रांचीः झारखंड में तमाम वैसी चीजें हैं जो एक राज्य को विकसित बना सकती हैं. खनिजों का बेशुमार भंडार है. झरने, पेड़-पहाड़ हैं. अब सवाल है कि राजनीति की कसौटी पर झारखंड कहां खड़ा है, इसको एक वाक्य में समझा जा सकता है, जैसे यह कि 28वें राज्य के रूप में गठन के 21 साल बाद तक झारखंड में किसी भी पार्टी को चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन सरकारें तो चलती रहती हैं. चाहे जोड़-तोड़ कर बनें या तोड़-मरोड़ कर. पिछले 21 वर्षों की राजनीति में झारखंड में एक से एक गुल खिले.
झारखंड का सियासी सफर
साल 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड के 21 साल पूरा होने वाले हैं. इन 21 सालों में झारखंड की राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं रही, इस दौरान 11 मुख्यमंत्री और तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा. रघुवर दास ही एक ऐसे सीएम रहे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया है.
2000 में बना था अलग राज्य
तत्कालीन दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर 15 नवंबर 2000 को भारत के मानचित्र पर 28वें राज्य के रूप में झारखंड का उदय हुआ. उस वक्त बीजेपी ने बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में झारखंड में सरकार का गठन किया.
बीजेपी 30लेकिन 5 वर्ष के कार्यकाल के हिसाब से जहां चार सरकारें बननी थी, वहां 11 सरकारें बनीं. राज्य गठन से लेकर साल 2014 के विधानसभा चुनाव के पहले तक तमाम सरकारों की चाबी चंद निर्दलीय विधायकों की जेब में रही.
निर्दलीय विधायकों ने किया तख्ता पलट
गठबंधन के नेताओं में मतभेद के चलते बाबूलाल मरांडी के इस्तीफे के बाद अर्जुन मुंडा ने 18 मार्च 2003 से 2 मार्च 2005 तक कुल 715 दिनों तक सत्ता की कमान संभाली. इसके बाद झारखंड विधानसभा चुनाव 2005 में जनादेश बिखरा हुआ मिला. बीजेपी को 30 सीटों पर जीत मिली. जेएमएम 17, कांग्रेस 9, आरजेडी 7, जेडीयू 6 और अन्य के खाते में 12 सीटें गईं. यूपीए के नेतृत्व में शिबू सोरेन ने सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन 10 दिनों के अंदर ही बहुमत साबित करने के दिन शिबू सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा.
जोड़तोड़ की राजनीति
इसके बाद 2005 के चुनावी नतीजों ने झारखंड की राजनीति को मकड़जाल में उलझा दिया. गठबंधन और जोड़तोड़ की राजनीति शुरू हुई. इस चुनाव में भाजपा 30 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन बहुमत के लिए 11 विधायकों को जोड़ने में उसके पसीने छूट गए.
किसी पार्टी को बहुमत नहीं 2005 से 2009 के बीच चार मुख्यमंत्री
झारखंड की राजनीति 2005 से 2009 के बीच झंझावातों से जूझती रही. खंडित जनादेश के चलते राजनीति के समीकरण बनते-बिगड़ते रहे. गठबंधन के नेताओं में मनमुटाव और आपसी स्वार्थ इतनी पैठ बना चुकी थी कि आखिरकार एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा. हालांकि झारखंड की राजनीति में ये प्रयोग सफल नहीं रहा. ये वो दौर था जब झारखंड की सबसे ज्यादा बदनामी हुई.
जब 2005 में विधानसभा का पहला चुनाव हुआ तो झारखंड की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल गई. किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला. फिर भी शिबू सोरेन तीसरे मुख्यमंत्री बन गए. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया. जब सदन में बहुमत साबित करने की बात आई तो यूपीए में शामिल कमलेश सिंह और जोबा मांझी पलट गए. 10 दिन में ही शिबू सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा. अब चौथी सरकार बनने की बारी थी. इसके लिए भी जबरदस्त खेल हुआ. अपनी गोटी सेट करने के लिए भाजपा ने निर्दलीयों को जोड़ा और जयपुर में सैर कराते कराते अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में चौथी सरकार बना ली.
