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इस बार कौन जीतेगा चंडीगढ़ लोकसभा सीट? पढ़िए पूरी रिपोर्ट

2014 में पहली बार चुनाव लड़ रही किरण खेर ने बड़ी जीत दर्ज की. इसकी दो वजह मानी जा सकती हैं पहली ये कि उस समय देश में मोदी लहर थी और दूसरी किरण खेर एक सेलेब्रिटी के तौर पर चंडीगढ़ में पहुंची थी. वहीं आम आदमी पार्टी की उम्मीद्वार गुल पनाग ने भी बंसल की वोट कम कर दी थी. वहीं उस वक्त पवन बंसल के भतीजे का नाम रेल घूस कांड में आने से बाद बंसल की काफी किरकिरी हुई थी.

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Published : May 18, 2019, 11:59 PM IST

Updated : May 19, 2019, 10:26 AM IST

क्या कहता है चंडीगढ़ का चुनावी गणित

चंडीगढ़: केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ की इकलौती लोकसभा सीट साल 1967 में अस्तित्व में आई. इस सीट पर 13 बार हुए लोकसभा चुनावों में सबसे ज्यादा 7 बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की. चंडीगढ़ लोकसभा सीट से बीजेपी ने 4 बार जीत दर्ज की है, वहीं एक बार जनता पार्टी और एक बार जनता दल ने जीत दर्ज की. कांग्रेस के पवन कुमार बंसल इस सीट से सबसे ज्यादा 4 बार चुनाव जीते हैं. बंसल यहां से साल 1991,1999,2004, 2009 में चुनाव जीते.

किरण खेर- अगर बात करें भाजपा उम्मीदवार किरण खेर की, तो चंडीगढ़ में सेक्टर्स में खेर की अच्छी पैठ है. किरण खेर चंडीगढ़ से ही हैं, यहीं पर सेक्टर-8 में उनका घर भी है. कहा जा सकता है कि चंडीगढ़ में पढ़ी लिखी जमात का एक बड़ा हिस्सा खेर के साथ है.

किरण खेर ने चंडीगढ़ में ट्रिब्यून फ्लाईओवर पास करवा कर भी खूब वाहवाही लूटी. वहीं लोगों को उनके मकानों का मालिकाना हक दिलवानें की स्कीम भी बड़े जोर शोर से शुरू की. हालांकि इस स्कीम का फायदा लोगों को नहीं मिल सका क्योंकि मकानों के लीड होल्ट टू फ्री होल्ड करवाने की फीस इतनी ज्यादा थी कि जिसके चलते लोग अपने मकानों का मालिकाना हक नहीं ले पाए.

चुनाव में चंडीगढ़ बाहरी इलाके जैसे राम दरबार, बापू धाम, 4 नंबर कॉलोनी, ड्डूमाजरा, धनास और मलोया में रहने वाले प्रवासी और पिछड़ी जाति के लोगों में खेर का प्रभाव 2014 के मुकाबले कम हुआ है. इसका सबसे बड़ा कारण है कि किरण खेर इन लोगों के लिए वो सब काम कराने में असफल रही, जिनके उन्होंने वादे किए थे. इन इलाकों में अभी तक मुलभूत सुविधाओं का अभाव है. ड्डूमाजरा के डंपिग ग्राउंड की समस्या का हल ना निकाल पाना भी किरण खेर की बड़ी असफलता मानी जा रही है जिस वजह वहां लोग ना सिर्फ किरण खेर बल्कि चुनाव का ही बहिष्कार करने की बात कह रहे हैं.

चंडीगढ़ में सफाई कर्मचारी भी इन्ही इलाकों से आते हैं. चंडीगढ़ में इनकी अच्छी खासी संख्या है. पिछले साल तत्कालीन मेयर देवेश मोदगिल ने करीब 4 हजार सफाई कर्मचारियों को नगर निगम से हटाने की कोशिश की थी मगर उनके विरोध के चलते वे ऐसा नहीं कर पाए. देवेश मोदगिल किरण खेर गुट से आते हैं. इस वजह से खेर को चुनाव में इस गुट की नाराजगी भी झेलनी पड़ सकती है.

