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झारखंड में पी-पेसा कानून पर सरकार कंफ्यूज या टीएसी! अनुदान राशि कटने का है खतरा, कहां है पेंच, कौन भुगत रहा खामियाजा

Panchayat Extension to Scheduled Areas (PESA ACT) झारखंड में पेसा कानून के लागू नहीं होने की वजह से राज्य को केंद्र से मिलने वाली अनुदान राशि के कटने का खतरा है. आखिर में कहां पेंच फंसा है. इस पैसे के नहीं आने से इसका खामियाजा किसे भुगतना होगा- पढ़ें, रांची ब्यूरो चीफ राजेश सिंह की रिपोर्ट.

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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Nov 21, 2023, 6:02 PM IST

Updated : Nov 21, 2023, 9:49 PM IST

रांची: आदिवासी बहुल झारखंड में 13 जिले ऐसे हैं जो संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत शिड्यूल एरिया में आते हैं. लेकिन राज्य बनने से लेकर आज तक अनुसूचित क्षेत्रों में 1996 का पी पेसा कानून लागू नहीं हो पाया. अलबत्ता, पंचायती राज विभाग ने झारखंड राज पंचायत अधिनियम, 2001 के हवाले से 2010. 2015 और 2022 में पंचायत चुनाव भी करा दिया. हालांकि यह मामला सड़क से सदन तक उठता रहा है. इस पर सबसे ज्यादा मुखर आदिवासी कोटे के कुछ विधायक रहे हैं. ऊपर से पेसा और पी-पेसा को लेकर उलझन बना रहा. कई आदिवासी संगठन जिसमें आदिवासी बुद्धिजीवी मंच पी-पेसा के क्रियान्वयन की हर स्तर पर लड़ रहा है. वहीं पंचायती राज विभाग की पी-पेसा पर अपनी दलील है. लिहाजा, यह समझना जरूरी है कि पी-पेसा, 1996 की मांग क्यों हो रही है और इसके लागू नहीं होने से किसको खामियाजा उठाना पड़ रहा है.

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झारखंड पंचायती राज विभाग की दलील: पंचायती राज विभाग की निदेशक निशा उरांव ने बताया कि पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया यानी पेसा को लेकर जुलाई 2023 में औपबंधित ड्राफ्ट प्रकाशित कर एक माह के भीतर सुझाव और आपत्तियां मांगी गई थी. इसको लेकर 200 से ज्यादा सुझाव और आपत्तियां आई हैं. जो भी सुझाव कानूनी रूप से सही हैं, उनको ड्राफ्ट में शामिल किया गया है और गैर-वाजिब आपत्तियों को रिजेक्ट किया जा चुका है. इसके पुनरीक्षण का काम चल रहा है. झारखंड पंचायती राज विभाग की दलील है कि यह मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गया था. जहां माननीय न्यायालय ने झारखंड पंचायती राज अधिनियम,2001 को पेसा के अनुरूप बताया था और चुनौती देने वालों की याचिका खारिज कर दी थी. झारखंड हाईकोर्ट का यह फैसला प्रभु नारायण सैमुएल सुरीन बनाम केंद्र सरकार मामले में आया था.

आदिवासी बुद्धिजीवी मंच का तर्क: दूसरी तरफ आदिवासी बुद्धिजीवी मंच की दलील है कि झारखंड पंचायती राज विभाग ने कोर्ट में गलत शपथ पत्र दायर किया था. इसी वजह से कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में नहीं आया. जिसको चुनौती दी गई है. यह मामला लंबित है. इसपर 28 नवंबर 2023 को झारखंड हाईकोर्ट में सुनवाई होनी है. मंच की कोशिश है कोर्ट को यह बताना कि कैसे झारखंड पंचायती राज विभाग ने केंद्र सरकार के गजट को गलत तरीके से परिभाषित किया और अपेक्षित नियमावली के बगैर अनुसूचित क्षेत्रों में त्रिस्तरीय पंचायत आम चुनाव कराती रही. मंच का यह भी सवाल है कि झारखंड सरकार बिना नियमावली के केंद्र की अनुदान राशि, जनजातीय उपयोजना योजना की राशि, डीएमएफटी की राशि कैसे खर्च करती रही. साथ ही खनिज लीज पट्टा, बालू घाट की नीलामी जैसे मसलों पर कैसे फैसले लेते रही. यह जांच का विषय है. मंच का यह भी कहना है कि नियमावली के अभाव में अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों की जमीन का अवैध रूप से अधिग्रहण हो रहा है.