ऐसे ही नाजुक हालात में अर्जुन मुंडा दूसरी बार मुख्यमंत्री बनाए गए. 12 मार्च 2005 से 14 सितंबर 2006 तक अर्जुन मुंडा ने कुर्सी संभाले रखी. इस दौरान शुरू की गई मुख्यमंत्री कन्यादान योजना की पूरे देश में सराहना की गई. युवा सोच वाले अर्जुन झारखंड के विकास का लक्ष्य साध पाते, उससे पहले ही एक बार फिर राजनीतिक उथलपुथल तेज हो गई और यूपीए की शह पर निर्दलीय विधायकों ने मुंडा सरकार का तख्ता पलट दिया. 2005 के चुनाव में भाजपा का टिकट कटने से नाराज और बतौर निर्दलीय चुनाव जीतकर आए मधु कोड़ा को झामुमो, कांग्रेस ने साध लिया. तब ऐसा हुआ कि 18 सितंबर 2006 को निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बन गए. झारखंड में यह पांचवी सरकार थी.
मधु कोड़ा के नेतृत्व में सरकार चलने लगी और देखते-देखते भ्रष्टाचार के मामले सामने आने लगे तब निर्दलीयों का बोलबाला था. फिर प्लॉटिंग शुरू हुई और मधु कोड़ा के 2 वर्ष का कार्यकाल पूरा होने के एक माह पहले ही सीएम की कुर्सी चली गई. अब बारी थी छठी सरकार की. तब कांग्रेस ने राजद और निर्दलीयों को मिलाकर शिबू सोरेन का साथ दिया. आंकड़े बन गए और 27 अगस्त 2008 को शिबू सोरेन झारखंड के छठे मुख्यमंत्री बन गए. बतौर मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की यह दूसरी पारी थी. 27 अगस्त 2008 से 12 जनवरी 2009 की तारीख आते ही शिबू सोरेन को फिर कुर्सी गंवानी पड़ी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में उनकी हार हो गई.
2009 में भी किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. अलबत्ता 2005 के चुनाव में 30 सीटें जीतने वाली भाजपा 18 सीट पर सिमट गई और झामुमो ने पिछले चुनाव के मुकाबले एक सीट ज्यादा लाकर भाजपा की बराबरी कर ली. इस चुनाव में भाजपा से अलग होकर जेवीएम पार्टी बनाकर मैदान में उतरा और 11 सीट लाकर चौथी पार्टी बनी.
नतीजा यह हुआ कि झारखंड में दूसरी बार 1 जून 2010 को राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. राष्ट्रपति शासन के दौरान आठवीं सरकार बनने की पटकथा तैयार होने लगी. अपने पुराने जख्म बुलाकर भाजपा और झामुमो एक दूसरे के करीब आ गए. दोनों दलों में 28-28 महीने सरकार चलाने की शर्त पर सहमति बनी और अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में झारखंड को आठवां मुख्यमंत्री मिला. बतौर मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की यह तीसरी पारी थी. लेकिन 28 माह पूरा होने से पहले ही झामुमो ने स्थानीयता के मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया. राजनीतिक अस्थिरता के कारण झारखंड में 18 जनवरी 2013 को तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा. यहां से झारखंड की राजनीति का नया चैप्टर शुरू हुआ.
झारखंड में राष्ट्रपति शासन
झारखंड में दूसरी विधानसभा के कार्यकाल पूरा होने से तीन महीना पहले ही राष्ट्रपति शासन के दौरान ही तीसरी विधानसभा के लिए चुनाव कराने पड़े. 2009 के चुनाव के वक्त उठी बयार इशारा कर चुकी थी कि इस बार भी झारखंड की राजनीति बैसाखी पर ही खड़ी रहेगी और हुआ भी वैसा ही. सरकार बनाना किसी के बूते की बात नहीं थी. फिर बीजेपी के समर्थन से शिबू सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनी जो सिर्फ 152 दिन ही चल सकी. अस्थिरता के बीच 102 दिन के लिए दूसरी बार झारखंड में राष्ट्रपति शासन लगा. इसके बाद जेएमएम के समर्थन से बीजेपी के अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने, लेकिन 860 दिन ही कुर्सी बचा सके. जेएमएम द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण सूबे में तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा जो 175 दिन तक रहा. अंत में कांग्रेस के समर्थन से हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने और 533 दिन तक मुख्यमंत्री बने रहे.