किरण खेर ने चंडीगढ़ के गावों में किसानों की लाल डोरे में पड़ती जमीन की समस्या से निजात दिलाई जिससे किरण खेर अपनी पीठ थपथपा रही हैं. उनके इस काम से काफी हद तक गांव के मतदाता उनके समर्थन में आए. वहीं खेर ने सांरगपुर गांव को गोद लिया था. जहां उन्होंने अच्छे खासे विकास कार्य भी करवाए. जिससे उस गांव से भी खेर को अच्छा समर्थन प्राप्त है.

बहुत से गांव ऐसे हैं जहां खेर को विरोध झेलना पड़ेगा. किरण खेर के सांसद रहते चंडीगढ़ प्रशासन ने चंडीगढ़ के 13 गांवों किशनगढ़, मौलीजागरां, दड़वा, रायपुरकलां, मक्खन माजरा, बहलाना, रायपुर खुर्द, धनास, सारंगपुर, खुड्डा अलीशेर, कैंबवाला, खुड्डा लाहौरा और खुड्डा जस्सू गांव में पंचायत खत्म करके उन्हें नगर निगम में मिला लिया. हालांकि ग्रामीणों ने इस बात का काफी विरोध किया लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी. इन लोगों ने खेर के सामने ऐसा ना करने की मांग रखी लेकिन तब खेर इन ग्रामीणों की ज्यादा सहायता नहीं कर पाई. अब इन गांवों मे से रायपुरकलां और सांरगपुर को छोड़ दें तो बाकी गांव में से वोट लेना खेर के लिए आसान नहीं होगा.

चंडीगढ़ में विकास के मुद्दे के नाम पर कांग्रेस शुरू से ही किरण खेर पर हावी रही है. चंडीगढ़ का सफाई के मामले में दूसरे स्थान से खिसक कर 20वें स्थान पर आ जाना किरण खेर के लिए बड़ा झटका साबित हुआ. इतना ही नहीं चंडीगढ़ स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में भी 67वें नंबर है. ये आंकड़ों का खेल भी किरण खेर पर भारी पड़ सकता है.

पवन बंसल- चंडीगढ़ से 4 बार सांसद रह चुके हैं इसलिए यह साफ है कि बंसल को चंडीगढ़ में अच्छा खासा जनाधार है. लेकिन 2014 के चुनाव परिणाम ऐसे रहे जिसके बारे में बंसल ने भी सोचा नहीं होगा. इन चुनावों में बंसल भारी मतों से हार गए थे. वहीं पहली बार चुनाव लड़ रही किरण खेर ने एक बड़ी जीत दर्ज की. इसके दो कारण माने जा सकते हैं पहला ये कि उस समय देश में मोदी लहर थी और दूसरा किरण खेर एक सेलेब्रिटी के तौर पर चंडीगढ़ में पहुंची थी. वहीं आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार गुल पनाग ने भी बंसल की वोट कम कर दी थी. वहीं उस वक्त पवन बंसल के भतीजे का नाम रेल घूस कांड में आने से बाद बंसल की काफी किरकिरी हुई थी. जिसके बाद बंसल के रेल मंत्री के पद से इस्तीफा तक देना पड़ गया था. इस घूस कांड को भी भाजपा ने खूब भूनाया था. जिसके बाद बंसल की छवि काफी खराब हो गई थी.

अगर 2019 में वोटर्स की बात की जाए तो चंडीगढ़ शहरी इलाकों में तो बंसल के वोटर्स की अच्छी संख्या है. साथ ही चंडीगढ़ के बाहरी इलाकों जैसे धनास, मलोया, राम दरबार और बापूधाम में बंसल के काफी समर्थक हैं. बंसल ने इस बार शुरू से ही बाहरी इलाकों और गांवों में चुनाव प्रचार तेज रखा. वहीं बंसल अपने प्रचार के दौरान चंडीगढ़ के ज्यातर गांवों का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे. कांग्रेस हाईकमान ने चंडीगढ़ से बंसल के नाम की घोषणा भी काफी पहले कर दी थी जिससे वे चुनाव प्रचार में भाजपा से आगे निकल गए. क्योंकि भाजपा ने करीब 20 दिन बाद किरण के नाम की घोषणा की.

