खूंटी: 23 साल के अपने झारखंड में अब तक स्थानीय नीति परिभाषित नहीं हो पाई, और न ही रोजगार नीति बनी है. ये दो बड़े कारण हैं जिसके कारण यहां के युवाओं को रोजगार के लिए पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. मजदूरी करने की यह मजबूरी उनकी जिंदगी पर इतनी भारी पड़ती है जिसका उदाहरण उत्तराखंड के टनल में टंगी जिंदगी की आस है.
परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था करने के लिए लोग आज भी अपने गांव से निकल कर दूसरे शहरों और राज्यों का रुख कर रहे हैं. बाहरी राज्यों में जाकर यहां के ग्रामीण खेतों, फैक्ट्रियों में दिहाड़ी मजदूरी करते हैं. जिससे उनके परिवार का भरण पोषण होता है.
आदिवासी बाहुल खूंटी जिले के आदिवासी किसान है. और खेती बाड़ी करके जीवन यापन करते है. कृषकों को समय और खाद बीज एवं अन्य सरकारी लाभ समय पर नही मिलने के कारण भी पलायन करने पड़ता है. ग्रामीण मानते है कि उन्हें योजनाओं की जानकारी नही होती और सिस्टम उन्हें जानकारी देने की कोशिश भी नही करता है. जिसके कारण उन्हें कृषक कार्य को छोड़कर बाहरी राज्यों की ओर रुख करना पड़ता है. ग्रामीण और स्थानीय मुखिया का भी कहना है कि अगर सरकारी योजनाओं का लाभ ग्रामीण क्षेत्रो में मिलने लगे तो शायद आदिवासी ग्रामीणों को अपने गांव घर से दूर जाना नही पड़ेगा. जबकि अधिकारी का दावा है कि उन्हें योजनाओं का लाभ दिया जाता है.
सरकारी तंत्र के दावे तो हजार होते है लेकिन जमीनी स्तर पर उन्हें लाभ नहीं पहुंच पाता है. अगर समय पर लाभ मिलता तो आज खूंटी जिले के कर्रा प्रखंड क्षेत्र के आदिवासी ग्रामीण उत्तराखंड दो जून की रोटी जुटाने नहीं जाता. वहां नहीं जाता तो शायद टनल में नहीं फंसता.
मजदूर की पत्नी सोमरी लकड़ा ने कहा कि उन्हें सरकारी योजनाओं की जानकारी नही जिन्हें है. उसको लाभ मिलता है. सरकारी तंत्र कभी भी उन्हें लाभ दिलाने के लिए उनके गांव तक पहुंच ही नहीं है. परिवार को लोगों के इस बात की आस है जो टनल में फंसे हैं वे वापस आ जाएं लेकिन सरकारी तंत्र का जो रवैया है वह आज भी सवाल लिए खड़ा है इन्हें सुविधा के नाम पर मिलेगा क्या.