झारखंड में कब-कब लगा राष्ट्रपति शासन राजनीतिक अस्थिरता के कारण पहली बार 19 जनवरी 2009 को झारखंड में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. राष्ट्रपति शासन के दौरान ही 2009 में झारखंड में दूसरा विधानसभा चुनाव हुआ. इस बार भी किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. शिबू सोरेन मुख्यमंत्री पद के लिए अड़े रहे तब आजसू और भाजपा के सहयोग से शिबू सोरेन तीसरी बार 30 दिसंबर 2009 को मुख्यमंत्री के पद पर काबिज हुए और झारखंड को सातवां मुख्यमंत्री मिला, तब शिबू सोरेन लोक सभा सांसद थे. संसद में यूपीए के पक्ष में वोट देने के कारण भाजपा ने शिबू सोरेन से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई.
शिबू सोरेन ने अपने बेटे हेमंत सोरेन को राजनीति के फ्रंट फुट पर लाए. राष्ट्रपति शासन का समय पूरा होने से पहले ही हेमंत सोरेन की बिसात पर कांग्रेस और निर्दलीयों के समर्थन से झारखंड में नौवीं सरकार बनी. 13 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन पहली बार मुख्यमंत्री बने. हेमंत सोरेन के कार्यकाल में ही झारखंड में तीसरा विधानसभा चुनाव हुआ.
2014 के विधानसभा चुनाव में जेएमएम दूसरे नंबर की पार्टी बनीं और हेमंत सोरेन नेता प्रतिपक्ष बनाए गए. विकसित झारखंड का सपना देखने वाले हेमंत सोरेन पर फिलहाल भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगा है. युवा होने की वजह से ऊर्जा से भरपूर हेमंत की युवाओं में अच्छी लोकप्रियता है. इन दिनों वे जेएमएम में अंदरुनी कलह से दो-चार हो रहे हैं. चुनाव में विधायकों के दलबदल को रोकना भी उनके लिए एक बड़ी चुनौती है.
झारखंड की राजनीति स्वार्थ सिद्धि का जरिया बन चुकी थी. हर छोटी-बड़ी बात पर विधायक अपना पाला बदल रहे थे. तब लालू यादव की पहल पर जगरनाथपुर से निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री पद पर बिठाया गया और जेएमएम, कांग्रेस और राजद के समर्थन से सरकार एक बार फिर पटरी पर चलती दिखने लगी. हालांकि जोड़तोड़ वाली ये सरकार विवादों में रही और मधु कोड़ा को इस्तीफा देना पड़ा. नतीजा ये हुआ कि कुर्सी की खींचतान में 4 बार सरकार बदली और शिबू सोरेन से होते हुए अंत में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ गया.
बाबूलाल मरांडी का कार्यकाल
15 नवंबर 2000 को जब झारखंड बना तो भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को कमान सौंपी. 28 महीने के भीतर ही झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी को डोमिसाइल की आग में कुर्सी गंवानी पड़ी. दांवपेच के कारण भाजपा ने बाबूलाल मरांडी के कैबिनेट में कल्याण मंत्री रहे युवा आदिवासी अर्जुन मुंडा को सत्ता के शीर्ष पर बिठा दिया. यहां तक तो फिर भी ठीक था.
