शिमला: प्रदेश में विश्व स्तरीय अंगूर जूस और अंगूर के अन्य उत्पाद तैयार करने के लिए वर्ष 2000 में प्रगतिनगर व नवगाईं में उद्योग स्थापित करने को लेकर प्रदेश सरकार ने निजी कंपनी के साथ एमओयू साइन किया था. दुनिया में विख्यात फ्रांस की इंडस्ट्री (French industry) को चुनौती देने के लक्ष्य को लेकर किए गए इस एमओयू हिमाचल सरकार आज तक सिरे नहीं चढ़ा पाई है. महाराष्ट्र की कंपनी के मनमाने रवैये से नॉन एल्कोहलिक ग्रेप्स जूस इंडस्ट्री (Grapes Juice industry) शुरू करना तो दूर लेकिन इसके लिए चिन्हित की गई करोड़ों रुपए की जमीन वर्ष 2000 से बेकार पड़ी है.
सरकार ने शिमला जिला के प्रगति नगर व मंडी जिला के नवगाईं में उद्योग स्थापित करने को लेकर महाराष्ट्र की एक कंपनी के साथ एमओयू साइन किया था. जिसके अनुसार दोनों स्थानों पर भूमि का चयन भी किया गया था. मंडी जिले के नगवाईं में 55 बीघा सरकारी जमीन का चयन हुआ. अंगूर जूस और अन्य अंगूर से ही अन्य उत्पादों का कारखाना महाराष्ट्र की कंपनी हिमाचल इंडेज लिमिटेड, हिमाचल प्रदेश हॉर्टिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग एंड प्रोसेसिंग कॉरपोरेशन (Himachal Pradesh Horticulture Produce Marketing and Processing Corporation, एचपीएमसी) व हॉर्टिकल्चर डिपार्टमेंट की तरफ से संयुक्त रूप से स्थापित होना था. कंपनी को जमीन तक हस्तांतिरत कर दी गई थी. लेकिन कंपनी के अड़ियल रवैये के कारण मामला कानूनी पचड़े में उलझ गया.
यह निजी कंपनी विवाद को लेकर पहले बॉम्बे हाईकोर्ट और फिर हिमाचल हाईकोर्ट में गई, लेकिन मामला अभी भी हिमाचल हाईकोर्ट में होने के कारण करोड़ों की जमीन बिना किसी उपयोग के पड़ी है. बागवानी मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर (Horticulture Minister Mahendera Singh Thakur) ने बताया कि 2001 में नगवाईं में जमीन कंपनी को हस्तांतरित की गई. परंतु कंपनी ने उसके चार साल बाद (वर्ष 2005) तक उस जमीन पर कोई काम नहीं किया. जिसके बाद वर्ष 2005 में उस समय की राज्य सरकार और कंपनी के बीच एक और एमओयू साइन किया गया. उस एमओयू में कंपनी ने ये हामी भरी कि व एचपीएमसी के बिना कार्य करेगी. उसके बाद दिसंबर 2005 में दूसरा एमओयू होने के बाद भी कंपनी से अंगूर जूस और अन्य उत्पाद के कारखाने के लिए दी गई जमीन पर कोई काम नहीं किया.
गौर करने वाली बात यह है कि दिसंबर 2005 में जब दूसरी बार कंपनी के साथ एमओयू कर कंपनी को 55 बीघा जमीन सौंपी गई थी तो उस जमीन की कीमत एक करोड़ से अधिक थी. ये रकम कंपनी ने राज्य सरकार को दस किश्तों में अदा करनी थी. यहां कंपनी ने केवल दो ही किस्तें ही अदा की है अक्टूबर 2007 के बाद कंपनी ने कोई किस्त अदा नहीं की है. महेंद्र सिंह के अनुसार ये एमओयू की शर्तों का उल्लंघन था.
इस पर कंपनी को नोटिस भेजे गए, लेकिन कंपनी लापरवाह बनी रही. जिसके बाद प्रदेश सराकर ने 2011 में एमओयू को निरस्त कर दिया. राज्य सरकार की तरफ से एमओयू को निरस्त करने पर कंपनी फरवरी 2012 में हाईकोर्ट में गई. बाद में कंपनी ने मामले को आपसी सहमति से सुलझाने के लिए एक नए समझौते का आग्रह किया. वर्ष 2014 में कंपनी ने न्यायालय में दाखिल याचिका को वापस ले लिया.