दुमकाः कठपुतली नृत्य जैसी एक लोक कला संथाल आदिवासियों से जुड़ी है. झारखंड में इसे चदर बदोनी या चदर बदर कहा जाता है. इस लोक कला में लकड़ी से बनी कठपुतलियों को एक ढांचे पर कसकर 8-10 लोगों की टीम मांदर, नगाड़ा, घुंघरू, झाल और करताल जैसे पांरपरिक वाद्य यंत्रों के साथ नाचते-गाते हैं. इस कला को बांग्ला में पुटूल और हिंदी में कठपुतली के नाम से जाना जाता है.
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क्या कहते हैं लोक कलाकार
आदिवासियों की ये मान्यता है कि इंसान एक कठपुतली के जैसा है, जिसकी डोर भगवान के हाथ में है. चदर बदोनी में इसी भावना को आदिवासी संस्कृति और रीति रिवाज से जोड़कर प्रदर्शित करते हैं. धीरे-धीरे अब ये कला विलुप्त होती जा रही है. लोक कलाकार मानेश्वर मुर्मू के अनुसार चदर बदोनी काफी पुरानी लोक कला है. अब इस कला को जानने वाले काफी कम लोग बचे हैं. उनका ये भी कहना है कि सरकार इस कला को प्रोत्साहित करे तो ये आदिवासियों की संस्कृति के साथ इससे जुड़े लोक कलाकारों का भी विकास होगा.
सरकार की पहल
भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय के हस्तशिल्प विभाग ने चदर बदोनी को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया है. हस्त शिल्प विभाग की क्षेत्रीय निदेशक वाणी व्रत राय ने ईटीवी भारत को बताया कि विभाग की रिपोर्ट में ये कला विलुप्ति की कगार पर है लेकिन अब इसके विकास के लिए हरसंभव कोशिश की जा रही है. पर्यटन विभाग भी देश-विदेश में इस कला के प्रचार-प्रसार की योजना बना रहा है ताकि इससे जुड़े कलाकारों को मान सम्मान के साथ उचित पारिश्रमिक भी मिले.
चदर बदौनी कठपुतली लोक कला झारखंड के संथाल परगना के अलावा पश्चिम बंगाल और ओडिशा के सीमावर्ती इलाकों में भी लोकप्रिय है. सरकार के प्रयासों से उम्मीद है कि चदर बदोनी की ये चहक बरकार रहेगी और इसके साथ ही लोक कलाकारों का भी भला हो सकेगा.