उस समय के राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार बाबूलाल मरांडी राज्य को बेहतर तरीके से विकसित कर सकते थे. राज्य की सड़कें, औद्योगिक क्षेत्र और रांची को ग्रेटर रांची बना सकते थे. शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई सराहनीय कदम उठाए, छात्राओं के लिए साइकिल की व्यवस्था, ग्राम शिक्षा समिति बनाकर स्थानीय विद्यालयों में पारा शिक्षकों की बहाली, आदिवासी छात्र छात्राओं के लिए प्लेन पायलट की प्रशिक्षण, सभी गांवों, पंचायतों और प्रखंडों में आवश्यकतानुसार विद्यालयों का निर्माण, राज्य में सड़कें, बिजली और पानी की उचित व्यवस्था के लिए अन्य योजनाओं की शुरुआत की. राजनैतिक समीक्षकों का मानना है कि बाबूलाल मरांडी के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए प्रदेश में बेहद महत्वपूर्ण सुधार हुआ. उन्होंने राज्य में सड़क निर्माण पर विशेष ध्यान दिया था. जनता को विश्वास होने लगा था कि झारखंड राज्य विकास की ओर अग्रेसित हो रहा है. लेकिन बाबूलाल मरांडी उनके इस विश्वास को कम समय में पूरा नहीं कर सके और उन्हें जदयू के हस्तक्षेप के बाद अपने कार्यकाल से पहले ही सत्ता छोड़ अर्जुन मुंडा को कुर्सी सौंपनी पड़ी.
जेएमएम को मिले कई मौके
बीजेपी के पास सबसे ज्यादा सीट होने के बाद भी तत्कालीन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने जेएमएम को सरकार बनाने का मौका दिया और शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने. हालांकि बहुमत नहीं होने के कारण 10 दिन बाद ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया. बीजेपी से अर्जुन मुंडा ने दोबारा कमान संभाली, लेकिन 555 दिन बाद वे भी राजनीतिक उथल-पुथल के शिकार हो गए.
शिबू सोरेन को 2006 में 12 साल पुराने अपहरण और हत्या के केस में दोषी पाया गया. यह मामला उनके पूर्व सचिव शशिनाथ झा के अपहरण और हत्या का आरोप था. ऐसा कहा गया था कि शशिकांत का दिल्ली से अपहरण कर रांची में मर्डर किया गया था. दिल्ली की एक अदालत ने 1994 के इस हत्याकांड में पांच दिसंबर 2006 को शिबू सोरेन को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई.
2006 में मधु कोड़ा की किस्मत चमकी
एनडीए की नेतृत्व वाली बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा की सरकार में मधु कोड़ा मंत्री रहे. लेकिन 2005 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने मधु कोड़ा को टिकट नहीं दिया, जिससे नाराज होकर वो निर्दलीय चुनावी मैदान में कूद पड़े और जीत भी हासिल की. आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की पहल पर जगन्नाथपुर से निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को सहयोगी दलों ने समर्थन दिया और सरकार बन गई. 14 सितंबर 2006 को मधु कोड़ा ने सीएम की कुर्सी संभाली और 23 अगस्त 2008 तक कुल 709 दिनों तक झारखंड में राज किया. इस सरकार में ज्यादातर मंत्री निर्दलीय विधायकों को ही बनाया गया था. पूरे कार्यकाल के दौरान सरकार ने ऐसे फैसले लिए जो जनहित में नहीं थे. विधायक अपने वेतन-भत्ते बढ़ाते रहे और सदन को बेवजह बाधित कर विधानसभा की गरिमा को भी ठेस पहुंचाई. इसके बाद जेएमएम ने समर्थन वापस ले लिया और मधु कोड़ा की गद्दी छिन गई.
तीसरा कार्यकाल भी नहीं हो सका पूरा
मधु कोड़ा के दामन पर भ्रष्टाचार के दाग लगे और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी. इसका फायदा जेएमएम को मिला और शिबू सोरेन फिर से सत्ता पर काबिज हो गए. विधानसभा चुनाव 2009 में भी स्पष्ट जनादेश नहीं होने के चलते जोड़तोड़ कर पहले शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन सरकार गिर गई और 102 दिनों के लिए राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. इसके बाद जेएमएम के सहयोग से ही बीजेपी ने सरकार का गठन किया. अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री की तीसरी पारी 11 सितंबर 2010 से 18 जनवरी 2013 तक संभाली. अर्जुन मुंडा को जेएमएम, आजसू, जेडीयू और दो निर्दलीय विधायकों ने बिना शर्त समर्थन दिया. अर्जुन मुंडा सीएम और हेमंत सोरेन डिप्टी सीएम बनाए गए. दोनों के बीच तालमेल नहीं बना तो 860 दिन बाद फिर से राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आ गई. इसके बाद सत्ता के नए समीकरण बने और हेमंत सोरेन यूपीए के समर्थन से मुख्यमंत्री बन बैठे.