हरमोहन धवन- आप उम्मीदवार हरमोहन धवन 2019 के तीनों मुख्य उम्मीदवारों में सबसे पुराने नेता हैं. धवन चंडीगढ़ के सांसद रहने के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं. साल 1989 में जनता दल से हरमोहन धवन चुनाव जीते थे. वे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बने. उसके बाद वे चुनाव नहीं जीते. इस दौरान वे समाजवादी जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, इंडियन नेशनल लोक दल, कांग्रेस और बीजेपी में रहे. बीजेपी को छोड़कर वे कांग्रेस में शामिल हुए. वहीं 2014 के चुनाव में हरमोहन धवन ने कांग्रेस को अलविदा कहा और बीजेपी के समर्थन में आ गए. लेकिन 2019 में वे आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए.

2019 के चुनावों की बात करें तो इन चुनावों में धवन का जनाधार पवन बंसल और किरण खेर के मुकाबले काफी कम नजर आता है. धवन शहरी और ग्रामीण वोटर्स को अपने साथ जोड़ने में ज्यादा सफल नहीं हो पाए. हालांकि चंडीगढ़ के बाहरी इलाकों में धवन ने अच्छा जनाधार बना लिया था. साल 2016 से 2018 के बीच चंडीगढ़ में चौथी श्रेणी के कर्मचारियों के कई मुद्दे उठाए. जिनमें धवन ने इन लोगों की अगुवाई की और हर आंदोलन में इनका साथ दिया. इसके साथ-साथ हरमोहन धवन ने अपने आंदोलनों के चलते इन लोगों की कई मांगों को भी मनवाया. जिस वजह से बाहरी इलाकों में रहने वाले ये लोग बड़ी संख्या में धवन के साथ जुड़ गए. ये लोग ही धवन का सबसे बड़ा वोट बैंक माना जा रहा था. लेकिन बाद में ये लोग भाजपा और कांग्रेस में बंट गए, जिससे धवन को झटका लगा.

अविनाश शर्मा- 'चंडीगढ़ की आवाज पार्टी' नाम की एक नई आई पार्टी और उसके उम्मीदवार अविनाश शर्मा ने धवन के जनाधार को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाया. इस पार्टी ने बाहरी इलाकों में सबसे ज्यादा प्रचार किया और प्रशासन के सामने इन्हीं के मुद्दों को उठाया. जिस वजह से इस पार्टी ने बहुत कम समय में अपना वोट बैंक तैयार कर लिया. हालांकि ये पार्टी चुनाव में दूसरे दिग्गजों को ज्यादा मुकाबला नहीं दे पाएगी . लेकिन इस पार्टी के मैदान में आने से हरमोहन धवन के वोट बैंक को करारा झटका लगा है.

क्या कहता है चंडीगढ़ का जातीय समीकरण

अंदर की बात
चंडीगढ़ भाजपा की आपसी फूट किसी से छिपी नहीं है. उम्मीदवार किरण खेर और चंडीगढ़ भाजपा के अध्यक्ष संजय टंडन के बीच भारी कलह है. दोनों ने ही पार्टी से टिकट की मांग की थी लेकिन पार्टी ने किरण खेर को टिकट दिया. हालांकि पार्टी नेता इस बात से इंकार करते आए हैं. लेकिन पार्टी की आपसी फूट सबसे सामने हैं.

ये समीकरण भी हैं खास
चंडीगढ़ में जातीय समीरकण उतना महत्व नहीं रखते जितना हरियाणा या पंजाब में रखते हैं. खत्री, राजपूत, बनिया, ब्राह्मण, कंबोज, लोहार, बाल्मिकी, रमदासिया, सुनार और सैनी समेत कई जातियों के लोग रहते हैं. लेकिन ये सभी लोग अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों में बंटे हुए हैं और ये लोग जाति से ज्यादा अपनी पार्टी और अपने उम्मीदवार को तवज्जो देते हैं.

लेकिन चंडीगढ़ में बाल्मिकी समाज पर सभी उम्मीदवारों की नजरें रहती हैं. क्योंकि वैसे ये समाज बंटा नजर आता है लेकिन मुद्दों को लेकर इस समाज के लोगों में एकता देखी गई है. चंडीगढ़ में बाल्मिकी समाज की करीब 2 लाख वोट हैं. जो भी उम्मीदवार इन लोगों की ज्यादा वोट हासिल कर पाएगा उसकी जीत उतनी ही निश्चित हो जाएगी.

Last Updated : May 19, 2019, 10:26 AM IST

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