रांची: 26 जुलाई कारगिल युद्ध की 20वीं सालगिरह है. इस दिन हर साल विजय दिवस मनाया जाता है. इस दिन से देश के साथ-साथ झारखंड का भी गहरा नाता है. झारखंड में 26 जुलाई सिद्धू-कान्हू की पुण्यतिथि के रूप में मनाया जाता है.
कहा जाता है कि आजादी की सबसे पहली लड़ाई मेरठ की लड़ाई थी, लेकिन उससे 100 वर्ष पहले ही आजादी का बिगुल झारखंड में फूंक दिया गया था. हालांकि झारखंड की इस लड़ाई को इतिहास के पन्नों में ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई. इस लड़ाई के मुख्य नायक सिद्धू कान्हू रहे, जिन्होंने अपनी बुद्धिमता और चालाक रणनीति से अंग्रेजों को संथाल से भगाया.
पहली जनक्रांति थी संथाल हूल
ब्रिटिश राज के शुरू के सौ सालों में नागरिक विद्रोहों का सिलसिला किसी खास मुद्दे और स्थानीय असंतोष के कारण चलता रहा. 1763 से 1856 के बीच देश भर में अंग्रेजों के विरूद्ध 40 से ज्यादा बड़े विद्रोह हुए. छोटे पैमाने पर तो इनकी संख्या बेशुमार है. ऐसे ही कुछ विद्रोह झारखंड की जनजातियों द्वारा हुए. दरअसल, अधिकांश जनजातीय विद्रोहों में उनके जातीय हित की बुनियादी कारण रहे हैं. जनजातियों में संथालों का विद्रोह सबसे जबरदस्त था. भारत से अंग्रेजों को भगाने के लिए यह प्रथम जनक्रांति थी, जो संथाल हूल के नाम से प्रसिद्ध हुई.
संथालों की संख्या सबसे अधिक
झारखंड की जनजातियों में संथालों की संख्या सबसे अधिक है. इनका मुख्य निवास स्थल संथाल परगना है, जो छोटानागपुर के उत्तरी-पूर्वी छोर पर स्थित है. इनकी बहूलता के कारण ही संथाल परगना नाम दिया गया है. छोटानागपुर में प्रवेश के बाद संथालों ने इसी क्षेत्र को अपना आवास स्थल बनाया. संथाल परगना तब भागलपुर कमिश्नरी का अंग था. हजारीबाग और वीरभूम जिले में संथाल बहुत पहले आ बसे थे. इन्हीं इलाकों से आकर ये संथाल परगना में आ बसे थे.
महाजन हड़पने लगे जमीन
छोटानागपुर में अंग्रेजों का अधिपत्य 1756 से ही हो चुका था, लेकिन यहां की जनजातियों पर नहीं. धीरे-धीरे शोषण और अत्याचार का शिकंजा कसता गया. 1850 तक यहां तक के चप्पे-चप्पे में शोषण छा चुका था. संथाल भी इसके शिकार हो गये. साहबों की उपेक्षा, महाजनों का शोषण, अमला के भ्रष्टाचार अत्याचार बढ़ते गये. संथाल स्त्रियां भी इस अत्याचार से अछूती नहीं रही. बंगाली-बिहारी महाजन ऋण देकर भारी सूद वसूलते, छोटे बटखरे से इन्हें सामान बेचते और बड़े बटखरे से इनका उत्पादन को खरीदते. इन्हें ठगते भी और ऋण की वसूली बड़ी क्रूरता-कठोरता से करते. न्यायालय दूर, पुलिस संवेदना शून्य.
इन्हें कोई इंसाफ नहीं मिलता था. धीरे-धीरे इनकी जमीन भी महाजन हड़पने लगे. अंग्रेजों ने मालगुजारी बढ़ा दी कर लगान नहीं देने पर इनकी संपति को कुर्की जब्ती व नीलामी होने लगी. स्वदेशी महाजन जमींदारी और विदेशी हुक्मरान दोनों ओर से दोहरी मार. इनकी नजर में दोनों दिकू थे जिसके लिए इनके मन में भयंकर आक्रोश पनप चुका था. अतंत: इनका धैर्य टूट गया. संथाल हूल इसी शोषण की देन है.
सिद्धू-कान्हू और चांद-भैरव ने किया नेतृत्व
संथाल हूल का नेतृत्व भोगनाडीह निवासी चुन्नी मांझी के चार पुत्रों ने किया. ये थे सिद्धू कान्हू, चांद और भैरव. हूल के समय कान्हू की उम्र 35 वर्ष, चांद की आयु 30 वर्ष और भैरव की उम्र 20 वर्ष बतायी जाती है. सिद्धू सबसे बड़ा था लेकिन उनकी जन्मतिथि 1825 के आस-पास मानी गई है. जब सिद्धू-कान्हू ने शोषण के विरूद्ध विद्रोह करने का संकल्प ले लिया तो जन समूह को एकजुट करने और एकत्रित करने के लिए परंपरागत ढंग से अपनाया. दूगडूगी पिटवा दी और साल टहनी का संदेशा गांव-गांव भेजवाया. साल टहनी क्रांति संदेश का प्रतीक है.
30 जून, 1855 की तिथि भगनाडीहा में विशाल सभा रैली के लिए निर्धारित की गई. तीर धनुष के साथ लोगों को सभा में लाने की जिम्मेवारी मांझी/परगनाओं को सौंपी गई. संदेश चारों ओर फैल गया. दूरदराज के गांवों से पद-यात्रा करते लोग चल पड़े तीर-धनुष और पारंपरिक हथियारों से लैस कोई बीस हजार संथाल 30 जून को भगनाडीह पहुंच गये.
इस विशाल सभा में सिद्धू कान्हू के अंग्रेज हमारी भूमि छोड़ के नारे गूंज उठे. कभी तिलक ने कहा था- स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था-तुम हमें खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा और गाँधी ने नारा दिया था-करो या मरो. इनसे पहले ही उसी तर्ज पर सिद्धू ने ललकारा था-करो या मरो, अंग्रेजों हमारी पार्टी छोड़ दो.
लड़ाई में शामिल हुए सभी धर्म के लोग
सिद्धू का लोकतंत्र में विश्वास था. उसने समझ लिया था कि केवल संथालों द्वारा जन-आंदोलन संभव नहीं है. इसलिए औरों का भी सहयोग लिया. इस विद्रोह में अन्य लोग भी जैसे कुम्हार, चमार, ग्वाला, तेली, लोहार, डोम और मुस्लिम भी शामिल हो गये.