झारखंड के नौवें मुख्यमंत्री बने हेमंत सोरेन
13 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन ने झारखंड के नौवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. हेमंत को कांग्रेस, आरजेडी, अन्य छोटे दलों के तीन और चार निर्दलीय विधायकों समेत कुल 43 विधायकों का समर्थन मिला था. कांग्रेस ने इससे पहले भी जेएमएम का समर्थन किया था लेकिन कभी खुद सरकार में शामिल नहीं हुई. इस बार हेमंत कांग्रेस को मंत्रिमंडल में शामिल करने में कामयाब हुए. इतना ही नहीं, उन्होंने आरजेडी को भी सरकार में शामिल कर लिया. साल 2009 में कांग्रेस और आरजेडी के अलग होने के बाद ये पहला मौका था, जब दोनों ने हेमंत सरकार की मदद के लिए हाथ मिलाया. 533 दिन बाद 28 दिसंबर 2014 को तीसरे विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो गया और राज्य एक बार फिर चुनावी शोर में डूब गया.
रघुवर दास ने पूरा किया अपना कार्यकाल
2014 में झारखंड में पांच चरण में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए. जिसके बाद 28 दिसंबर 2014 को रघुवर दास ने 10वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. वो सूबे के पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री भी बने. 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 37 सीटों पर जीत हासिल हुई. बाद में जेवीएम के 6 विधायक भी बीजेपी में शामिल हो गये. सहयोगी आजसू को भी पांच सीटों पर जीत मिली. दूसरी ओर जेएमएम को 19, जेवीएम को 8 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं. झारखंड विकास मोर्चा के 6 विधायकों का बीजेपी के साथ आने से प्रदेश बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिला और एनडीए के नेतृत्व में रघुवर दास को झारखंड की कमान सौंपी गयी.
झारखंड में भाजपा की सरकार रघुवर दास ही एक ऐसे सीएम रहे जिन्होंने अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. 28 सितंबर 2014 को रघुवर दास ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता की कमान संभाली थी. इससे पहले 14 में से तकरीबन नौ सालों तक झारखंड में भाजपा की ही सरकार रही. खुद रघुवर दास तीन बार मंत्री के अलावा उपमुख्यमंत्री के पद पर काबिज रहे. रघुवर दास पहले मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने किसी सरकार में 1,000 दिन पूरे किए हैं. दावा किए जा रहे हैं कि इन 1,000 दिनों में सरकार ने तरक्की के जो काम किए, नीतिगत फैसले लिए, वो पिछले 14 सालों में नहीं हुए. इन दावों में 14 सालों से लटकी स्थानीय नीति घोषित करना भी शामिल है. साथ ही सरकारी समारोह और बैठकों में न्यू इंडिया नया झारखंड के साथ-साथ मोमेंटम झारखंड का शोर भी जमकर सुनायी दिया.
रघुवर दास के शासनकाल में लगभग एक लाख नियुक्तियां की गई हैं. झारखंड का विकास दर बढ़कर 8.6 प्रतिशत हो गया है, जो गुजरात के बाद देश में दूसरे नंबर पर है तथा जल्दी ही राज्य समृद्ध राज्यों की श्रेणी में खड़ा करने का दावा किया गया. साल 2019 में फरवरी महीने में देश-दुनिया के पूंजी निवेशकों को लुभाने के लिए राज्य सरकार ने मोमेंटम झारखंड कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस आयोजन के प्रचार पर अकेले चालीस करोड़ खर्च किए गए. पूंजी निवेश के नाम पर 3.10 लाख करोड़ के प्रस्तावों पर एमओयू हुए.
रघुवर दास के शासनकाल में 2017-18 को सरकार गरीब कल्याण वर्ष के रूप में मना रही है. रघुवर दास के शासन काल में सरकारी दावा है कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत नवंबर तक गांवों के लोगों को 2.22 लाख घर दे दिए जाएंगे, लेकिन अभी 1,600 आवास ही बनाये जा सके हैं. इसके अलावा 1,000 दिनों में सात लाख घरों में बिजली पहुंचाई गई है. अगले साल तक तीस लाख घरों में बिजली पहुंचाने का दावा किया गया. आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि झारखंड का विकास दर बढ़ना बेशक अच्छे संकेत हैं. प्रति व्यक्ति आय भी राष्ट्रीय औसत की तुलना में तेजी से वृद्धि हो रही है. लेकिन राष्ट्रीय औसत के बराबर आने में लंबा वक्त लगेगा. राज्य में 2015-16 में प्रति व्यक्ति आय 62,818 रुपये रही है.
