ग्वालियर। कोरोना वायरस महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहे देश के लिए रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) द्वारा तैयार की गई दवा 2DG ऑक्सी डी ग्लूकोज किसी 'संजीवनी' से कम नहीं है. दावा किया गया है कि यह दवा कोरोना के मरीजों पर काफी असरदार है, लेकिन एक बात जानकर हर किसी को हैरानी होगी. कोरोना के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली इस दवा को ग्वालियर के डीआरडीई लैब में लगभग 25 साल पहले ही तैयार कर लिया गया था.
यह बात सुनने में थोड़ी अजीब जरूर लग रही है, लेकिन हकीकत है. मतलब यह दवा 25 साल पहले ही ग्वालियर के डीआरडीई लैब में तैयार हो चुकी थी और इसके पीछे बेहद ही रोचक किस्सा है. लगभग 25 साल पहले इस दवा को तैयार करने वाली टीम के हिस्सा रहे ग्वालियर डीआरडीई के रिटायर्ड सीनियर वैज्ञानिक डॉक्टर करुणा शंकर पांडे ने ईटीवी भारत से खास बातचीत की और कई अनसुनी बातें बताई.
कोरोना की दवा 2DG ऑक्सी डी ग्लूकोज यूएसए से दवा खरीदता था भारतडॉक्टर करुणा शंकर पांडे ने बताया कि साल 1995 के पहले एनमास दवा अमेरिका से लेते थे, लेकिन अमेरिका से यह दवा आने में परेशानी होने लगी तो एनमास के तत्कालीन डायरेक्टर प्रोफेसर डॉक्टर विनय जैन ने बैठक में इस मुद्दे को रखा. देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम उस समय डीआरडीओ के महानिदेशक हुआ करते थे. उसके बाद उन्होंने इस मॉलिक्यूल को भारत में निर्माण करने को लेकर डीआरडीओ के डायरेक्टर आर बी स्वामी से बात करने को कहा. डॉक्टर स्वामी ग्वालियर इस प्रोजेक्ट को लेकर आए और यह प्रोजेक्ट डॉक्टर करुणा शंकर पांडे को सौंपा।
अब्दुल कलाम ने निभाई महत्वपूर्ण भूमिका
डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एलाइड साइंसेज (एनमास) के तत्कालीन डॉक्टर विनय जैन से पूछा कि क्या आपने इस मुद्दे पर डीआरडीई डायरेक्टर स्वामी से बात की. आप उनसे बात करो कोई ना कोई हल निकल आएगा उसके बाद डॉक्टर जैन ने डॉक्टर स्वामी से बात की और स्वामी इस प्रोजेक्ट को लेकर ग्वालियर आये. इसी मॉलिक्यूल पर जर्मनी ने ब्रेन ट्यूमर के इलाज के लिए इस दवा को बनाए जाने का प्रोजेक्ट डीआरडीओ के एनमास को दिया था. जर्मनी के इस प्रोजेक्ट पर 9 जनवरी 1998 को काम शुरू हुआ तभी अमेरिका में डीआरडीओ के 23 लैब पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध के बाद अमेरिका की लैब से मिलने वाले इस मॉलिक्यूल की सप्लाई बंद हो गई.
ऐसे शुरू हुआ ग्वालियर में दवा बनाने का काम
वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ करुणा शंकर पांडे के नेतृत्व में इस मॉलिक्यूल पर काम शुरू हुआ. जिसे एक साल में ही लगभग तैयार कर लिया गया. इसके बाद डीआरडीओ ने इस पर आईसीएमआर की मंजूरी लेकर ड्रग कंट्रोलर से भी मंजूरी ले ली और जिसके बाद इस ड्रग डिपार्टमेंट को पेटेंट के लिए भेजा गया और फरवरी 1998 में इस दवा को पेटेंट भी मिल गया, जो 2002 में मिला. तब से यह दवा लगातार कैंसर थेरेपी के लिए कारगर साबित हो रही थी. इस मॉलिक्यूल को बनाने की पेटेंट टीम में डॉक्टर करुणा शंकर पांडे, डॉ शशि नाथ दुबे, डॉक्टर रामामूर्ति वेदनाथ स्वामी और एनमास के डॉक्टर राकेश कुमार शर्मा, डॉक्टर बीएस द्वारकानाथ शामिल थे.
चूहों पर ट्रायल कर फॉर्मूला को बनाया सफल
डीआरडीओ के वैज्ञानिकों ने इस प्रोजेक्ट पर एक साल में मॉलिक्यूल को खोज कर काम शुरू किया. इसके शुरुआती ट्रायल में जब चूहों पर परीक्षण किया तो चूहों की मौत हो गई. इसका कारण जब खोजा गया तो पता चला कि जिस मॉलिक्यूल बेरियम कार्बोनेट को चूहा मारने के लिए उपयोग किया जाता है, वह ग्लूकोज से निकला ही नहीं था. उसके बाद जब ग्लूकोस को लेकर परीक्षण किया तो यह परीक्षण सफल हो गया. डीआरडीओ ने इस पर आईसीएमआर की मंजूरी लेकर ड्रग कंट्रोलर से भी मंजूरी ली और उसके बाद उसको पेटेंट कराया.
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कोविड में कारगर साबित हो रही है 2DG दवा
वैज्ञानिक डॉ करुणा शंकर पांडे का कहना है पेटेंट होने के बाद यह दवा कैंसर थेरेपी के लिए कारगर साबित हो रही थी. अभी हाल में ही एनमास और डॉक्टर रेड्डी लैब के द्वारा इस दवा का कोविड को लेकर भी परीक्षण किया गया जिसके सार्थक परिणाम सामने आए. जिसके बाद इसे अब कोविड में उपयोग करने की अनुमति दी जा चुकी है.