रांचीः झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां विधानसभा की 81 सीटें हैं. इनमें 28 सीटें जनजातीय समाज के लिए आरक्षित है. संविधान में इसलिए यह व्यवस्था की गई है ताकि जनजातीय समाज अपने बीच से प्रतिनिधि चुनकर अपने हक की बात कर सके. इस समाज से चुनकर आने वाले माननीय भी आवाज उठाने में कोई कमी नहीं करते. अपने समाज के लिए खुलकर आवाज बुलंद करते हैं.
उसी का नतीजा है कि पिछले साल विशेष सत्र बुलाकर सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया. इस समाज को उसका वाजिब हक मिले, इसी मकसद से वर्तमान सरकार ने सरकारी नौकरी में जनजातीय भाषा को प्राथमिकता दी. वर्तमान में झारखंड की पूरी बागडोर संभाल रहे हेमंत सोरेन के अलावा मंत्री रामेश्वर उरांव, चंपई सोरेन, जोबा मांझी इसी समाज से आते हैं. राज्य बनने के बाद से लेकर अबतक सिर्फ रघुवर दास को छोड़कर इसी समाज के पास राज्य की कमान रही. यही वजह है कि झारखंड की राजनीति आदिवासियों के ईर्द गिर्द घूमती रहती है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि आदिवासी समाज से चुनकर आए ज्यादातर माननीयों को अपने समाज में टैलेंट नहीं दिखता है.
ये भी पढ़ें-भोजपुरी-मगही को लेकर सीएम हेमंत का बड़ा बयान, झारखंड-बिहार की राजनीति गरमाई
माननीयों के आदिवासी प्रेम का सच
विधानसभा चुनाव 2019 में जनजातियों के लिए रिजर्व 28 सीटों में 19 सीटों पर झामुमो, 7 सीटों पर कांग्रेस और सिर्फ 2 सीटों पर भाजपा प्रत्याशी की जीत हुई. इनमें 16 विधायक ऐसे हैं जिनके निजी सचिव या खास काम देखने वाले गैर आदिवासी हैं. तीन ऐसे हैं जिन्होंने निजी सचिव नहीं रखा है जबकि नौ माननीयों ने अपने समाज के युवाओं को जिम्मेदारी दे रखी है. इससे आप समझ सकते हैं कि आदिवासियों के वोट के बल पर सदन पहुंचने वाले ज्यादातर माननीयों का अपने ही समाज के प्रति क्या स्टैंड है.
28 माननीयों के निजी सचिवों की सूची पार्टी स्तर पर नजर डालें तो झामुमो के 19 में से 9 विधायकों के निजी सचिव या कामकाज देखने वाले गैर आदिवासी हैं. झामुमो के दो विधायक यानी स्टीफन मरांडी और बसंत सोरेन ने कोई निजी सचिव नहीं रखा है जबकि पार्टी के सात विधायकों ने आदिवासी समाज के युवाओं को अपना सचिव बनाया है. कांग्रेस के सात ट्राइबल विधायकों में से पांच के सचिव गैर आदिवासी हैं, एक ने सचिव नहीं रखा है जबकि सिर्फ खिजरी विधायक राजेश कच्छप के सचिव आदिवासी समाज से हैं. रही बात भाजपा कि तो पार्टी के दोनों विधायकों ने सचिव गैर आदिवासी हैं. हालाकि कोचे मुंडा ने ऑफिशियर रूप से सचिव नहीं रखा है लेकिन उनके अन्य कामकाज देखने वाले गैर आदिवासी ही हैं.