टीएसी भी पी-पेसा के पक्ष में: सबसे खास बात है कि झामुमो के वरिष्ठ नेता सह ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य स्टीफन मरांडी भी पंचायती राज विभाग के इस रुख से सहमत नहीं हैं. उनका भी साफ तौर पर कहना है कि झारखंड में पी-पेसा ही लागू होना चाहिए. पंचायती राज विभाग के ड्राफ्ट 2022 पर उन्होंने आपत्ति जताई है. उन्होंने बताया कि इस मसले पर 16 नवंबर को हुई टीएसी की बैठक में भी चर्चा हुई थी. इसके बाद तय हुआ कि पी-पेसा को लेकर और सुझाव मांगे जाएं. उनसे यह पूछा गया कि आखिर कब तक इसको अमली जामा पहनाया जाएगा. इसके जवाब में उन्होंने कहा कि जल्द से जल्द इसको लागू करना होगा नहीं तो ओडिशा की तरह झारखंड के शिड्यूल एरिया के ग्राम पंचायतों को मिलने वाली अनुदान राशि में केंद्र सरकार कटौती कर देगी.

पी-पेसा और पेसा में क्या है अंतर: आमतौर पर सरकार और इनसे जुड़े एनजीओ इस कानून को पेसा, 1996 या पंचायत राज एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया के नाम से पुकारते हैं. लेकिन भारत सरकार के द्वारा 24 दिसंबर 1996 को प्रकाशित गजट में इसका पूरा नाम पी-पेसा यानी "The Provisions of the Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) Act, 1996 " है. इसके तहत पंचायतों के कुल 23 प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों पर अपवादों और उपांतरणों के अधीन विस्तारित किया गया है. जिसकी धारा 3, 4, 4(डी), 4(ओ), 4 (एम) (i to vii) और धारा 5 के अनुपालन में पी-पेसा, 1996 के तहत नियमावली बनाना सरकार की संवैधानिक बाध्यता है. धारा 5 के अनुसार नियमावली बनाने की समय सीमा एक साल ही निर्धारित की गई थी.

पी-पेसा पर अविभाजित बिहार का स्टैंड: सबसे खास बात है कि झारखंड बनने से पहले ही अविभाजित बिहार में तत्कालीन सरकार ने पी-पेसा, 1996 की धाराओं के हवाले से खान एवं भूतत्व विभाग, बिहार सरकार के उप सचिव ने 6 मार्च 1998 को पत्र जारी कर सभी प्रमंडलीय आयुक्त से पेसा की धारा 4(K), 4(L) के प्रावधानों का हवाला देते हुए 1972 के बिहार लघु खनिज समानुदान नियमावली में संशोधन की बात की थी. इसके तहत माइनर मिनिरल के ऑक्शन और खनन पर ग्राम सभा को अधिकृत किया गया था. लेकिन झारखंड बनने के बाद भी यह व्यवस्था यहां लागू नहीं हुई.

झारखंड पंचायती राज विभाग पर गंभीर सवाल: झारखंड पंचायती राज विभाग ने वर्तमान पेसा ड्राफ्ट रुल 2022 को जेपीआरए 2001 की धारा 131 की उपधारा 1 के तहत तैयार किया है. जबकि धारा 131 के मुताबिक राज्य सरकार सिर्फ जेपीआरए ,2001 के ही प्रावधानों को और अधिक उपयोगी बनाने के लिए नियमावली बना सकती है. जबकि गलत तरीके से जेपीआरए की धारा 131 का इस्तेमाल पी-पेसा के प्रावधानों को निष्क्रिय करने के लिए किया जा रहा है. यह समझना जरूरी है कि पी-पेसा को संविधान के अनुच्छेद 243 (M)(4b) के तहत संसद ने पारित किया है जबकि झारखंड पंचायती राज अधिनियम 2001 राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून है, जो सामान्य क्षेत्र के लिए है.

देश में पांचवी अनुसूची में दस राज्य :आप को बता दें कि देश में पांचवी अनुसूची में 10 राज्य आते हैं, इनमें छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हिमाचल, राजस्थान और गुजरात का नाम शामिल है. लेकिन कहीं भी पी-पेसा,1996 के प्रावधानों के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के निवासियों को संवैधानिक अधिकार नहीं मिला है. पिछले दिनों झारखंड हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के ड्राफ्ट रूल्स 2022 पर याचिकाकर्ताओं को आपत्ति दर्ज करने का आदेश दिया था और झारखंड सरकार को उन अपत्तियों पर तर्कपूर्ण आदेश पारित करने को कहा था लेकिन सरकार ने अभी तक तर्कपूर्ण आदेश पारित नहीं किया है. चूकि इस मामले में केंद्र सरकार को भी पार्टी बनाया गया है, लिहाजा, केंद्र सरकार अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्यों पर लगातार प्रेशर बना रही है कि पी-पेसा पर रुल नहीं बनने की स्थिति में 15वें वित्त आयोग की अनुदान राशि संबंधित अनुसूचित क्षेत्रों के लिए नहीं मिलेगा. इसका सबसे ज्यादा खामियाजा वहां के आदिवासी , मूलवासी समाज को भुगतना पड़ेगा.

Last Updated : Nov 21, 2023, 9:49 PM IST

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