खूंटी:हिंदुस्तान की आजादी से 72 साल पहले 18 नवंबर 1875 को खूंटी के उलीहातू गांव में एक बच्चे का जन्म हुआ था. मां-बाप ने नाम रखा था बिरसा मुंडा जिन्हें आगे चलकर आदिवासियों ने भगवान का दर्जा दिया. धरती आबा कहे जाने वाले बिरसा मुंडा जब बड़े हुए तो सूदखोरों और अंग्रेजों का आतंक देखा. उन्होंने हक के लिए ऐसी लड़ाई छेड़ी कि कम उम्र में ही बिरसा आदिवासियों के लिए मसीहा बन गए. बिरसा थोड़ा-बहुत इलाज भी जानते थे. किसी को कोई बीमारी होती तो दवा से ठीक कर देते थे. इससे बिरसा लोगों के लिए भगवान बन गए. बिरसा के पिता का नाम सुगना मुंडा और मां का नाम करमी था.
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अहिंसा के पुजारी थे बिरसा
बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा जयपाल नाग की तरफ से संचालित सलगा स्कूल और प्राथमिक शिक्षा बुडजू स्थित प्राथमिक स्कूल में हुई. बाद में उच्च शिक्षा के लिए चाईबासा गए. इस दौरान उन्होंने मिशनरियों की तीखी आलोचना की. इसके बाद उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया. 1891 में बन्दगांव के आनंद पांडे से मुलाकात कर बिरसा ने वैष्णव धर्म के प्रारंभिक सिद्धातों रामायण और महाभारत की कथाओं का ज्ञान हासिल किया. इसके बाद बिरसा धर्म परायण हो गए. बिरसा के आंदोलन से नए धर्म का सूत्रपात हुआ जिसे बीरसाइत धर्म कहा जाता है. यहीं से विरसाइत धर्म की शुरुआत हुई. बिरसा अहिंसा के पुजारी थे. बिरसा ने सरदारी आंदोलन का अनुसरण किया. जल-जंगल-जमीन के आंदोलन का नेतृत्व किया. इसी वजह से लोग उन्हें धरती आबा कहने लगे. आंदोलन के क्रम में 22 अगस्त 1895 को बिरसा पहली बार गिरफ्तार हुए.
कहकर गए थे जल्द जेल से लौटूंगा
बिरसा पर मुकदमा चला और 19 नवम्बर 1895 को दो साल की सजा सुनाई गई. इसके साथ ही उन पर 50 रुपए का जुर्माना भी लगाया गया. जब बिरसा की गिरफ्तारी हुई थी तब उन्होंने लोगों से कहा था कि मैं जल्द वापस लौट आऊंगा. चाहे जेल तोड़कर ही सही मैं जल्द लौटूंगा. मुझे कोई रोक नहीं सकता. दो साल से पहले ही बिरसा की रिहाई हो गई. जब से लौटे तो उनका कद और बढ़ गया. जड़ी-बूटी से लोगों का इलाज करते थे और इससे लोग ठीक भी हो जाते. लोगों को लगने लगा कि बिरसा जिसे छूते हैं वह ठीक हो जाता है. इसी के चलते लोग उन्हें भगवान मानने लगे. लोगों को लगता था कि बिरसा चमत्कार कर रहे हैं.
जल-जंगल-जमीन के लिए किया था आंदोलन
बिरसा मुंडा ने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए उलगुलान किया था. जनवरी 1900 में डोंबरी पहाड़ पर बिरसा जब जनसभा को संबोधित कर रहे थे तब अंग्रेजों से लंबा संघर्ष हुआ और इसमें कई आदिवासी मारे गए. बाद में 3 मार्च 1900 को चक्रधरपुर में बिरसा की गिरफ्तारी हुई. 9 जून 1900 को बिरसा ने अंतिम सांस ली. वैसे तो बिरसा मुंडा के निधन का कोई प्रमाण नहीं है लेकिन, आरोप है कि अंग्रेजों ने जहर देकर उन्हें मार दिया था. करिया मुंडा बताते हैं कि बिरसा में सचमुच की ऐसी शक्तियां थी जिससे लोग उनकी तरफ आकर्षित थे. लोग उनकी हर बात मानते थे और भगवान की तरह पूजते थे. बिरसा के निधन के बाद उनके शव को कोकर स्थित डिस्टलरी के बगल में दफना दिया गया जो एक ऐतिहासिक समाधि स्थल के रूप में स्थापित है.
पारंपरिक हथियार के दम पर ही अंग्रेजों को पिलाया था पानी
बिरसा मुंडा के वंशज बताते हैं कि वे गांव-गांव जाकर लोगों को आंदोलन के लिए जोड़ते थे. पारंपरिक हथियार के दम पर ही अंग्रेजों को पानी पिला दिया था. तोप और बंदूक के सामने तीर-धनुष और कुल्हाड़ी के दम पर ही अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने की ठानी थी. अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर करने वाले बिरसा मुंडा महज 25 बरस की उम्र में ही इस दुनिया से रुखसत हो गए थे. लेकिन, कम समय में ही उन्होंने देश की आजादी और आदिवासियों के हक के लिए जो मशाल जलाया वह वाकई अकल्पनीय है.