रांची: झारखंड की राजनीति में शिबू सोरेन एक ऐसी शख्सियत हैं जिनकी चर्चा के बिना कभी भी प्रदेश की राजनीतिक इतिहास की इबारत लिखना संभव नहीं होगा. यही वजह है कि देश और राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी हर बार सोरेन को शिकस्त देने की कोशिश में दुमका में 'मुंह की खाती'आ रही है. बिहार से अलग झारखंड बनने के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने दुमका सीट पर जीत के लिए कोशिश की लेकिन अभी तक उसे सफलता नहीं मिली है.
आदिवासियों के हित की लड़ाई है सोरेन का मजबूत पक्ष
प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा का नेतृत्व कर रहे सोरेन 70 के दशक से सूबे में आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं. एकीकृत बिहार में हजारीबाग और मौजूद झारखंड के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्मे सोरेन अपनी युवावस्था में महाजनी प्रथा के खिलाफ लोगों को गोलबंद करने में लगे. ट्राइबल कम्युनिटी के होते हुए उन्होंने शराबबंदी और आदिवासियों को शिक्षित करने पर जोर ने उन्हें अपनी कम्युनिटी में दिशोम गुरु की उपाधि दिलवाई.
75 की उम्र के सोरेन बीजेपी के लिए बन गए हैं चुनौती
दरअसल, जिस उम्र का स्लैब के आधार पर बीजेपी ने अपनी सिटिंग एमपी का टिकट काट रही है, वहीं उसी उम्र में सोरेन बीजेपी के लिए एक चैलेंज बने हुए हैं. उनके साथ रहनेवाले लोग मानते हैं कि सोरेन एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचारधारा हैं. यही वजह है कि इस उम्र में भी उनकी स्वीकार्यता कायम है.
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सोरेन व्यक्ति नहीं एक विचारधारा हैं
झामुमो सुप्रीमो के करीब विजय सिंह कहते हैं कि सोरेन व्यक्ति नहीं एक विचारधारा हैं और इतिहास पलट कर देखें तो विचारधारा कभी भी आउटडेटेड नहीं होती है. जेपी मूवमेंट के बाद सोरेन की विचारधारा से प्रभावित होकर यहां जेएमएम में ज्वाइन करने वाले सिंह कहते हैं कि महाजनी प्रथा के विरुद्ध सोरेन का चलाया गया अभियान और आदिवासियों को हड़िया-दारु से खुद को अलग रखने की अपील अब भी प्रासंगिक है.