन्हीं ज़िलों में आयोजित करने की योजना बनाई है.
'जयस' से डर:बड़वानी अलीराजपुर धार झाबुआ के आदिवासी बहुल ज़िलों में भाजपा को जयस से डर है, तो वहीं छिंदवाड़ा में कमलनाथ की किले बंदी से बीजेपी कमजोर दिखाई देती है. दोनों ही पार्टियां जानती हैं कि मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के लिए आदिवासी वोटर्स निर्णायक हैं. आदिवासी वोट बैंक जिससे दूर हुआ, वो 'सिंहासन' से दूर हो गया. अब आदिवासी संगठन भी राजनीतिक रूप से संगठित और सक्षम हो गए हैं. वे अपनी अलग ताकत दिखाने लगे हैं. यही वजह है कि बीजेपी-कांग्रेस उनको रिझाने में जुटी हुई हैं.
क्या कहते हैं पॉलिटिकल पंडित: वरिष्ठ पत्रकार रंजन श्रीवास्तव का कहना है कि मौजूदा दौर में आदिवासी संगठन भी अलग-अलग गुट में बंट चुके हैं. ऐसी स्थिति में 2023 में आदिवासी बीजेपी के साथ जाते हुए नजर आ सकते हैं, क्योंकि जो वादे कांग्रेस ने किए थे 2018 में वह अपनी 15 महीने की सरकार में पूरा नहीं कर पाई. बीजेपी आदिवासी वोट बैंक पर ज्यादा फोकस कर रही है. आदिवासियों को साधने के लिए बीजेपी ने मांडू में हुए प्रशिक्षण वर्ग में खास रणनीति तैयार की है. जिसमें चुनाव से पहले बड़े आदिवासी नेताओं को बीजेपी के पाले में लाने की रणनीति भी शामिल है. दूसरी तरफ भाजपा सरकार पिछले एक साल से आदिवासियों पर केंद्रित योजनाओं का तेजी से संचालन कर रही है जो चुनावी साल में भी जारी रहेंगी.