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'बिदरी' के साथ बोवनी शुरू करते हैं आदिवासी, इस परंपरा से दूर रहती हैं महिलाएं - जश्न

बिदरी परंपरा के साथ ही आदिवासी वोबनी की शुरूआत करते हैं, गांव के खेरमाई में पुरुष इकट्ठा होते हैं. जहां शराब चढाने के बाद पशुओं की बलि देने के साथ ये पूजा संपन्न होती है. इस कार्यक्रम में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है, साथ ही उनको यहां का प्रसाद खाने की भी अनुमति नहीं होती.

आदिवाशियों की एकता का प्रतीक है बिदरी

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Published : Jun 26, 2019, 5:24 PM IST

मण्डला। आदिवासियों की बिदरी परंपरा शुरू होने के साथ ही खेतों में बोवनी चालू हो जाती है. इसके लिए पूरे गांव के लोग खेरमाई में जुटते हैं. हर घर से बोवनी के लिए बीज लाया जाता है, जिसके बाद गांव का पुजारी जिसे बैगा कहा जाता है, वो पूरे विधि विधान से पूजा कराता है, इस पूजा में शराब चढ़ाने के साथ ही पशुओं की बलि देने की प्रथा है.मण्डला में सदियों से चली आ रही परम्पराओं का निर्वहन ठीक वैसे ही किया जाता है, जैसे उनके पुरखे किया करते थे. बिदरी परंपरा का निर्वहन किये बिना गांव का कोई भी किसान एक भी दाना खेत में नहीं डाल सकता. ये उत्सव मानसून के आगमन की सूचना देता है, जिसका आयोजन गांव के ऐसे स्थान पर होता है, जहां खेरमाई का निवास हो.


इस उत्सव को मनाने के लिए पूरे गांव से चंदा इकट्ठा किया जाता है. जैसे पूजा का सामान, बलि के लिए पशु और शराब खरीदी जाती है. पूजा के दिन गांव के बच्चे-युवा और बुजुर्ग सभी अपने-अपने घरों से बोआई के लिए टोकरियों में भर कर दाना ले जाते हैं और बैगा के पास रखते हैं. बैगा या पुजारी पूरे अनाज की पूजा करता है, जिसमे शराब और पशु भी चढ़ाए जाते हैं.

आदिवाशियों की एकता का प्रतीक है बिदरी
इसके बाद एक छोटे से खेत में थोड़ा अनाज बो दिया जाता है, जिसके बाद पशुओं को पका कर यहां चढ़ाया जाता है और शराब चढ़ाई जाती है. इस दौरान खेती में काम आने वाले यंत्रों की भी पूजा की जाती है और इसके बाद लाए गये बीज या अनाज को सभी को वापस किया जाता है, जिसे ले जाकर किसान बोवनी के लिए रखे बीज में मिलाने के बाद बोवनी की शुरुआत करते हैं. इस परंपरा में महिलाएं भाग नहीं लेतीं और न ही उन्हें यहां का प्रसाद खाने दिया जाता है.


ये उत्सव जहां आदिवासियों की सामाजिक एकता का प्रतीक है, वहीं ये जल-जंगल और जमीन की वह आराधना भी है, जिसके चलते आदिवासियों को प्रकृति का उपासक माना जाता है. लोगों का कहना है कि यदि इस पूजा के बिना खेती की शुरुआत की गई तो निश्चित ही कोई न कोई बाधा इनके सामने आ खड़ी होगी और सूखा या अतिवृष्टि के चलते फसलों का नुकासान भी हो सकता है. इस बात की सच्चाई जो भी हो, लेकिन आदिवासियों की परम्परा और प्रथा अपने आप में प्रकृति की उपासना को दर्शाती है.

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