विवादों में रहे रघुवर दास
विपक्ष सरकार के दावों पर सवाल खड़ा किया. झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि जिस राज्य में जहरीली शराब से पुलिस के जवान, आम आदमी की मौत हो रही हो, किसान आत्महत्या कर रहे हों, अस्पतालों में सैकड़ों की तादाद में बच्चे दम तोड़ रहे हों वहां सरकार समारोह पर करोड़ों खर्च कर सियासी लाभ उठाने की कोशिशों में जुटी है. कांग्रेस इस बात पर निशाने साध रही है कि मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री को कॉपी करने में जुटे हैं. पूर्व उपमुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने मीडिया से कहा है कि सरकार जनता के पैसे का दुरूपयोग करने में लगी है. जबकि तत्कालीन मंत्री सीपी सिंह इस पर जोर देते हैं कि जो काम चौदह सालों में नहीं हुए उसे एक हजार दिनों में कर दिखाया गया. इसके साथ ही ब्यूक्रेट्स के साथ रघुवर दास की हमेशा अनबन रही. सीएम रहते हुए रघुवर दास पर आला अधिकारियों को प्रताड़ित करने उनसे डांट-डपट करने के लिए वो हमेशा मीडिया की सुर्खियों में रहे.
झारखंड की राजनीति का टर्निंग प्वाइंट
2014 के विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजर थी. 14 वर्षों के राजनीतिक उथल-पुथल से ऊब चुकी झारखंड की राजनीति नया अध्याय लेकर सामने आई. यह वह दौर था जब राज्य गठन के 14 वर्ष बाद पहली बार रघुवर दास के रूप में झारखंड को गैर आदिवासी के रूप में 10वां मुख्यमंत्री मिला. 37 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और 5 सीटें लेकर आई आजसू के साथ मिलकर सरकार बन गई लेकिन भाजपा इस बात को समझ रही थी कि आजसू के सहारे सरकार को खींचना मुश्किल होगा. लिहाजा जेवीएम के 8 में से 6 विधायक तोड़ दिए गए. भाजपा को अपने बूते बहुमत का आंकड़ा मिल गया. दबाव की राजनीति खत्म हो गई और ऐसा पहली बार हुआ जब झारखंड के किसी मुख्यमंत्री ने हनक के साथ अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया.
2019 से चुनाव पूर्व गठबंधन की राजनीति शुरू
अब बारी थी 2019 के विधानसभा चुनाव की. झारखंड को राजनीतिक स्थिरता के फायदे समझ आ गए थे. अपने कुछ फैसलों और सहयोगियों के साथ सख्त व्यवहार के कारण रघुवर दास को हार का सामना करना पड़ा.
झारखंड राज्य के गठन के 21 साल पूरे होने तक राज्य की राजनीतिक भूगोल में कई उतार-चढ़ाव देखे गए. मेच्योर होते-होते राज्य ने अपने कई सीएम बदलते देखा. लेकिन राजनीति की इस प्रयोगशाला में विकास का फॉर्मूला कोई सरकार नहीं बना पायी, क्योंकि प्रदेश में सरकार का लगभग हर कार्यकाल समीकरण और सीटों के गणित में ही उलझा रहा. हालांकि अब देखना होगा कि स्थिरता और झारखंडी महत्वाकांक्षा की पटरी पर कैसे दौड़ती है विकास की गाड़ी.हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यूपीए को स्पष्ट बहुमत मिला. 30 सीटों पर जीत के साथ झामुमो सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई. बतौर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की दूसरी पारी शुरू हुई और इस तरह झारखंड को 11वां मुख्यमंत्री मिला. 2014 के बाद निर्दलीय कल्चर को जनता ने नकार दिया.