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संस्कृति पर भारी पड़ी आधुनिक जमाने की चकाचौंध! मिट्टी से बने दीयों की खरीददारी हुई कम

दीये को दिवाली के प्रतीक के रूप में माना जाता है. दीये के बिना त्योहार नहीं मनाया जा सकता, लेकिन आज इलेक्ट्रोनिक सामान को दीये की शक्ल दे दिए जाने से मिट्टी के दीयों की मांग कम हुई है. इससे कुम्हार का पारंपरिक व्यवसाय तो प्रभावित हुआ ही है और साथ ही उसकी दीपावली भी फीकी हुई है.

दीये को दिवाली

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Published : Oct 26, 2019, 9:26 PM IST

करनाल: संस्कृति और परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है. भारतीय संस्कृति से जुड़े पारंपरिक त्योहारों पर यहां के कारीगरों द्वारा निर्मित सामान को तरजीह दी जाती है, लेकिन अब दिवाली पर मिट्टी के दीये की जगह बिजली के बल्ब लड़ियां चमकते हैं.

संस्कृति पर भारी पड़ी आधुनिक जमाने की चकाचौंध !
दीये को दिवाली के प्रतीक के रूप में माना जाता है. दीये के बिना त्योहार नहीं मनाया जा सकता, लेकिन आज इलेक्ट्रोनिक सामान को दीये की शक्ल दे दिए जाने से मिट्टी के दीयों की मांग कम हुई है. इससे कुम्हार का पारंपरिक व्यवसाय तो प्रभावित हुआ ही है और साथ ही उसकी दीपावली भी फीकी हुई है.

संस्कृति पर भारी पड़ी आधुनिक जमाने की चकाचौंध!

दीयों की बिक्री नहीं होने से मायूस हुए कुम्हार
दिवाली पर मिट्टी के दीये बेचकर कुम्हार के घर की दिवाली अच्छी होती है. जिसका इंतजार भी उसे साल भर रहता है, लेकिन दिन प्रतिदिन बढ़ती आधुनिकता के जमाने की चकाचौंध अब कुम्हार पर और उसके व्यवसाय पर भारी पड़ रही है.

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दिवाली के दिन श्रीराम चंद्र जी 14 वर्ष का बनवास काटकर अयोध्या वापिस लौटे थे, उनके आगमन की खुशी में अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर खुशी मनाई थी, तभी से यह परंपरा चली आ रही है. घर-घर में देसी घी और तेल के दीये जलाए जाते हैं. घर की मुंडेर पर दीये सजाने का प्रचलन सदियों से चला आ रहा है, लेकिन पिछले कुछ दशकों से मोमबत्ती ने दीये का स्थान लिया और अब तो बिजली से जगमगाने वाले दीये ही घरों में दिखाई देते हैं.

माटी के दिए बनाने वाले कुम्हारों का कहना है की ना तो चिकनी मिट्टी मिलती है और ना ही मिट्टी के दीये लेने वाले खरीदार. कुम्हारों का कहना है कि मिट्टी महंगी है उसे खरीदो और फिर कई दिनों की मेहनत कर दीये बनाओ और जब बेचने जाओ तो उसके लिए खरीददार नहीं मिलता.

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