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मां काली मंदिर की मान्यता है बेहद खास, एक साथ दो लोगों को आया था मंदिर बनाने का सपना

चाईबासा के मां काली की मंदिर 1823 में बनाया गया था. इस मंदिर की परंपरा और यहां की रीती रिवाज और मंदिरों से बेहद अलग माना जाता है. मंदिर में स्थापीत मां काली प्रतीमा को हर 12 साल के बाद विसर्जित किया जाता है. हर साल दुर्गा पूजा के दौरान भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है.

मां काली मंदिर

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Published : Oct 5, 2019, 7:30 PM IST

चाईबासाः पश्चिम सिंहभूम जिले के चाईबासा बाजार स्थित मां काली के मंदिर में 1823 से विधिवत पूजा की जा रही है. लोगों के लिए चाईबासा बाजार स्थित मां काली का मंदिर एक विशेष महत्व रखता है. इस मंदिर की खास बात यह है कि मंदिर में स्थापित मां काली की प्रतिमा 12 साल के अंतराल पर विसर्जन किया जाता है.

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राजा और विशेष ब्राहाण को आया था स्वप्न
काली मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष सब्यसाची राय बताते हैं कि सन 1823 ई. में धालभूमगढ़ वर्तमान में घाटशिला के तत्कालीन राजा रामचंद्र धवल देव को चाईबासा में मां की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करने का स्वप्न आया था. जिसके बाद राजा ने सुबह उठकर स्वप्न के अनुसार विशेष ब्राह्मण से इस बारे में पूछताछ की. उन्हें पता चला कि वह विशेष ब्राह्मण पश्चिम बंगाल स्थित बांकुड़ा जिले के जयकृष्ण पुर गांव के हैं. जिनका नाम जगन्नाथ गंगोपाध्याय है. राजा ने अपने दूत भेज कर इस संदर्भ में ब्राह्मण जगन्नाथ गंगोपाध्याय से संपर्क साधा तो वे भावुक हो उठे. ब्राह्मण ने बताया कि हुबहू यही स्वप्न उन्हें भी आया था. ब्राह्मण के मुख से यह बात सुनकर राजा यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गए.

परिवार और नौकरी छोड़ मां की सेवा में हुए लीन
हालांकि, ब्राह्मण जगन्नाथ गंगोपाध्याय वृद्ध हो चुके थे, उन्होंने इस पूरी घटना का जिक्र अपने बड़े पुत्र खेत्रो मोहन गंगोपाध्याय से किया. जिन्हें वर्धमान स्टेट के राजा के द्वारा राय उपाधि से सम्मानित किया गया था. पिता के आदेश के अनुसार राजा के भेजे गए दूत के साथ खेत्रो मोहन अपने बड़े पुत्र बलराम को साथ लेकर चाईबासा पहुंचे. वहीं विशेष स्थान पर देवी मां के मंदिर की प्रतिष्ठा का काम शुरू किया गया. मां की प्रतिमा स्थापित कर राजा से अनुरोध किया कि मैं अपना परिवार खेती नौकरी छोड़कर चाईबासा में कैसे रहूंगा, मेरे पुत्र बलराम मां की सेवा करेंगे यह कहकर खेत्रो मोहन बांकुड़ा लौट गए.

आज भी है पशु बलि देने की परंपरा
इस प्रकार राजा के द्वारा बलराम को सेवक के रूप में नियुक्त किया गया. इसके बाद से वहां पूजा-अर्चना शुरू हो गई जो आज तक निरंतर चल रही है. चाईबासा शहर के समस्त राय परिवार ही मां काली की विशेष सेवा करते चले आ रहे हैं. सब्यसाची राय ने बताया कि मां काली के मंदिर में आज भी पशु बलि देने की परंपरा है. लोग अपनी इस परंपरा को आज भी विधिवत निभाते आ रहे हैं.

मान्यता है कि मां करती हैं मन्नते पूरी
बलराम सेवक ने बताया कि लोगों की इस मंदिर से विशेष आस्था जुड़ी हुई है. यहां के कई लोग राज्य के विभिन्न जगहों पर एवं विदेशों में कार्यरत है, लेकिन15- 20 वर्षों के बाद भी जब वह चाईबासा आते हैं तो काली मंदिर पहुंचकर मां का आशीर्वाद लेते है. लोगों की मान्यताएं हैं कि मां काली के दरबार से आज तक कोई भी खाली हाथ नहीं लौटा है. मां काली अपने सभी भक्तों की मन्नते पूरी करती हैं.

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लोग कंधे पर ले जाते हैं मां काली की प्रतिमा
वहीं, इस मंदिर के सेवक भावतोष राय बताते हैं कि इस मंदिर की खास बात यह है कि मंदिर में स्थापित मां काली की प्रतिमा 12 वर्ष के अंतराल पर विसर्जन किया जाता है. मां काली के 12 वर्ष पूरे होने पर मां काली की प्रतिमा को लोग अपने कंधों पर रखकर ढोल ताशे के साथ नृत्य करते हुए विसर्जित करते हैं. जबकि मां काली की प्रतिमा विसर्जित होने के 11 दिन के भीतर नई प्रतिमा का निर्माण पूर्ण कर मंदिर में स्थापित कर देने की परंपरा है, जो पूरे विधि विधान के साथ मां काली की प्रतिमा पुनः स्थापित की जाती है.

कई राज्यों के श्रद्धालुओं का लगता है तांता
मंदिर के पुरोहित अनूप मल्लिक का कहना है कि इस मंदिर का विशेष महत्व है. मां का आशिर्वीद और अपनी मन्नत पूरा करने श्रद्धालु झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के विभिन्न स्थानों से हजारों लोग यहां पहुंचते हैं. माना जाता है कि मां काली अपने सभी भक्तों की मन्नतें जरुर पूरी करतीं हैं. जिसे देख अन्य जगहों से भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती हैं.

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